वासंती नवरात्रि : स्त्रीत्व का उत्सव

धु्रव गुप्त

स्त्री-शक्ति के प्रति सम्मान के नौ-दिवसीय पर्व वासंती नवरात्रि का आज आरम्भ हो रहा है। यह अवसर है नमन करने का उस सृजनात्मक शक्ति को जिसे ईश्वर ने स्त्रियों को सौंपा है। उस अथाह प्यार, ममता और करुणा को जो कभी मां के रूप में व्यक्त होता है, कभी बहन, कभी बेटी, कभी मित्र, कभी प्रिया, कभी पत्नी के रूप में। दुर्गा पूजा, गौरी पूजा और काली पूजा वस्तुतः स्त्री-शक्ति के विभिन्न आयामों के सम्मान के प्रतीकात्मक आयोजन हैं। काली स्त्री का आदिम, अनगढ़ और अनियंत्रित स्वरुप है जिसे काबू करना पुरुष अहंकार के बस की बात नहीं। गौरी या पार्वती स्त्री का सामाजिक तौर पर नियंत्रित, गृहस्थ, ममतालु रूप है जो सृष्टि का पालन करती है। दुर्गा स्त्री के आदिम और गृहस्थ रूपों के बीच की स्थिति है जो परिस्थितियों के अनुरुप करूणामयी भी है और संहारक भी। नवरात्रि के हर दिन पूजी जाने वाली नौ देवियां सृष्टि-प्रक्रिया के नौ महीनों में स्त्री की जटिल शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्थितियों के नौ सांकेतिक रूप-मात्र हैं। यह विडंबना है कि स्त्री-शक्ति के ये सांकेतिक रूप आज हमारे आराध्य बन बैठे और जिसके सम्मान के लिए ये तमाम प्रतीक गढ़े गए, वह स्त्री पुरूष अहंकार के पैरों तले आज भी रौंदी जा रही हैं। जिस देश में सूअर, मगरमच्छ, उल्लूओ, बैलों और चूहों तक को देवताओं के अवतार और वाहन का दर्जा प्राप्त है, वहां स्त्रियों को सिर्फ इसलिए गर्भ में मार दिया जाता है कि कुल का दीपक नहीं बल्कि ज़िम्मेदारी है, इसलिए जिन्दा जला दिया जाता है कि वह दहेज़ की पर्याप्त रकम साथ नहीं लाईं, इसलिए अपमानित किया जाता है कि उसने अपनी पसंद के कपडे पहन रखे हैं और इसलिए रौंद डाला जाता है कि उसने घर की दहलीज़ से बाहर क़दम रखने की कोशिश की। स्त्रियों के प्रति हमारे विचारों और कर्म में यह विरोधाभास हमेशा से हमारी संस्कृति का सबसे बड़ा संकट रहा है। स्त्री एक साथ स्वर्ग की सीढ़ी भी रही है और नर्क का द्वार भी। घर की लक्ष्मी भी और ‘ताड़न’ की अधिकारी भी, मनुष्यों और देवताओं की जननी भी और वेश्यालयों में बिकने वाली देह भी। पूजा की पात्र भी और मौज-मज़े की चीज़ भी। नवरात्रि की प्रतीकात्मक शक्ति-पूजा तभी सार्थक होगी जब पुरूष स्त्रियों के विरुद्ध हजारों सालों से जारी कन्या भ्रूण-हत्या, लैंगिक भेदभाव, बलात्कार, उत्पीडन और उन्हें वस्तु या उपभोग का सामान समझने की मानसिकता बदलें और स्त्रियां खुद भी अपने भीतर मौजूद देवी काली, पार्वती और दुर्गा को पहचानने का प्रयास करें !जब तक देवी की काल्पनिक मूर्तियों के साथ स्त्रियों के रूपं में जीवित देवियों का सम्मान करना हम नहीं सीख लेते, नवरात्रि के कर्मकांड का कोई अर्थ नहीं ! (धु्रव गुप्त. भारतीय पुलिस सेवा से सेवानिवृत अफसर हैं. यह आलेख उनके फेसबुक टाइमलाइन से साभार )






Related News

  • क्या बिना शारीरिक दण्ड के शिक्षा संभव नहीं भारत में!
  • मधु जी को जैसा देखा जाना
  • भाजपा में क्यों नहीं है इकोसिस्टम!
  • क्राइम कन्ट्रोल का बिहार मॉडल !
  • चैत्र शुक्ल नवरात्रि के बारे में जानिए ये बातें
  • ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाही
  • कन्यादान को लेकर बहुत संवेदनशील समाज औऱ साधु !
  • स्वरा भास्कर की शादी के बहाने समझे समाज की मानसिकता
  • Comments are Closed

    Share
    Social Media Auto Publish Powered By : XYZScripts.com