अंतर्विरोधों से जूझती बिहार की राजनीति और दलित-मुस्लिम वोट की ‘झपटमारी’
डा. रतन लाल
पटना के कृष्ण मेमोरियल हॉल में आज (17.10.2016) बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी ने दलित-मुस्लिम सम्मलेन का आयोजन किया. कहा जा रहा है कार्यकर्ताओं में बड़ा उत्साह है, होना भी चाहिए क्योंकि बिहार कांग्रेस ने बिहार में इस विषय पर पहली बार किसी बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया है.
बहरहाल, बिहार के ताज़ा सियासी सफ़रनामे पर नज़र डालते हैं, थोड़ा दिलचस्प है. ‘कुमार’ मोहन भागवत ‘प्रसाद’ के अभूतपूर्व ‘समर्थन’ से महागठबंधन ने बिहार विधान सभा चुनाव (2015) में अप्रत्याशित सफलता प्राप्त की (राष्ट्रीय जनता दल 80 सीट, जदयू 71 और कांग्रेस 27) और बिहार में ‘सामाजिक न्याय’ की ‘धर्मनिरपेक्ष’ सरकार बनी. इस चुनाव की तीन खास बातें रही – एक तो राजद और जदयू का गठबंधन. पिछले लोकसभा चुनाव से तक़रीबन आठ महीने पहले मैंने राजद के राष्ट्रीय प्रवक्ता और एक बड़े नेता को जदयू से समझौता करने की सलाह दी थी और कहा था यदि आप समझौता नहीं करेंगे तो आप दोनों का सुपरा साफ़ हो जायेगा. यह सुझाव मेरे एक गुरूजी ने ही दी थी. इस सम्बन्ध में मेरी लम्बी बात पटना प्रभात खबर के वरिष्ठ पत्रकार अजय जी से हुई थी. अजय जी मेरी बातों से सहमत थे. लेकिन राजद के नेताओं ने इस फार्मूलेशन को सिरे से नकार दिया. नतीजा आप सबके सामने रहा. खैर, विधान सभा चुनाव में समझौता हुआ. दूसरे, ‘कुमार’ मोहन भागवत ‘प्रसाद’ ने बीजेपी को उसकी असली औकात दिखला दी. तीसरे, बिहार में अपने जनाधार से लापता हो चुकी कांग्रेस को एक लम्बे अंतराल के बाद थोड़ा ऑक्सीजन मुय्यस्सर हुआ. इतिहास की त्रासदी देखिए, एक ज़माने में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद तो कांग्रेस के खिलाफ ही तो खड़े थे. लेकिन पिछले ढाई दशक से कांग्रेस ‘बेचारी’ बनकर राजद की पिछलग्गू बनी हुई है.
बहरहाल, ‘फील गुड’ के माहौल में महागठबंधन की सरकार बनी. लेकिन तीनों दल के आपसी अंतर्विरोध भी तो बरक़रार हैं. नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री बनने की जल्दीबाज़ी है, इसलिए वे मुख्यमंत्री रहकर भी अपनी कार्यशैली भावी प्रधानमंत्री जैसा रखते हैं. लालू प्रसाद जी का जीवन भी ‘संकट-ग्रस्त’ ही रहा है: पहले दो साले साहब से परेशान, फिर चारा घोटाला का मुक़दमा और जेल. अब जाकर किसी तरह से पारिवारिक ‘कलह’ से निबटे हैं. लेकिन उनकी सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कैसे वह अपने छोटे पुत्र श्री तेजस्वी यादव को बिहार की राजनीति में स्थापित करें. इसलिए वे नीतीश कुमार को भावी प्रधानमंत्री तक स्वीकार चुके हैं. लेकिन राजनीति की महिमा निराली होती है. कब क्या हो जाय, कहा नहीं जा सकता? हो सकता हो राजद और जदयू दोनों एक दूसरे को तोड़ने के फ़िराक में भी हो क्योंकि नीतीश कुमार से पिछला एक हिसाब-किताब तय भी तो करना है. सनद रहे लालूजी की पार्टी के 13 विधायक एक बार गायब हो गए थे और लालूजी बहुत परेशान हुए थे.
थोड़ी सी चर्चा माननीय रामबिलास पासवान जी और जीतन राम मांझी साहब के बारे में. नब्बे के दशक में रामबिलास पासवान एक कद्दावर दलित नेता माने जाते थे. लेकिन सत्ता की लालच में न तो उन्हें सामाजिक न्याय से ही कुछ लेना देना है और न ही धर्मनिरपेक्षता से! हालाँकि 2005 के विधान सभा चुनाव में वे मुस्लिम मुख्यमंत्री का चेहरा लिए जरुर घूम रहे थे – भाजपा की राजनीतिक जुमले की तरह. अब कुछ सीटों की बारगेनिंग के लिए कभी भी पाला बदल सकते हैं – कुछ सीटें अपने और अपने परिवार के लिए और कुछ अपने दबंग ‘मित्रों’ के लिए. मंत्रालय पाने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं. हाँ, उन्हें भी तो अपने बेटे की ताजपोशी करनी है – बॉलीवुड के असफल कलाकार से राजनीतिक का सफल ‘कलाकार’ भी तो बनाना है.
मांझी साहब! व्यक्तिगत रूप से जनता हूँ. जब मंत्री थे, हमारे यहाँ (दिल्ली में) बतौर मुख्य अतिथि ‘दशरथ मांझी श्रम सम्मान’ में शामिल हुए थे. जब मुख्य मंत्री बने दो बार उनसे व्यक्तिगत रूप से मिला, आग्रह भी किया कि आप किसी दल से गठबंधन न करें. भले ही एक भी सीट न जीतें, लेकिन आपके इर्द-गिर्द दलित समुदाय की सभी जातियों का ध्रुवीकरण हो रहा है. यदि आठ-दस प्रतिशत वोट भी आ गया तो एक सशक्त दलित आन्दोलन खड़ा हो सकता है. लेकिन आन्दोलन की अनुभवहीनता और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के कारण मांझी साहब ‘हम’ से ‘मैं’ हो गए. क्या गिला, क्या शिकवा. हाँ, विधान सभा चुनाव में पासवान साहब और मांझी जी के बीच का होड़ अवश्य सामने आया – कौन बड़ा दलित नेता! भाजपा के साथ इनके गठबंधन पर सुनील कुमार ‘सुमन’ ने एक पोस्ट लिखा था – लटकलअ त गईल बेटा! बसपा के पास न तो कोई जनाधार वाला स्थानीय नेता है, न ही स्थानीय मुद्दों पर स्पष्ट वैचारिकी. जब भी दो-चार जीत कर आये सब राजद की शरण में चले गए. हालाँकि हाल-फिलहाल बसपा अपनी ज़मीन तैयार करने की कोशिश कर ही रही है.
फिलहाल, बिहार की दलित-मुस्लिम राजनीति ‘दिशाहीन’ है और महागठबंधन की शरण में है.
अब देखते हैं ‘परमपियारी’, दलितों की ‘मसीहा’ पार्टी – कांग्रेस – का हाल! परंपरागत रूप से कांग्रेस के जनाधार थे – मुस्लिम, दलित और ब्राह्मण. ब्राह्मण तो ‘संघ-परिवार’ में चले गए, सामाजिक न्याय के नाम पर दलितों को और आडवानी साहब का रथ रोकने के नाम पर मुसलमानों को लालू जी ने झटक लिया. ज्यादातर दलित और मुसलमान अभी भी लालू प्रसाद के साथ ही हैं. इसलिए कांग्रेस को राजद से पुराना हिसाब-किताब भी तो चुकता करना है और अपने पुराने जनाधार को वापस लाना है. वैसे भी राजनीतिक गलियारों में कहा जाता है कि लालू जी, राहुल ‘साहब’ के गुड बुक्स में नहीं हैं. यह अकारण नहीं है कि बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष और वर्तमान शिक्षा मंत्री श्री अशोक चौधरी, जो लालू जी के सामने मुंह खोलने की हिम्मत नहीं करते थे, आज उन्हीं के गढ़ में दलित-मुस्लिम सम्मलेन कर रहे हैं. लालू प्रसाद जी सावधान रहें, आपके पैर के नीचे से ज़मीन खिसकाने की तैयारी चल रही है. कहीं तेजस्वी साहब को मुख्य मंत्री बनाने का ‘सपना’, सपना ही न रह जाय.
आखिर कांग्रेस पार्टी देश की सबसे पुरानी पार्टी है और अब यदि कांग्रेस दलित-मुस्लिम सम्मलेन कर रही है तो कुछ प्रश्न तो बनता ही है. क्या कांग्रेस के पास दलितों और मुस्लिमों के लिए कोई स्पष्ट एजेंडा है, आरक्षण के सवाल पर, संधाधनों में हिस्सेदारी के सवाल पर, सुरक्षा और सम्मान के सवाल पर इत्यादि. कांग्रेस ही भारत में निजीकरण के लिए ज़िम्मेदार रही है, क्या वह निजी क्षेत्र में आरक्षण को अपने एजेंडे में शामिल करेगी? अबाध निजीकरण और लम्पट पूंजीवाद पर भी कांग्रेस को अपनी नीति और नियत स्पष्ट करनी चाहिए.
अनुभव बतलाता है कि कांग्रेस में कई विचारधाराओं के नेता और कार्यकर्ता रहे हैं और लम्बे समय से कांग्रेस के अन्दर ही प्रजातान्त्रिक प्रवृति और सामंती प्रवृति के बीच संघर्ष चलता आ रहा है. आज़ादी के बाद से ही कांग्रेस के अन्दर दक्षिणपंथी और सामंती प्रवृतियाँ हावी रहीं हैं, आतंरिक जनवाद/संवाद का आभाव रहा है. जनाधार वाले नेता को दबाया गया और ‘विरासती’ लोगों को बढ़ाया गया. यदि तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्षता’ के सवाल को छोड़ दें तो दलितों और मुस्लिमों के प्रति व्यवहार में कांग्रेस और भाजपा में कोई ज्यादा अंतर नहीं है. ‘धर्मनिरपेक्षता’ कांग्रेस के लिए राजनीतिक USP से ज्यादा कुछ नहीं है. अभी भी कांग्रेस के अन्दर सामंती और जातिवादी ताकतें हावी हैं. यह अकारण नहीं है कि बिहार में कांग्रेस दलित-मुस्लिम सम्मलेन कर रही है और दिल्ली में हरियाणा प्रदेश के अध्यक्ष और दलित नेता श्री अशोक तंवर की कांग्रेसियों ने ही धुनाई कर दी. क्या दलित-मुस्लिम सिर्फ वोट बैंक की तरह इस्तेमाल होंगे या कुछ स्पष्ट एजेंडा भी है. कई बार राहुल साहब द्वारा उठाये गए मुद्दों पर विश्वास कर लेने का मन करता है, पर सुनते हैं कांग्रेस के अन्दर घाघ प्रवृति के दक्षिणपंथी ‘गिरोह’ दलित-मुस्लिम प्रश्न पर राहुल साहब का कुछ चलने नहीं देते और ‘गुमराह’ करते रहते हैं.
वैसे भी दलित-मुस्लिम अब तक सिर्फ वोट बैंक के रूप में ही इस्तेमाल होते आये हैं और सभी पार्टियों में इनकी स्थिति दोयम दर्जे की ही है. भेदभाव का ताज़ा-तरीन उदहारण बिहार के अर्द्ध-राजस्व मंत्री श्री अब्दूल बारी सिद्दकी साहब ही हैं. अर्द्ध-राजस्व मंत्री इसलिए कि राजद के वरिष्ठ नेता होने के बावजूद उनके विभाग से आधा भाग (सेल्स टैक्स) उर्जा-मंत्री विजेंद्र यादव को दे दिया गया है. वैसे तो कायदे से उन्हें उप-मुख्यमंत्री होना चाहिए था. लेकिन हमारा जनतंत्र भी राजतन्त्र के खुमार से अभी बाहर नहीं निकल पाया है.
अब क्या होगा आगे?
अगले कुछ वर्षों में बिहार की राजनीति दिलचस्प होने वाली है. संभव है, नीतीश कुमार की दिलचस्पी केंद्र की राजनीति में होगी. सबसे ज्यादा जनाधार अभी राजद के पास है, लेकिन समय के साथ लालू साहब की आक्रामकता और तेवर में कमी आएगी. शायद पासवान जी और मांझी जी ‘अप्रासंगिक’ हो जायेंगे. एक राजनीतिक वैक्यूम की स्थिति उत्पन्न हो सकती है. इसी स्थिति का फायदा उठाने के लिए भाजपा भी ‘घात’ लगाए बैठी है, लेकिन इतना तय है अपने बल पर भाजपा बिहार में सरकार बनाने में अभी सक्षम नहीं है. पप्पू यादव भी बीच-बीच में ताल ठोक देते हैं. लेकिन बिहार पप्पू यादव को अपना नेता स्वीकार करेगा, इस बात में संदेह है. बसपा ने भी अपनी संगठनात्मक गतिविधि तेज़ कर दी है. प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर Sc/St कर्मचारी संघ, आरक्षण बचाओ-संविधान बचाओ मोर्चा ने और स्कॉलरशिप काटने के मुद्दे पर भारतीय छात्र कल्याण संघ के कार्यकर्ताओं ने सरकार पर हमला तेज़ कर दिया है और इन तीनों संगठनों ने नए सिरे से दलित, मुस्लिम और पिछड़ा को संगठित करने का प्रयास भी शुरू कर दिया है. हालाँकि इसका आंकलन होना अभी बाकी है.
एक बात स्पष्ट है, आज का बिहार युवा बिहार है. नब्बे के दशक में जन्मे बच्चे अब 26 बरस के हो गए होंगे और अगले चुनाव तक इनकी संख्या और अधिक बढ़ेगी. जाहिर है, इस युवा वर्ग की आकांक्षयें कुछ अलग है, बिहार करवट ले रहा है. इसलिए संभव है अगले कुछ वर्ष राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हों. ऐसा भी हो सकता है कि परंपरागत तरीके से मतदान भी न हो.
लेकिन इतना स्पष्ट है अगले कुछ वर्षों में बिहार में राजनीतिक शुन्यता की स्थिति हो सकती है. इस सन्दर्भ में कांग्रेस द्वारा आयोजित दलित-मुस्लिम सम्मलेन को राजद के दलित-मुस्लिम जनाधार में ‘झपटमारी’ के पूर्वाभ्यास के रूप में देखा जा सकता है. हालाँकि शाम तक प्राप्त सूचना के अनुसार इस सम्मलेन में बीस प्रतिशत ही दलित और मुसलमान थे. उम्मीद है, भविष्य में ऐसे और कई कार्यक्रम हों.
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