उत्तर प्रदेश: यह जंग नहीं आसान

कुणाल प्रधान.नई दिल्ली.

उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव कुछ ही महीने दूर रह गए हैं. राजधानी लखनऊ में लोकतंत्र के अगले उत्सव की तैयारी में साज-सज्जा शुरू हो गई है. हवाई अड्डे के बाहर लखनऊ मेट्रो के खंभों को चमकाया जा रहा है, चारबाग रेलवे स्टेशन तक उसकी परीक्षण यात्रा जो होने वाली है. शहर के भीतर ड्राइव करते समय रिंग रोड-जिसे आजादी के आंदोलन के शहीदों के सम्मान में शहीद पथ कहा जाता है—नई बनी कॉलोनियों के हजारों गगनचुंबी अपार्टमेंट के साथ आसमान की ओर एक नया नजारा पेश करती है. नामपट्टों को सजाया-संवारा जा रहा है जो आपको चाक गंजरिया में बन रही आइटी सिटी का रास्ता बताते हैं और इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम का भी, जो इकाना स्पोर्ट्स सिटी में बन रहा है. शहर की जीवनरेखा गोमती नदी में भी नए घाट बनाए जा रहे हैं. कहीं लोग भूल न जाएं कि इसके लिए किसका शुक्रिया अदा करना है, इसलिए बड़े-बड़े कटआउट इन विकास परियोजनाओं की शोभा बढ़ा रहे हैं. ये कटआउट मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, उनके पिता मुलायम, उनके चाचा शिवपाल और साथ ही गद्दीनशीन समाजवादी पार्टी (सपा) को नियंत्रित करने वाले यादव कुनबे के बहुत सारे चचेरे-ममेरे भाई-बहनों, चाचाओं, चाचियों और बहुओं के हैं.

लखनऊ के बीचोबीच, अपनी हुकूमत के दौरान बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की नेता मायावती के बनवाए गुलाबी बलुआ पत्थर के स्मारकों को विशालकाय होर्डिंग घेरे हुए हैं, जिन पर वे दोबारा धमाके के साथ सत्ता में लौटने का वादा करती दिखाई दे रही हैं. इन पर उदारता से इस्तेमाल की गई दलित मसीहा बी.आर. आंबेडकर और उनके पूर्व मार्गदर्शक कांशीराम की तस्वीरों के साथ सलवार-सूट पहने, हैंडबैग थामे ‘दलित की बेटी’ पांच साल के ‘वनवास’ से लौट आई हैं और ‘कमजोर’ अखिलेश से लेकर ‘गायब’ कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी तक को, यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी, जिनकी हुकूमत ”नाकामियों से तार-तार” है, चुनौती देने के लिए तैयार हैं.
राहुल सूबे भर की खाट यात्रा पर निकले हुए हैं और चर्चा का विषय बन गए हैं. ठीक उसी तरह जैसे 2014 के लोकसभा चुनाव की तैयारी के दौरान वे बन गए थे. हालांकि संदर्भ बदल गया है. उस वक्त सत्तारूढ़ यूपीए-2 की हुकूमत की नुमाइंदगी करने के बजाए राहुल उस एकमात्र भूमिका में हैं जिसमें वे सबसे ज्यादा रचे-बचे दिखाई देते हैं—विद्रोही, बाहरी आदमी की भूमिका, हालांकि उनके खानदान को देखते हुए यह बिल्कुल गैर या पराये की भूमिका भी नहीं है. अपने बगल में रणनीतिकार प्रशांत किशोर को लिए राहुल, अखिलेश और मायावती को मोदी के ”रिमोट कंट्रोल से चल रहा” बताकर निशाना साध रहे हैं और इसके साथ ही मोदी के खिलाफ अपने तीरों से चुनावी कड़ाहे को खौलाने की उम्मीद कर रहे हैं.
और इस चौकोने मुकाबले में सबसे खामोश  भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) है, जिसकी अगुआई चालाक अध्यक्ष अमित शाह कर रहे हैं, जिनका लखनऊ में विधानसभा भवन के सामने राज्य मुख्यालय में आना-जाना काफी बढ़ गया है. 2014 में लोकसभा की 80 में से 73 सीटें जीतने की पटकथा रचकर एक बार वे अकल्पनीय कारनामा कर चुके हैं. नेपथ्य से काम कर रहे उनके लड़कों को पूरा भरोसा है कि बिजली दूसरी बार भी कौंधेगी. पार्टी के कार्यकर्ता कहते हैं, ”टीम को लगता है कि जो सोशल इंजीनियरिंग और बूथ का प्रबंधन दो साल पहले कामयाब हुआ था, वह इस बार भी कारगर होगा, भले ही मुख्यमंत्री पद का कोई दमदार उक्वमीदवार न हो. ” ‘राम मंदिर’, ‘गोमांस पर पाबंदी’, ‘घर वापसी’ और ‘लव जेहाद’ सरीखे मुहावरे अभी तक पूरी तरह से सुनाई नहीं दे रहे हैं. मगर अभी तो खेल शुरू ही हुआ है.
घंटियां, सीटियां, झंडे, गुब्बारे, शेखियां, दिखावा, टीका-टिप्पणी, दांवपेच और तिकड़म ऊंचे दांव वाली इस लड़ाई की इत्तिला देते हैं. उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनाव सपा और बीएसपी के लिए वजूद की बेताब लड़ाई और कांग्रेस के लिए अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने की जंग होगी. वहीं बीजेपी के लिए, जिसने महज तीन से भी कम साल पहले राज्य की ज्यादातर सीटें अपनी झोली में डालकर राष्ट्रीय बहुमत हासिल किया था, अपने केंद्रीय नेतृत्व पर जनमत संग्रह होगा. यह मुलायम और मायावती के सफर का अंत, मुश्किलों से घिरे राहुल के लिए आखिरी तिनका और मोदी के लिए सियासी संकट की शुरुआत हो सकता है, जिनकी पार्टी को पिछले साल बिहार और दिल्ली में भारी हार का मुंह देखना पड़ा था.
चुनाव भले ही अभी पांच महीने दूर हों, पर देश के सबसे बड़े चुनाव अभियान की गर्द और सरगर्मी बढऩे लगी है. सपा के खेमे में मार-काट शुरू हो चुकी है. बीएसपी ने अपने पंजे नुकीले कर लिए हैं. कांग्रेस ने अपनी फौज में भर्ती की जबरदस्त मुहिम छेड़ दी है. बीजेपी अपने गुरिल्ला लड़ाकों को चुपचाप दाखिल कर रही है. इन सबका साझा मकसद हिंदुस्तान के सबसे बड़े मतदाता मंडल को रिझाना, फुसलाना या धौंसियाना है, उस हिंदी पट्टी में जहां बेरहम चुनावी गणित कोई रियायत नहीं बख्शता. यह कोई लीग मैच नहीं है, जैसा कि कई राज्यों के चुनाव हो सकते हैं. यह नॉक आउट मुकाबला है—2019 का सेमी फाइनल.
देश का सियासी दिल
देश के सियासी इतिहास में उत्तर प्रदेश की अहमियत ये आंकड़े ही बता देते हैं. क्षेत्रफल के लिहाज से यह देश का काफी लंबा-चौड़ा 7 फीसदी भूभाग है, वहीं यह देश का सबसे ज्यादा आबादी वाला सूबा है—इसके 20 करोड़ बाशिंदे देश की 16 फीसदी से ज्यादा आबादी हैं. उत्तर प्रदेश एक देश होता, तो यह दुनिया का छठा सबसे ज्यादा आबादी वाला देश होता.
इन आश्चर्यजनक आंकड़ों के बावजूद भारतीय राजनीति पर सूबे का प्रभाव अनुपात से कहीं ज्यादा बड़ा है. यह 543 सदस्यों की लोकसभा में 80 सांसद भेजता है और 1991 तक भारत के आठ प्रधानमंत्रियों में से सात इसे अपना घर कहते थे. यह आंकड़ा अब 14 में से आठ प्रधानमंत्रियों पर आ गया है—और गिरावट का यह रुझान राज्य के लोगों को बुरी तरह सालता है क्योंकि इसका मतलब है नेतृत्व के ऊंची पायदान से नीचे आना. मंच के ऊपर शोभायमान होने की यूपी की इस इच्छा को पूरा करने के लिए ही मोदी ने 2014 में वाराणसी से चुनाव लडऩे का, और फिर चुनाव के बाद गांधीनगर के अपने पुराने गुजराती गढ़ को छोडऩे का फैसला किया था.
राष्ट्रीय सियासी चकाचौंध से उत्तर प्रदेश का अलग होना 1989 में शुरू हुआ. यह आरक्षण समर्थक मंडल कमिशन के लागू होने के फौरन बाद की बात है, जब मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी नई ताकत से लैस पिछड़ी जातियों की आवाज के तौर पर उभरकर आई थी. इसके नतीजतन दलित समुदाय भी बीएसपी के पीछे लामबंद हो गया, जिसकी अगुआई पहले कांशीराम के और फिर मायावती के हाथ में थी. कांग्रेस यहां 1989 से सत्ता में नहीं आई. वहीं बीजेपी ने पहले 1991 में कुछ वक्त के लिए और फिर 1997 से 2002 के बीच उथलपुथल से भरे साढ़े चार साल में (जब उसके कार्यकाल के दौरान तीन मुख्यमंत्री रहे थे) राज्य सरकार की अगुआई की थी.
यही वजह है कि 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान बीजेपी की जबरदस्त जीत ने चुनावी पंडितों को हैरत में डाल दिया था. तब जीत के अंतर से क्षेत्रीय से राष्ट्रीय मुद्दों की ओर लंबे वक्त के संभव बदलाव का संकेत मिला था. शायद इसलिए कि मतदाता बीएसपी की हरेक सरकार की पहचान बन चुके कथित भ्रष्टाचार से और सपा की हर सरकार की खासियत बन चुकी कथित अराजकता से आजिज आ चुके थे. उन्हीं चिंताओं ने मोदी लहर को मजबूत बनाया, जिसे 2013 में हुए मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगों के बाद शाह के हिंदू ध्रुवीकरण का समर्थन हासिल था.
जिस सोशल इंजीनियर ने यूपी को क्षेत्रीय पार्टियों के लिए देश के प्रमुख जंग के मैदान में बदल दिया था, वह भी 2017 में अपने इम्तिहान से गुजरेगी. 15 साल बाद राज्य उस कगार पर हो सकता है जहां वह राष्ट्रीय मुद्दों को हावी होने दे और सत्ता के गलियारों में फिर एक राष्ट्रीय पार्टी की पदचाप सुनाई दे.
राष्ट्रीय असर
चारों पार्टियों के लंबे चुनाव अभियान न सिर्फ अपने को बचाने की उनकी गहरी इच्छा की झलक देते हैं, बल्कि उस मौके की भी, जो 2019 के आम चुनाव पर अपने असर की वजह से उत्तर प्रदेश का चुनाव देता है. दरअसल, हाल के हफ्तों में सपा को अपने भीतर से जिस विद्रोह का सामना करना पड़ा, वह मुलायम के इस विश्वास से भी उपजा था कि अगर उनकी पार्टी 2014 के लोकसभा चुनाव में महज 5 सीटों पर सिकुडऩे के बजाए बेहतर प्रदर्शन कर पाती, तो वे ज्यादा बड़ी राष्ट्रीय भूमिका निभा रहे हो सकते थे. मुलायम मानते हैं कि बेहतर प्रदर्शन ने—उन्होंने 35 के आंकड़े का जिक्र किया था—हो सकता है, उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचा दिया होता.
मुलायम के मन में यह बात बिठा दी गई है, जाहिरा तौर पर उनके भाई शिवपाल और चालाक अमर सिंह की ओर से, कि उस हार के लिए अखिलेश जिम्मेदार हैं. इसी लिए मुख्यमंत्री को हाशिये पर डाल दिया गया है और ‘संगठनकर्ता’ शिवपाल को पदोन्नति देकर पार्टी के राज्य अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठा दिया गया है. मुलायम की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा इसलिए और भी बढ़ गई है क्योंकि विपक्ष 2019 में बीजेपी का मुकाबला करने के लिए एक संघीय मोर्चा बनाने की जद्दोजहद कर रहा है, खासकर जब कोई एक पार्टी अपने दम पर उसे चुनौती दे पाने में सक्षम दिखाई नहीं देती. आपस में जुड़े इन विचारों ने नए सतरंगे गठबंधन के संभावित प्रबल दावेदारों के तौर पर कई नाम उछाले हैं, जिनमें बिहार से नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव, ओडिशा से नवीन पटनायक, पश्चिम बंगाल से ममता बनर्जी, तमिलनाडु से जे. जयललिता और दिल्ली से अरविंद केजरीवाल हैं. 76 वर्षीय मुलायम, जो बिहार में नीतीश-लालू के महागठबंधन से आखिरी वक्त में बाहर आ गए थे, इसे ऐसे एक मोर्चे में शामिल होने, और संभवत: उसकी अगुआई करने, के आखिरी मौके के तौर पर देखते हैं. मुलायम उम्मीद करेंगे कि यादव वोट पार्टी के साथ टिके रहें, अन्य पिछड़े वोटों का भी एक हिस्सा उसके साथ जुड़ जाए, और मुस्लिम सपा को उस अकेली पार्टी के तौर पर देखें जो बीजेपी के हिंदुत्व एजेंडे को सफलता के साथ नाकाम कर सकती है.
मायावती के लिए तो दांव और भी ऊंचा लगा है. अगर वे मुलायम को धूल चटा सकें, तो उन्हें राष्ट्रीय समीकरण से बेदखल कर सकेंगी और यूपी के उस नेता के तौर पर उभर आएंगी जिसे अन्य विपक्षी नेता अपने साथ लेना चाहेंगे. उस पार्टी के लिए, जो 2012 में यूपी की सत्ता से बेदखल होने के बाद 2014 में लोकसभा की एक भी सीट जीतने में नाकाम रही थी, मायावती 2017 के विधानसभा चुनाव को बीएसपी की प्रासंगिकता कायम करने की गरज से अपने आखिरी मौके की तरह देखती हैं. पांच और साल सत्ता से बाहर रहना कार्यकर्ताओं को मायूस कर सकता है, और राज्य की एक प्रमुख पार्टी के तौर पर बीएसपी के 20 साल लंबे दौर के खात्मे की शुरुआत हो सकती है. मायावती अपने दलित वोट बैंक पर, मुसलमानों की रिझाकर सपा से अपने पाले में लाने पर, और महंगाई, छोटे-मोटे भ्रष्टाचार और रोजगार पर उनके बनिस्बतन फीके रिकॉर्ड को सामने लाकर मोदी से कुछ ब्राह्मण वोटों को झटकने पर निर्भर करके चल रही हैं.
जहां मुलायम और मायावती के पास सोचने के लिए अपना सियासी भविष्य है, वहीं कांग्रेस 2012 में जीती गई अपनी 28 सीटों को बढ़ाने के लिए और खुद को एक ऐसी हालत में लाने के लिए जूझ रही होगी, जहां 2019 के चुनावों के लिए दूसरी विपक्षी पार्टियां उसके साथ जुड़ सकें. 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव पहले ऐसे सच्चे चुनाव थे जब राहुल ने राज्य में पूरे समय चुनाव अभियान चलाया था और उनकी पार्टी के खराब प्रदर्शन ने उनकी कुछ चमक उतारने में बड़ी भूमिका अदा की थी. पांच साल बाद अब फिर वैसे ही नतीजे, और वह भी 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के 44 सीटों के ऐतिहासिक गर्त के फौरन बाद, राहुल गांधी के नेतृत्व की साख को हमेशा के लिए अपूरणीय धक्का पहुंचा सकते हैं.
अमित शाह और बीजेपी के लिए यूपी के चुनाव तय करेंगे कि उनके अगले दो साल कैसे गुजरेंगे. अगर जीते तो पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री मोदी दोनों के लिए अपने पांच वर्षीय कार्यकाल के आखिरी दौर में प्रवेश करते हुए जिंदगी आसान हो जाएगी. दूसरी तरफ, अगर हारे तो न सिर्फ विपक्षी ताकतों बल्कि पार्टी के भीतर भी वरिष्ठ नेताओं के हौसले बुलंद हो जाएंगे. 2015 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी के हाथों मिली भारी हार ने मोदी की अपराजेयता के आभामंडल को चकनाचूर कर दिया था. बाद में बिहार की हार ने हनीमून के खत्म होने की इत्तिला दी. यूपी में अगर वैसा ही हश्र होता है, तो न सिर्फ प्रधानमंत्री के तौर पर उनके कामकाज पर बल्कि 2019 में उनके दोबारा चुनकर आने की क्षमता पर भी सवालिया निशान खड़े हो जाएंगे. source with thankx from aajtak






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