शुक्ल जी न होते, तो चंपारण की दुर्दशा नहीं देख पाते महात्मा गांधी

राजकुमार शुक्ल : 20 मई पुण्यतिथि पर विशेष
शिव कुमार मिश्र
बिहार में महात्मा गांधी के आने की जब भी चर्चा होगी, वहां राजकुमार शुक्ल भी खड़े मिलेंगे. वह न होते तो शायद चंपारण के किसानों की दुर्दशा गांधी के बरास्ते दुनिया नहीं देख पाती. गांधी के सत्याग्रह के प्रयोग का हमसफर रहे राजकुमार शुक्ल का जन्म 23 अगस्त, 1875 को चंपारण जिला के लौरिया थाना के सतवरिया नामक गांव में हुआ था. इनके पिता कोलाहल शुक्ल थे. उन दिनों निलहों के शोषण से चंपारण के किसान त्रस्त थे. ब्लूमफिल्ड नामक  अंगरेज निलहे की हत्या के बाद से ही चंपारण में विद्रोह की आग में सुलगने लगा था और राजकुमार शुक्ल ने इस आंदोलन में काफी महत्वपूर्ण योगदान दिया था.
 आंदोलन में सक्रियता के कारण बेलवा कोठी के एसी एम्मन ने शुक्ल जी का घर तुड़वा दिया, फसल लूट ली और उनको जेल भिजवा दिया. जेल से निकलने के बाद उन्होंने संकल्प लिया कि निलहों के शोषण से किसानों को मुक्त कराकर ही दम लेंगे. उस समय किसानों से 40 प्रकार के गैर कानूनी कर वसूले जाते थे, जिनमें पैनखर्चा, सलामी, तिनकठिया, लगान बांध बेहरी, बेटमाफी, बपही-पुतही, हवही, हथिअही, घोड़ही, नवही, घवही, फगुअही आदि थे.  केस-मुकदमों के सिलसिले में 1914 में शुक्ल जी कानूनविद ब्रजकिशोर प्रसाद के संपर्क में आये, जिन्होंने बंगाल विधान परिषद में निलहों का मुद्दा उठाया था.
 26-30 दिसंबर, 1916 को लखनऊ में हुए कांग्रेस अधिवेशन में बिहार के प्रतिनिधि के रूप में शुक्ल जी ने भी शिरकत की और ब्रजकिशोर बाबू से मिल कर गांधी को चंपारण आने का अनुरोध किया. शुरू में गांधीजी ने चंपारण जाने से साफ इनकार कर दिया. कुछ दिनों बाद शुक्ल जी अहमदाबाद आश्रम गये. वहां से आकर पत्र व्यवहार करना शुरू कर दिया. 27 फरवरी, 1917 को उन्होंने गांधी जी को मार्मिक पत्र लिखा कि हमारा दुख दक्षिण अफ्रीका के अत्याचार से भी अधिक है.
आप स्वयं आकर अपनी आंखों से देख लीजिए कि यहां के लोग किस प्रकार के कष्ट सहकर पशुवत जीवन व्यतीत कर रहे हैं. कैथी जानने वाले शुक्ल जी के पत्र पीर मुहम्मद मूनीस हिंदी में लिखा करते थे. गांधी जी ने सूचित किया कि वे सात मार्च को कलकत्ता आ रहे हैं और वहां से चंपारण चलेंगे. यह पत्र शुक्ल जी को champaran satyagrahविलंब से मिला और जब वे कलकत्ता गये तो गांधीजी वहां से निकल चुके थे. तीन अप्रैल को पुन: एक तार द्वारा शुक्ल जी को गांधी ने सूचित किया कि वे कलकत्ता आ रहे हैं.
शुक्ल जी वहां गये और गांधी को लेकर 10 अप्रैल, 1917 को पटना पहुंचे. यहां से मुजफ्फरपुर होते हुए गांधी जी चंपारण गये. पूरे चंपारण आंदोलन में शुक्‍ल जी गांधी के साथ कार्य किये. बेतिया आश्रम के तो वे प्रभारी ही थे. अक्तूबर, 1917 में बेतिया में हुए हिंदू-मुसलिम धार्मिक तनाव को शांत करने में इन्होंने अहम भूमिका निभायी. उन्होंने पूरी जिंदगी चंपारण के किसानों की खुशहाली में लगा दी. अपनी जीर्ण-शीर्ण काया लेकर 1929 में गांधी से मिलने के लिए साबरमती आश्रम भी गये. इसके बाद उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा. 20 मई, 1929 को उनकी मृत्यु मोतिहारी के उसी मकान में हुई, जहां गांधी जी रहा करते थे.
(लेखक बिहार रिसर्च सोसाइटी में कार्यरत हैं.) with tanks from prabhatkhabar.com





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