सार्थक संघर्ष पर खामोश समाज!
रोहित वेमुला की आत्महत्या और समाज का दोहरापन
उसका यह अकेलापन बहुत ही शर्मनाक है, क्योंकि रोहित वेमुला पिछले दस दिनों से अपने चार अन्य साथियों के साथ खुले आसमान के नीचे सो रहा था, क्योंकि हैदराबाद विश्वविद्यालय की कार्य परिषद् एक प्रस्ताव पास कर उनने हॉस्टल से निकाल दिया था. और इन पाँचों छात्रों का प्रवेश विश्वविद्यालय के हर सार्वजनिक स्थान पर प्रतिबंधित कर दिया गया था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) व भारतीय जनता पार्टी का छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं से मारपीट करने का आरोप था. यह सूचना उसके कुछ साथियों ने सोशल साईट पर भी डाली थी. आखिर कहां गये वे सब संगठन जो दलितों आदिवासियों और अल्पसंख्यक लोगों के नाम पर चलते हैं. यह चुप्पी और भी खतरनाक है, आखिर कोई छात्र, शोधार्थी और शिक्षक क्यों लड़ेगा समाज के लिए? आखिर कौन बोलेगा और कौन लड़ेगा? जब लोग चुप रहेंगे?
हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय का दलित छात्र संगठन अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन, जब उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरपुर नगर जिले के दंगों पर बनी फिल्म “मुजफ्फरपुर अभी बाक़ी” के दिखाये जाने को लेकर प्रतिबद्ध थी, तो भी हैदराबाद विश्वविद्यालय के मुस्लिम छात्रों और हैदराबाद शहर के मुस्लिम संगठनों ने उनका कोई साथ नहीं दिया. फिर अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) व भारतीय जनता पार्टी की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं के बीच तनावपूर्ण स्थिति और मारपीट हुई. इसके बाद फिर बम्बई बम काण्ड के अभियुक्त ‘याकूब मेमन की फाँसी’ और मृत्युदंड का विरोध प्रदर्शन हैदराबाद विश्वविद्यालय की अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन ने किया. तब फिर वही हुआ जो पहले हुआ था कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं से मारपीट हुई.
यह दोनों मामले ऐसे हैं जिनके बारे में यदि भावनाओं के आक्रोश में कहा जाए कि दलित-आदिवासियों की समस्याओं से कोई लेना-देना है ही नहीं. फिर हम जिस समाज के लिए लड़ रहे हैं क्या वह हमारा साथ दे रहा है? जैसेकि जब कोई सेना युद्ध के मैदान में होती है तो सैनिकों को कवर फायर देने का कार्य दूसरे सैनिक करते हैं और फ्रंट में लड़ाई कोई दूसरे सैनिक लड़ते हैं. लेकिन हैदराबाद विश्वविद्यालय की अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन के बहादुर छात्रों के साथ ऐसा नहीं था. वे अपनी लड़ाई अकेले ही लड़ रहे थे, उनको हैदराबाद शहर से किसी भी दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक व मुस्लिम सामाजिक व सांस्कृतिक संगठनों का समर्थन नहीं मिल रहा था. ऊपर से विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा निष्कासन और स्कालरशिप रोक दी गयी थी, इसके बाबजूद अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन और रोहित वेमुला और उनके साथी निरंतर लड़ रहे थे.
हैदराबाद विश्वविद्यालय की अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन को जातिवादी, देश विरोधी तत्वों का संगठन बताकर जब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं, केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय, मानव संसाधन मंत्रालय की मंत्री श्रीमती स्मृति जुबेन ईरानी और हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रशासन ने इन पर अपना शिकंजा कसना शुरू किया, तब यह छात्र चारों तरफ से घिर गए थे. उनको विश्वविद्यालय के होस्टल से निकाला गया, उनकी स्कालरशिप रोकी गयी. लेकिन रोहित वेमुला और उसके साथियों ने लड़ना मंज़ूर किया, झुकना या गाँव वापस जाना स्वीकार नहीं किया. यह पाँच लड़के 10 दिनों से अपने होस्टल से बाहर सड़क पर रह रहे थे और रोहित और उसके चार अन्य साथी छात्रों ने फेसबुक पर पहले ही दिन होस्टल से निकलते हुये बाबा साहब की तस्वीर हाथ में पकड़े लिखा था कि हमें अब होस्टल से निकाल दिया गया है और यह सड़क ही हमारा आसरा है.
लेकिन हैदराबाद शहर के किसी दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक व मुस्लिम सामाजिक संगठन ने उनकी कोई सुध नहीं ली. और तो और यह और भी ज्यादा शर्मनाक है कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के अलावा और छात्र संगठन भी होंगे, उन्होंने भी रोहित और उसके इन साथियों की कोई सुध नहीं ली. कोई बात नहीं यह तो वहाँ के छात्र संगठन हैं, और छात्र संगठन के नेताओं व छात्रों की कई बार अपनी तरह की मजबूरियां भी होती हैं. लेकिन सबसे ज्यादा शर्मनाक और हैरान करने वाली बात यह है कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक प्रोफेसरों और कर्मचारियो का कोई तो संगठन होगा, उसने भी इनकी कोई सुध नहीं ली और इनको न्याय दिलाने में कोई पहल नहीं की? लगता है जैसे कि वहाँ इन वर्गों के कोई प्रोफ़ेसर व कर्मचारी हैं ही नहीं, अगर हैं तो इतने मरियल और रीढ़विहीन क्यों हैं? जो अपने समाज के बच्चों पर होने वाले उत्पीड़न के खिलाफ़ बोल नहीं सकते.? आखिर गाँव, देहात, कस्बों और छोटे शहरों से आये दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक व मुस्लिम समाज के छात्र किसकी तरफ न्याय दिलवाने के लिए मुँह उठाकर देखंगे? जब विश्वविद्यालय के दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक व मुस्लिम प्रोफ़ेसर और कर्मचारी इतना डरते हैं, तो फिर रोहित और उनके साथी सचमुच में बहादुरी के प्रतीक हैं.
बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर कहते थे कि “जुल्म करने वाले से जुल्म सहने वाला ज्यादा बड़ा गुनहगार है” और “गुलाम को गुलामी का अहसास करा दो वह विद्रोह कर देगा”. इस तरह से देखा जाये तो हैदराबाद विश्वविद्यालय की अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन के रोहित वेमुला और उनके सच में बहादुरी का प्रतीक हैं. इस मामले में सिखों के दसवें गुरू गोविंद सिंह याद आते है जो कहते थे कि “चिड़यन ते मैं बाज़ लडाऊं, सवा लाख ते एक लडाऊं, तब गोविंद सिंह नाम काहूँ”. और “इन सुत ते वार दिये सुत चार, चार मुये तो क्या मुये जीवित कई हज़ार”. रोहित वेमुला को जब मरना ही था, तो लड़ते हुये बहादुरों की तरह मरते. जो एक सबक होता हैदराबाद विश्वविद्यालय के जातिवादियों और फासीवादियों के लिये. इसके अलावा यह सबक होता हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के प्रशासन के लिये भी, तब फिर कोई कुलपति, कोई कार्य परिषद्, कोई प्रोक्टर, कोई वार्डेन, कोई अनुशासन समिति के सदस्य और जो भी अन्य अधिकारी हैं, उनकी भविष्य में किसी भी गरीब व वंचित वर्ग के छात्र को होस्टल से निकालने की हिमाक़त नहीं होती, और तब रोहित वेमुला और उसके साथी समाज के सच्चे हीरो होते.
क्योंकि आज के स्वकेन्द्रित, समझौतावादी और घुटने टेक जमाने में अम्बेडकरवादी साथी बहुत ही बड़ी मेहनत और कुर्बानियों से तैयार होते हैं. आखिर हर कोई अम्बेडकरवादी नहीं होता है, जय भीम बोलना और बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर की तस्वीर लगाना बहुत बड़े साहस और हिम्मत का काम होता है. क्योंकि डॉ. भीमराव आंबेडकर ही आज बहुजन समाज की सबसे बड़ी प्रेरणा और संबल हैं. रोहित वेमुला के आत्महत्या करने से हमारे देश, समाज और विशेषकर दलित समाज का बहुत बड़ा नुकसान किया है. क्योंकि अट्ठाइस साल का पीएचडी शोधार्थी रोहित एक वैज्ञानिक लेखक बनना चाहता था, उसने अपने आत्महत्या पत्र में स्वयं लिखा है कि “मैं हमेशा एक लेखक बनना चाहता था. विज्ञान पर लिखने वाला, कार्ल सगान की तरह. लेकिन अंत में मैं सिर्फ़ ये पत्र लिख पा रहा हूँ. मुझे विज्ञान से प्यार था, सितारों से, प्रकृति से, लेकिन मैंने लोगों से प्यार किया और ये नहीं जान पाया कि वो कब के प्रकृति को तलाक़ दे चुके हैं. हमारी भावनाएं दोयम दर्जे की हो गई हैं. हमारा प्रेम बनावटी है. हमारी मान्यताएं झूठी हैं”.
इससे पहले भी रोहित ने आत्महत्या से पहले एक प्रथम पत्र 18 दिसंबर, 2015 को कुलपति प्रो. अप्पाराव पिंदिले को लिखा था कि “जब दलित छात्रों का एडमिशन हो रहा हो तब ही सभी छात्रों को दस मिलीग्राम सोडियम अज़ाइड दे दिया जाए. इस चेतावनी के साथ कि जब भी उनको अंबेडकर को पढ़ने का मन करे तो ये खा लें. सभी दलित छात्रों के कमरे में एक अच्छी रस्सी की व्यवस्था कराएं और इसमें आपके साथी मुख्य वार्डन की मदद ले लें. हम पीएच.डी के छात्र इस स्टेज को पार कर चुके हैं और दलितों के स्वाभिमान आंदोलन का हिस्सा बन चुके हैं, जिसे आप बदल नहीं सकते. हमारे पास इसे छोड़ने का कोई आसान रास्ता भी नहीं है. इसलिए मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि हमारे जैसे छात्रों के लिए यूथेनेसिया की सुविधा उपलब्ध कराएं”. हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. अप्पाराव पिंदिले का दलित और जातिवादी रवैया बहुत पुराना रहा है. इन्होंने हैदराबाद विश्वविद्यालय का वर्ष 2002 में चीफ़ वार्डेन रहते 10 दलित छात्रों को विश्वविद्यालय से निकलवा दिया था और उन दलित लड़कों का मामला इतना पुख्ता बनाया था कि वे लड़के बाद में हैदराबाद उच्च न्यायालय से भी अपनी वापसी नहीं करा पाये थे और उनकी विश्वविद्यालय में वापसी की याचिका खारिज कर दी गई थी.
रोहित वेमुला ने अपनी आत्महत्या से पहले रविवार 17 जनवरी, 2016 को उसने एक और अंतिम पत्र लिखा कि “मैं पहली बार इस तरह का पत्र लिख रहा हूँ. पहली बार मैं आख़िरी पत्र लिख रहा हूँ. मुझे माफ़ करना अगर इसका कोई मतलब न निकले तो. हो सकता है कि मैं ग़लत हूँ अब तक दुनिया को समझने में. प्रेम, दर्द, जीवन और मृत्यु को समझने में. ऐसी कोई हड़बड़ी भी नहीं थी. लेकिन मैं हमेशा जल्दी में था. बेचैन था एक जीवन शुरू करने के लिए. इस पूरे समय में मेरे जैसे लोगों (दलितों) के लिए जीवन अभिशाप ही रहा. मेरा जन्म एक भयंकर दुर्घटना थी. मैं अपने बचपन के अकेलेपन से कभी उबर नहीं पाया. बचपन में मुझे किसी का प्यार नहीं मिला. इस क्षण मैं आहत नहीं हूँ. मैं दुखी नहीं हूँ. मैं बस ख़ाली हूँ. मुझे अपनी भी चिंता नहीं है. ये दयनीय है और यही कारण है कि मैं ऐसा कर रहा हूँ. लोग मुझे कायर क़रार देंगे. स्वार्थी भी, मूर्ख भी. जब मैं चला जाऊंगा. मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता लोग मुझे क्या कहेंगे. मैं मरने के बाद की कहानियों भूत प्रेत में यक़ीन नहीं करता. अगर किसी चीज़ पर मेरा यक़ीन है तो वो ये कि मैं सितारों तक यात्रा कर पाऊंगा और जान पाऊंगा कि दूसरी दुनिया कैसी है”.
दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक व मुस्लिम समुदाय के लोगों का यह बहुत ही दोहरा चरित्र है कि उनके समाज के लोग छात्रों, शोधार्थियों, लेखकों, बुद्धिजीवियों, सरकारी व गैर सरकारी अधिकारियों और अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ-साथ जो भी जोखिम भरे माहौल में कार्य करने वाले साथी हैं, उनसे यह उम्मीद तो करते हैं कि “यह वर्ग उनके लिए ‘कुछ करे’ और ‘जरूर करेगा’, इसे ‘करना ही चाहिये’, यह ‘उसका समाज पर क़र्ज़ है’, उसे पे बैक टू सोसाइटी का फ़ार्मूला अपना चाहिये”. लेकिन यह दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक व मुस्लिम समुदाय का बहुसंख्यक समूह खुद अपनी जिम्मेदारी निभाता है क्या?
रोहित अपने आत्महत्या पत्र में आगे लिखता है कि “आप जो मेरा पत्र पढ़ रहे हैं, अगर कुछ कर सकते हैं तो मुझे अपनी सात महीने की फ़ेलोशिप मिलनी बाक़ी है. एक लाख 75 हज़ार रुपए. कृपया ये सुनिश्चित कर दें कि ये पैसा मेरे परिवार को मिल जाए. मुझे रामजी को चालीस हज़ार रुपए देने थे. उन्होंने कभी पैसे वापस नहीं मांगे. लेकिन प्लीज़ फ़ेलोशिप के पैसे से रामजी को पैसे दे दें. मैं चाहूँगा कि मेरी शवयात्रा शांति से और चुपचाप हो. लोग ऐसा व्यवहार करें कि मैं आया था और चला गया. मेरे लिए आंसू न बहाए जाएं. आप जान जाएं कि मैं मर कर ख़ुश हूँ जीने से अधिक. ‘छाया से सितारों तक’. उमा अन्ना, ये काम आपके कमरे (हैदराबाद विश्वविद्यालय का न्यू रिसर्च हॉस्टल में उमा नामक एक छात्र का कमरा) में करने के लिए माफ़ी चाहता हूँ. अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन परिवार, आप सब को निराश करने के लिए माफ़ी. आप सबने मुझे बहुत प्यार किया. सबको भविष्य के लिए शुभकामना. आख़िरी बार जय भीम!, मैं औपचारिकताएं लिखना भूल गया. ख़ुद को मारने के मेरे इस कृत्य के लिए कोई ज़िम्मेदार नहीं है. किसी ने मुझे ऐसा करने के लिए भड़काया नहीं, न तो अपने कृत्य से और न ही अपने शब्दों से. ये मेरा फ़ैसला है और मैं इसके लिए ज़िम्मेदार हूँ. मेरे जाने के बाद मेरे दोस्तों और दुश्मनों को परेशान न किया जाए”.
यह सवाल पैदा होता है कि आखिर रोहित वेमुला ने अपने अंतिम पत्र में किसी को दोषी क्यों नहीं बताया है? तब फिर सड़क पर इतने दिनों से रोहित और उसके साथी क्या कर रहे थे? जब कोई दोषी ही नहीं तब फिर आत्महत्या का वरण क्यों? कहीं रोहित को किसी ने साजिशन मार तो नहीं डाला. क्या यह हस्तलिखित पत्र उसने ही लिखा है या फिर कोई दबाब डालकर लिखवाया गया है, क्योंकि पत्र में एक स्थान पर बहुत काटा-पीटी की गई है और मरने वाले व्यक्ति के पास इतना समय होता नहीं है. हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. अप्पाराव पिंदिले ने रोहित की आत्महत्या पर आश्चर्य व्यक्त किया है. आखिर कुलपति को समझ में नहीं आ रहा कि उनके एक जे.आर.एफ. प्राप्त शोधार्थी ने आत्महत्या क्यों की है? इससे भी ज्यादा शर्मनाक बात यह कि कुलपति प्रो. पिंदिले के इस आश्चर्य में कोई अपराधबोध जैसी बात नहीं है, और उन्हें लग ही नहीं रहा है कि इस आत्महत्या में उनकी जिम्मेदारी भी तय हो सकती है.
रोहित वेमुला के एकाकीपन ने समाज के लिए झकझोर दिया है कि जो शोधार्थी अट्ठाईस वर्ष का जे.आर.एफ. प्राप्त पी-एच.डी. कर रहा नौजवान हो और वह हैदराबाद विश्वविद्यालय की अम्बेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन का सक्रिय कार्यकर्ता हो, जो सभी मामलों की गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेता हो. और तो और जो अपने पाँच साथियों के साथ न्याय मांगने सड़क पर बैठा हो, वह इतना एकाकी कैसे हो सकता है? इसमें हम सबकी बहुत बड़ी गलती है, सबसे ज्यादा गलती हैदराबाद शहर के सभी दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक व मुस्लिम सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक संगठनों की है. क्योंकि जब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं के साथ इन लोगों का विवाद होता है, तो ए.बी.वी.पी. के लड़के एक केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय के पास पहुँच जाते हैं और फिर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री श्रीमती ईरानी हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति को पत्र लिखती हैं. लेकिन यह दलित छात्र हैदराबाद के किस दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक व मुस्लिम सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक संगठन के पास गए और हैदराबाद के किस संगठन ने इनकी सुनी? किस नेता, विधायक, सांसद और मंत्री ने इन दलित छात्रों के लिए पत्र लिखा? सैकड़ों की संख्या में तो गली-मोहल्ले-जिला-नगर-महानगर के नेता, सदस्य, अध्यक्ष, विधायक, सांसद और वंचित समुदाय से जीतकर आते हैं? हैदराबाद तो दो-दो राज्यों की राजधानी है, वहाँ तो सैकड़ों की संख्या में इन वर्गों के आई.ए.एस., आई.पी.एस., पी.सी.एस. और न जाने कितने बड़े अधिकारी रहते हैं, वे भी अंधे-गूंगे और बहरे थे? हैदराबाद के किस एन.जी.ओ., पत्रकार, रंगकर्मी, बुद्धिजीवी, सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक संगठन के नेता व कार्यकर्ता ने इन दलित छात्रों की सुनी?
क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी छात्र, शोधार्थी, लेखक, बुद्धिजीवी, अधिकारी और अन्य सामाजिक कार्यकर्ता के साथ कोई अन्याय हुआ हो, तो सौ-पचास की संख्या में जाकर शहर के सामाजिक लोगों ने उस कार्यालय में जाकर अपना विरोध दर्ज़ कराया हो? हाँ भीड़नुमा यह लोग झुण्ड के झुण्ड धर्म के नाम पर, राजनीतिक दल के नाम पर और अन्य सामाजिक कार्यों के लिए चन्दा (आर्थिक सहयोग) मांगने आ जायेंगे. अगर चन्दा नहीं दिया तो अमुक-अमुक छात्र, शोधार्थी, लेखक, बुद्धिजीवी, अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता इन तथाकथित लोगों को गद्दार नज़र आने लगता है.
आज तक हमारा समाज यह नहीं समझ पाया है कि कोई छात्र, शोधार्थी, लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी, अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता अपने शहर से सैंकड़ों किलोमीटर दूर आकर आपके अनजान शहर में रहता है, नौकरी करता है, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के मिशन पर चलता हुआ, अपने दफ़्तर में रोज़ जोखिम लेता है, प्रताड़ित होता है. और हमारा यह मरियल व बुझदिल समाज न तो उन लोगों को कोई सामाजिक सुरक्षा देता है, न ही उनकी कभी कोई सुध लेता है. हाँ अपशब्द जरूर बोलता है और गरियाता रहता है. सारी जिम्मेदारी उस शिक्षित वर्ग की बताता हुआ, अपने शहर में पड़ा सोता रहता है. कौन उसके समाज का नया व्यक्ति हमारे शहर में आया है, यह उसको पता नहीं है? कौन हमारे लिए लड़ रहा है? कौन हमारे लोगों को परेशान कर रहा है और कौन परेशान हो रहा है? कौन प्रताड़ित कर रहा है और कौन प्रताड़ित हो रहा है? कौन प्रताड़ित होकर लोगों के बीच में होकर भी अकेला है, यह उसको पता नहीं है? जब यह समाज अपने लोगों को नहीं पहचानेगा उनकी मदद के लिए, उनकी पीड़ा में सैंकड़ों-हजारों की संख्या में सहभागी नहीं बनेगा, तब तक रोहित वेमुला ऐसे ही लोगों से खचाखच भरी महानगरी रूपी राजधानी में प्रताड़ित हो जान देते रहेंगे.
(लेखक महाराष्ट्र के वर्धा में महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के डॉ. भदंत आनंद कौसल्यायन बौद्ध अध्ययन के प्रभारी निदेशक हैं, और वे उसी विश्वविद्यालय में डॉ. आंबेडकर अध्ययन केंद्र के प्रभारी निदेशक रहे हैं.)
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