नीतिश के सामने सुशासन बाबू की छवि कायम रखने की चुनौती

कृष्णमोहन झा

कृष्णमोहन झा

कृष्णमोहन झा

बिहार विधानसभा के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को भारी बहुमत से पराजित करने वाले राजद-जदयू और कांग्रेस के महागठबंधन ने बाकायदा सत्ता की बागडोर थाम ली है और जदयू नेता नीतिश कुमार पांचवीं बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हो गए है। यद्यपि गठबंधन के तीनों घटक दलों में से लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल ने जदयू से अधिक सीटें अर्जित की हैं परंतु चुनावों के पूर्व ही यह तय हो गया था कि महा गठबंधन अगर पुन: सत्ता में आता है तो नीतिश कुमार ही मुख्यमंत्री पद की बागडोर थामेंगे। उक्त महागठबंधन ने चुनावों में नीतिश कुमार को ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट किया था जिन्होंने राज्य सरकार के मुखिया के रूप में जनता के बीच सुशासन बाबू के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई थी। उनकी इस पहिचान ने विधानसभा चुनावों में महागठबंधन को बहुमत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तीनों दलों के बीच चुनावी समझौता हो जाने का फायदा यह हुआ कि अलग-अलग चुनाव लड़ने की स्थिति में उनके बीच वोटों के बंटवारे का खतरा समाप्त हो गया। चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद यह आशंका भी व्यक्त की जा रही थी कि लालू यादव अपने दल को जदयू से अधिक सीटें मिलने के कारण नीतिश कुमार के मुख्यमंत्री बनने की राह में व्यवधान न पैदा करें परंतु जब लालू ने यह घोषणा कर दी कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तो नीतिश कुमार ही बैठेंगे तब उक्त आशंका भी निर्मूल सिद्ध हो गई। लालू यादव ने अब यह घोषणा कर दी है कि वे देश भर में दौरा कर मोदी सरकार के विरूद्ध माहौल बनाने के अभियान में प्राणप्रण से जुट जाएंगे।
राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद के दो बेटे तेजस्वी और तेजप्रताप तथा बेटी मीसा भी इन चुनावों में विजयी हुए है और यह संभावना व्यक्त की जा रही थी कि लालू अपनी बेटी मीसा को उप मुख्यमंत्री पद पर आसीन देखना चाहेंगे परंतु उन्होंने अपने छोटे बेटे तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री की गद्दी दिलवाकर यह संदेश दे दिया है कि वे अपनी राजनीतिक विरासत संभालने के लिए छोटे बेटे को कही अधिक प्रतिभाशाली मानते है। उधर तेज प्रताप जब शपथ ले रहे थे उनसे गलती भी हुई और गवर्नर को उन्हें दोबारा शपथ दिलवाना पड़ी लेकिन लालू ने दोनों बेटों को नीतिश सरकार में शामिल कर यह तो साबित कर ही दिया है कि सत्ता पर अपने परिवार की मजबूत पकड़ रखने में कोई कोर कसर नहीं रख छोड़ेंगे। नीतिश के मंत्रिमंडल में राजद के मंत्रियों की संख्या जदयू के मंत्रियों से ज्यादा होने से भी यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी भले ही नीतिश कुमार ने हासिल कर ली है परंतु लालू परिवार का दबाव उन्हें हमेशा ही सहना होगा। लालू यादव के दोनों बेटों सहित राजद के जितने भी मंत्री नीतिश सरकार में शामिल हुए है उन्हें लालू यादव ने महत्वपूर्ण विभाग दिलवा दिए हैं और उनके दोनों बेटों को तीन-तीन मंत्रालय सौंपना शायद नीतिश कुमार की मजबूरी ही थी। इसलिए यह आशंका कभी समाप्त नहीं होगी कि नीतिश कुमार को समय-समय पर स्वतंत्र फैसले लेने में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। चुंकि यह महागठबंधन की सरकार है इसलिए नीतिश के लिए सबके बीच संतुलन साधने की कवायद आसान नहीं होगी। महत्वपूर्ण एवं नीतिगत फैसले लेने में नीतिश कुमार के लिए लालू यादव की राय हमेशा अहम रहेगी। कांग्रेस को एक लम्बे अरसे बाद बिहार में सत्ता का स्वाद पुन: चखने का मौका मिला है जिससे उसके अन्दर नया आत्मविश्वास जाग उठा है।
बिहार में चूंकि लालू यादव कानूनी अड़चनों के कारण स्वयं कोई पद नहीं पा सकते हैं परंतु वे इतने महत्वाकांक्षी हैं कि सरकार के बड़े फैसलों पर नीतिश उनकी राय की उपेक्षा करने की स्थिति में कभी नहीं आ पाएंगे परंतु नीतिश के लिए यह सुकून की बात है कि लालू यादव के बेटों के पास सत्ता के अनुभव का अभाव है इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री के प्रति पूरा सम्मान प्रदर्शित करना होगा। नीतिश कुमार के पक्ष में यह तो कहा ही जा सकता है कि बिहार के चुनाव परिणामों के बाद उन्हें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ऐसे प्रतिद्वन्दी के रूप में देखा जाने लगा है जिनके पास गैर भाजपाई राष्ट्रीय महागठबंधन का नेतृत्व करने की क्षमता, योग्यता एवं प्रतिभा तीनों मौजूद हैं। बिहार के मुख्यमंत्री पद के नीतिश के शपथ ग्रहण समारोह में बंगाल, असम, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, केरल, कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों सहित शिवसेना के प्रतिनिधि, दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पार्टी के वरिष्ठ नेता गुलामनबी आजाद, नेशनल कांग्रेस के फारूख अब्दुल्ला व राकांपा अध्क्ष्यक्ष शरद यादव की मौजूदगी ने निसंदेह नीतिश का कद ऊंचा कर दिया है। इसका यह अर्थ निकाला जा सकता है कि अगर बिहार का यह महा गठबंधन राष्ट्रीय स्वरूप लेने में सफलता हासिल करता है तो नीतिश कुमार उसके सर्वमान्य नेता होंगे। गौरतलब है कि लोकसभा चुनावों के पूर्व नरेन्द्र मोदी के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने के भाजपा के फैसले से नाराज होकर ही उन्हें भाजपा के साथ अपनी पार्टी के 17 साल पुराने गठबंधन को बड़ी निर्ममता के साथ एक झटके में तोड़ दिया था। लोकसभा चुनावों में जब राज्य में भाजपा की शानदार विजय हुई और जदयू के खाते में मात्र 5 सीटें आई तो नीतिश ने उसकी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था लेकिन बाद में लालू के साथ अपनी पुरानी राजनीतिक शत्रुता को भुलाकर उनकी पार्टी के साथ गठजोड़ करने का फैसला किया तो उनकी आलोचना की गई कि अब वे सुशासन बाबू कहलाने के हकदार नहीं रह गए हैं परंतु नीतिश कुमार की लालू के साथ दोस्ती के जो सुपरिणाम सामने आए उससे यह साबित कर दिया है कि वे राजनीति के गणित में भी पारंगत हैं। लालू यादव के बेटों का कद वे कभी भी इतना ऊंचा नहीं होने देंगे कि उनकी अपनी लोकप्रियता खतरें में पड़ जाए।
नीतिश कुमार ने पांचवी बार मुख्यमंत्री पद की बागडोर थामने के साथ ही इस हकीकत को भी महसूस कर लिया है कि भारी बहुमत से सत्ता में लौटने के बावजूद उन्हें ढेरों चुनौतियों का सामना करना है। बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राज्य की जनता से यह वादा किया था कि केन्द्र सरकार बिहार को पिछड़ेपन के अभिशाप से मुक्ति दिलाने के लिए उसे 1 लाख 65 हजार करोड़ की आर्थिक मदद देगी। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि नीतिश कुमार केन्द्र से इस भारी भरकम आर्थिक पैकेज को हासिल करने में कितना सफल हो पाते हैं। लालू यादव का कद इन चुनावों में जितनी तेजी के साथ बढ़ा है उसने भी यह संकेत दे दिए है कि बिहार में जब जातीय समीकरण और तेजी से उभरेंगे और उनमें संतुलन कायम रख पाना भी नीतिश के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं होगा। नीतिश कुमार के सामने शायद सबसे कठिन चनौती यह होगी कि वे राज्य में उस ‘जंगलराज’  के दुबारा लौटने की सारी आशंकाओं को निर्मूल सिद्ध करने के लिए क्या एक कठोर प्रशासक की छवि को कायम रख पाएंगे जो लालू यादव की सरकार की पहिचान बन गया था। अगर इन चुनौतियों से पार पाने में वे सफल हो जाते है तो न केवल अपनी सुशासन बाबू की छवि को और लोकप्रिय बना लेंगे बल्कि वे राजद, सपा, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस जैसे दलों के सहयोग से एक ऐसे राष्ट्रीय राजनेता की छवि गढ़ पाने में भी कामयाब हो सकते हैं जिसमें जनता 2019 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने की प्रतिभा के दर्शन कर सके। (लेखन राजनीतिक विश्लेषक हैं)





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