नीतीश ने बिहार में यूं रोका पीएम मोदी का रथ

जब मैं उन्हें आइना दिखाता हूं तब वे मुझे अहंकारी कहते हैं, अहंकारी हूं या नहीं? यह फैसला मीडिया करे

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पटना। बिहार को करीब एक दशक से विकास की राह में ले जाने वाले नीतीश कुमार प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी तीसरी पारी शुरू करने जा रहे हैं। इस बार उनके सफर में जेडीयू के अलावा लालू प्रसाद और कांग्रेस भी हैं। जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस के महागठबंधन ने बिहार की 243 सदस्ईय विधानसभा के लिए हाल ही में संपन्न चुनावों में 178 सीटें हासिल की हैं। पिछले साल लोकसभा चुनाव में प्रदेश से जेडीयू का लगभग सफाया हो जाने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले 64 वर्षीय नीतीश ने विधानसभा चुनावों में अपनी रणनीति का फिर से लोहा मनवा दिया। चुनाव से पहले अटकलें थीं कि क्या गठबंधन हकीकत का रूप ले पाएगा। लेकिन ऐसा हो चुका है। अब कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या नीतीश कुमार अधिक सीटें जीतने वाले आरजेडी के साथ प्रशासन के लिए अपना अजेंडा आगे बढ़Þा पाएंगे। चुनाव के पहले ही लालू ने घोषणा कर दी थी कि नीतीश गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे।

अब यह चर्चा चल रही है कि क्या आरजेडी उपमुख्यमंत्री का पद मांगेगा। महागठबंधन के खाते में आईं 178 सीटों में से आरजेडी के पास 80 सीटें, जेडीयू के पास 71 सीटें और कांग्रेस के पास 27 सीटें हैं। बहरहाल, बिहार की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले नीतीश एक बार फिर से प्रदेश के चंद्रगुप्त बनने जा रहे हैं। ह्यबिहार के चाणक्यह्य के अपने नाम को साबित करते हुए नीतीश ने साल 2014 के लोकसभा सभा में भारी पराजय झेलने के बाद अपने चिर प्रतिद्वंद्वी आरजेडी चीफ लालू प्रसाद के साथ हाथ मिलाकर राजनीतिक पंडितों को हैरत में डाल दिया था।

लोकसभा चुनाव में राज्य की 40 सीटों में से मात्र दो सीटों पर जीत हासिल करने के बाद जनता दल यूनाइटेड नेता नीतीश ने नरेंद्र मोदी रूपी तूफान को रोकने के लिए लालू से हाथ मिलाया। लोकसभा चुनाव के हार के बाद नीतीश ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देते हुए जीतन राम मांझी को सत्ता की कमान सौंप दी थी। राज्य की राजनीति में दोस्त से दुश्मन बने लालू और नीतीश ने अपने मतभेद भुलाकर 40 साल पुराने छात्र आंदोलन के जमाने के गठबंधन को फिर से खड़ा किया।
इसी छात्र आंदोलन को वरिष्ठ समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने हिंदुस्तान की राजनीति में बड़े बदलावकारी आंदोलन का रूप दिया था। उस आंदोलन की सीढ़ी पर चढ़कर 1977 के लोकसभा चुनाव में पहली बार कूदे लालू की किस्मत रंग लाई और वह चुनाव जीत गए। लेकिन नीतीश को 1985 में राज्य विधानसभा चुनाव में पहली बार जीत हासिल करने में 8 साल लग गए जो उस समय तत्कालीन बिहार कॉलेज आफ इंजिनियरिंग (आज के एनआईटी पटना) में इलेक्ट्रॉनिक इंजिनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे।
1985 से पहले नीतीश दो बार चुनाव हार गए थे। नीतीश ने 1989 में बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता पद के लिए लालू का समर्थन किया। इसके बाद 1990 में बिहार में जनता दल के सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश ने फिर लालू के कंधे पर हाथ रखा जिन्होंने प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह के नामित उम्मीदवारों राम सुंदर दास और रघुनाथ झा को चुनौती दी थी।Nitish elected head of JD(U) legislature party
बाढ़ संसदीय सीट से 1989 में लोकसभा चुनाव जीतने वाले नीतीश ने अपनी नजरें राज्य की राजनीति से हटाकर अब दिल्ली पर केंद्रित कर दी थीं और वह 1991 , 1996 , 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव में भी विजई रहे। नीतीश ने अटल बिहारी वाजपेई की सरकार में कृषि मंत्री और 1999 में कुछ समय के लिए रेल मंत्री का पदभार संभाला। लेकिन 1999 में पश्चिम बंगाल के घैसाल में ट्रेन हादसे में करीब 300 लोगों के मारे जाने की घटना के बाद नीतीश ने रेल मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
सौम्य और स्पष्टवादी नीतीश 2001 में फिर से रेल मंत्री बने और 2004 तक इस पद पर रहे। इस दौरान सार्वजनिक क्षेत्र के इस विशाल उपक्रम में बड़े सुधार लाने का श्रेय उन्हें मिला जिसमें इंटरनेट टिकट बुकिंग और तत्काल बुकिंग शामिल है। इसी दौरान ही फरवरी 2002 में गोधरा ट्रेन कांड हुआ जिसने जल्द ही गुजरात को सांप्रदायिक आग के लपेटे में ले लिया। दिल्ली में सत्ता के गलियारों में नीतीश अपने राजनीतिक और प्रशासनिक कौशल को मांजने में लगे रहे और लालू से दूर होते चले गए।
पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए लालू द्वारा अपनी ही जाति के शरद यादव का समर्थन किए जाने के कारण 1994 में नीतीश कुमार समाजवादी आंदोलन के प्रमुख स्तंभ जॉर्ज फर्नांडिस के साथ जनता दल से बाहर निकल गए और उन्होंने समता पार्टी का गठन किया जिसने 1996 के आम चुनाव से पूर्व बीजेपी के साथ हाथ मिला लिया। इसके बाद आने वाले समय में शरद यादव को भी जनता दल में हाशिए पर डाल दिया गया और लालू ने पार्टी को पूरी तरह अपने कब्जे में ले लिया। बाद में शरद यादव की अगुवाई वाले जनता दल, समता पार्टी और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े की लोकशक्ति पार्टी का आपस में विलय हो गया और 2003 में एक नया दल जनता दल यूनाइटेड अस्तित्व में आ गया। 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए की हार के चलते नीतीश ने फिर से अपना ध्यान बिहार पर केंद्रित किया जहां राबड़ी देवी की सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से गिर रहा था।
खुद अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से ताल्लुक रखने वाले नीतीश बिहार की राजनीति में लौटे और लालू राबड़ी सरकार के खिलाफ जबर्दस्त अभियान छेड़ दिया। उनके प्रयास रंग लाए और जनता दल यू, बीजेपी गठबंधन ने 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में अपनी सरकार गठित की जिसमें मुख्यमंत्री पद पर नीतीश की ताजपोशी की गई।
मुख्यमंत्री पद की कमान संभालते ही नीतीश मिशन मोड में आ गए और बरसों बाद प्रदेश की राजनीति में विकास जैसा नया शब्द सुनाई दिया। उनकी सरकार ने लंबित परियोजनाओं को पूरा किया , एक लाख से अधिक स्कूली अध्यापकों की भर्ती की गई और अपराध पर लगाम लगाई गई। दूरदराज के स्कूलों में भी टीचर्स और प्राइमरी हेल्थ सेंटर में डॉक्टर नजर आने लगे। उन्होंने छात्राओं के लिए मुफ्त साइकल योजना शुरू की जिससे पढ़ाई बीच में छोड़ने वाली बालिकाओं की संख्या में कमी आई। इस मिशन का परिणाम यह हुआ कि नीतीश जल्द ही ह्यविकास पुरुषह्य कहलाने लगे। दलितों के बीच लालू के समर्थन को काटते हुए नीतीश ने दलितों के बीच भी महादलितों की एक नई श्रेणी सृजित कर दी और उनके लिए कई कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की।
वर्ष 2010 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू, बीजेपी गठबंधन ने 243 में से 206 सीटों पर जीत हासिल की और आरजेडी को हाशिए पर धकेल दिया जो केवल 22 सीटों पर सिमट गई। विपक्ष के नेता पद तक पर आरजेडी दावा नहीं कर सकी। लेकिन बीजेपी के साथ अपने मजबूत संबंधों के बावजूद नीतीश कुमार के संबंध अपने गुजरात के समकक्ष नरेंद्र मोदी के साथ लगातार तनावपूर्ण बने रहे। नीतीश कुमार ने अपनी कमान में बिहार में गठबंधन द्वारा लड़े गए दोनों चुनाव में मोदी को प्रचार से रोकने के लिए हरसंभव प्रयास किए।Lalu and Nitish after Bihar poll verdicts
2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी चुनाव प्रचार समिति के प्रमुख के तौर पर मोदी की नियुक्ति गठबंधन सहयोगी के साथ संबंधों में निर्णायक साबित हुई और नीतीश कुमार जून 2013 में एनडीए से किनारा कर अपने अलग रास्ते पर निकल पड़े। लोकसभा चुनाव में जेडीयू की शर्मनाक पराजय के बाद 17 मई 2014 को नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और महादलित नेता जीतन राम मांझी को सरकार की कमान सौंप दी। इस लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को केवल दो सीटें मिली थीं।
विधानसभा चुनाव की आहट से नीतीश को अहसास हुआ कि महादलित नेता पार्टी को जीत नहीं दिला सकेंगे। उन्होंने मांझी से इस्तीफा देने और मुख्यमंत्री पद पर उनकी वापसी का रास्ता साफ करने को कहा। लेकिन मांझी ने इनकार कर दिया और जेडीयू विधायकों ने उन्हें अपदस्थ कर दिया। फिर नीतीश 9 महीने के वनवास के बाद लालू की आरेजेडी और कांग्रेस के समर्थन से फिर सत्तासीन हो गए।
मोदी लहर का सामना करने के लिए नीतीश कुमार और लालू दोनों ही अपने डगमगाते राजनीतिक भविष्य की नैया पार लगाने के लिए नए दोस्त तलाश रहे थे। इसी के चलते दोनों पूर्व कॉमरेड ने अपनी पुरानी दुश्मनी को भुलाकर, एक होकर तूफान का मुकाबला करने का फैसला किया और यह एकजुटता काम कर गई।






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