बिहार में भाजपा कब तक चलेगी बैसाखी के सहारे
विनोद बंधु
बिहार चुनाव में शर्मनाक पराजय से उबरने में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को लंबा वक्त लगेगा। भाजपा की इस पराजय का असर राष्ट्रीय फलक पर होगा। इस चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत पूरी भाजपा की प्रतिष्ठा दांव पर थी, जाहिर है, नफा-नुकसान के दायरे का अनुपात भी वही होगा। लेकिन इस चुनाव से एक बात और साफ हो गई है कि बैसाखी के सहारे चलने और कामयाबी पर ढोल-नगाड़े पीटने की संस्कृति से बिहार भाजपा को उबरना होगा।
बिहार में भाजपा का प्रदर्शन वैसाखी पर टिका रहा है। एक दौर में अटल-आडवाणी इसके खेवनहार थे तो बाद में नीतीश कुमार। वर्ष 2005 और 10 का चुनाव एनडीए ने नीतीश कुमार के चेहरे पर जीता था। इस चुनाव में भी वह पूरी तरह नरेन्द्र मोदी के कंधे पर सवार होकर वैतरणी पार करने की महत्वाकांक्ष पाले बैठी थी।
स्व. कैलाशपति मिश्र जैसे एक-आध अपवाद को छोड़ दें तो बिहार में भाजपा का शायद ही कोई ऐसा चेहरा है जो पार्टी के जनाधार के इतर अपने बल-बूते एक भी सीट जीतने-जिताने के काबिल हो। शायद यही वजह भी रही कि भाजपा ने बिहार के किसी नेता को सीएम प्रत्याशी घोषित करना मुनासिब नहीं समझा।
भाजपा की खासियत रही है कि वह अपने नेताओं को प्रमोट करने, उन्हें संवारने और तराशने में किसी भी अन्य दल से आगे है। यही वजह भी है कि उसके पास जाने-पहचाने चेहरों की बड़ी फौज बिहार में भी है। जब-जब केन्द्र में सरकार बनी, भाजपा ने बिहार के नेताओं को प्राथमिकता दी। लेकिन सिर्फ पहचान बन जाने भर से जनाधार नहीं बन जाता है।
जातीय समीकरण बुनकर चुनाव जीतने की कुंठा से उबरे बगैर व्यापक जनाधार नहीं बनाया जा सकता और न ही विरोधियों पर दिन-रात कीचड़ उछाल कर ही जनता का भरोसा जीता जा सकता है। मीडिया की सुर्खियां भी कोई खास फायदा नहीं दिला पाती हैं। खासकर तब और जब आप कमजोरियों में औरों से भिन्न न हों।
बिहार में भाजपा ने जितने नेता खड़े किए, अगर उनमें से दस फीसदी भी जमीनी ताकत बना पाए होते तो शायद हवा के रुख पर इतनी बड़ी निर्भरता नहीं होती और न ही इतनी शर्मनाक पराजय। लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन ने बिहार में 40 में 31 सीटें जीती। इस जीत के दो ही कारण थे, कांग्रेस से नाराजगी और नरेन्द्र मोदी का नया-नया आकर्षण।
चुनाव प्रबंधन या जातीय गणित को पुख्ता करने की कोशिशों में लोजपा और रालोसपा को जोड़ना और जातीय क्षत्रपों को पार्टी में शामिल कराना, पूरक अवयव की तरह ही थे। ए सारे गणित और सूत्र इतने पुख्ता होते तो महादलित वोट का समर्थन पाने की मुराद में जीतनराम मांझी को गठबंधन में शामिल कराने के बाद विधानसभा चुनाव में दुर्गति का ऐसा दंश क्या झेलना पड़ता।
बिहार भाजपा के नेताओं को किसी एक जीत या किसी की हार पर इतराने की अपनी मानसिकता से भी उबरना होगा। याद कीजिए, जदयू और भाजपा का गठबंधन कायम रहते महाराजगंज लोकसभा सीट के उपचुनाव में पराजय पर भाजपा नेताओं के बयान किस तरह के रहे थे। क्या उस समय ऐसा नहीं लगा था कि जदयू की उस हार पर विरोधियों से ज्यादा भाजपा के नेता इतरा रहे थे और कहने लगे थे कि अब नीतीश कुमार का क्रेज खत्म हो गया है, उन्हें नरेन्द्र मोदी के सामने नतमस्तक हो जाना चाहिए।
उस चुनाव में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के बूथ पर एनडीए प्रत्याशी को मिला वोट भी चर्चा में रहा था। बिहार चुनाव में इस हार पर अब भाजपा के वैसे नेता क्या कहेंगे? बहरहाल, बिहार भाजपा के नेताओं को तमाम ताकत मिलने के बावजूद इस चुनाव में शर्मनाक पराजय पर आत्ममंथन करना चाहिए। दूसरों की खामियां निकलना बहुत आसान होता है, अपने अंदर झांकना उतना ही मुश्किल भी।
पार्टी के अंदर एक-दूसरे की पर कतरने की संस्कृति भाजपा में जिस तरह बीते डेढ़ दशक में प्रभावी होती गई है, उससे कहीं न कहीं संगठन में बिखराव या उदासीनता पैदा हुई है। भाजपा की ताकत उसके काडर रहे हैं, उनकी अनदेखी और अपने मोहरे-प्यादे बिछाने की शतरंजी संस्कृति ने क्या बिहार में भाजपा को नुकसान नहीं किया है? ऐसी अनेक वजहें हैं जिनसे उबरे बगैर कोई जन नेता नहीं बन सकता है। from livehindustan.com
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