सब मुसहर पहाड़ काट देगा तो इटखोला कौन जायेगा.’
‘ मांझी, द माउंटेन मैन’ जब रिलीज हुई , तब तक बिहार में चुनाव की सरगर्मी तेज हो गई थी . बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने पटना में यह फिल्म देखी, उनके फिल्म देखने की खबर और तस्वीरें व्हाट्स अप पर उनके सोशल मीडिया के संयोजक वेदप्रताप से प्राप्त हो गई थीं. चुनाव के वक्त यह फिल्म तब आई है, जब जीतन राम मांझी भाजपा के नेतृत्व वाले एन डी ए के नेताओं में एक चेहरा भर रह गये हैं, जबकि अपने मुख्यमंत्री रहते हुए और वहां से हटने के बाद वे ख़ास तौर पर मुसहर और बड़े अर्थों में दलित –नेतृत्व के रूप में एक प्रतीक बन गए थे. कुछ दिनों तक एन डी ए का मुख्यमंत्री चेहरा बनाये जाने की मांग उनके समर्थक खेमों से उठती रहती थी.
यह फिल्म एक बायोपिक है, जो जीते –जी लीजेंड बन गये दशरथ मांझी के नायकत्व की कहानी कहती है. 1934 में बिहार के गया जिले के गहलौर में पैदा हुए दशरथ मांझी ने २२ वर्षों ( 1960-1982) में गहलौर की पहाडी को काटकर रास्ता बनाया और अपनी पत्नी (फाल्गुनी देवी ) को तोहफे में दे दिया, क्योंकि वह इन्हीं पहाड़ियों से फिसल गई थी, जब वह पानी लेकर एक पहाड़ी पर चढ़ रही थी. इस रास्ते से गया जिले के अतरी और वजीरगंज प्रखंड के बीच की ८० किलोमीटर की दूरी ३ किलोमीटर में सिमट गई, जिससे घाटियों में बसे लोगों की अस्पतालों और अन्य सुविधाओं तक पहुँच बढ़ी. रास्ता बनाने के लिए जीवट के धनी दशरथ मांझी ने 360 फीट लंबाई , 30 फीट चौड़ाई और 25 फीट ऊंचाई तक इस पहाडी को अकेले छेनी और हथौड़े से काटा. अपने काम से उन्होंने प्रतीकात्मकता हासिल कर ली. 2006 में इस प्रतीक को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी कुर्सी पर बैठाकर विकास की राजनीतिक –प्रशासनिक पहल और विकास के बुनियादी सुविधाओं अस्पताल , स्कूल आदि की ख्वाहिश रखने वाले आम आदमी के संघर्ष और जीवटता के सम्मिलित प्रतीक बनाने की कोशिश की –इसका राजनीतिक महत्व भी था, बिहार में हाशिये पर जीने वाली जिस दलित जाति से वे आते थे, वह बिहार की कुल दलित आबादी में 15 से 20 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखती है और नीतीश कुमार की ‘ महादलित –राजनीति’ की प्रमुख प्रतिनिधि जाति भी है .
2014 में नीतीश कुमार ने प्रतीकात्मकता की इस राजनीति को एक और पटकथा दी , जब उन्होंने स्वयं इस्तीफा देकर जीतन राम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया और महादलित को राज्य की सत्ता सौपने का प्रतीक रचने की कोशिश की , हालांकि जल्द ही उनकी यह कोशिश उनके ही खिलाफ एक अलग ही नैरेटिव बन कर खड़ी हो गई – एक महादलित मुख्यमंत्री को कठपुतली बनाने के नैरेटिव के रूप में , जिसने इनकार में सिर हिलाया तो उसे हटने के लिए बाध्य कर दिया गया. आज जीतन राम मांझी भाजपा के साथ खड़े हैं, तब यह फिल्म आई है . भाजपा के साथ खड़े जीतन राम मांझी दशरथ मांझी की विरासत के वाजिब हकदार हैं , उनकी ही जाति से आते हैं और सामन्यता, उत्पीडन और उपेक्षा से आगे निकलकर महत्व हासिल करने की उनकी कहानी को उन्होंने राजनीति में दुहराया भी है. जबकि नीतीश कुमार की परेशानी यह होगी कि राजनीति की ‘जीतन परिघटना’ नहीं होती तो वे ‘ दशरथ मांझी’ को अपने द्वारा दिये गये सम्मान की फसल इस फिल्म के साथ काट रहे होते.
फिल्म की कहानी 1960 से 1982 तक के कैनवास तक फैली है, जो मुख्यतः पहाडी काटकर रास्ता बनाने में लगा 22 साल का समय है. इन 22 वर्षों में बंधुआ मजदूरी से जीवन यापन करने वाली मुसहर जाति के राजनीतिक नेतृत्व पटना और दिल्ली में पहुँचने लगे थे. 1969 में दशरथ मांझी की जाति की भागवती देवी विधायक बनीं, जो 1996 में गया जिले से सांसद भी चुनी गई थीं. 1980 में जीतन राम मांझी विधायक बने थे और गहलौर पहाडी से रास्ता बनाये जाने (1982) के ठीक एक साल बाद , यानी 1983 में वे राज्य में मंत्री भी बने. फ्लैश बैक में यह फिल्म दशरथ मांझी के बचपन और किशोर –जीवन के दौर में भी मुसहर समाज के कठिन जीवन की कहानी कहने की कोशिश करता है. 1941-42 से आगे तक के समय की कहानी , जब दशरथ जमींदार के उत्पीडन से भागकर धनवाद मजदूरी करने चले जाते हैं और जब युवा किशोर होकर वापस लौटते हैं तो अपनी व्याहता के साथ रोमांस करते हैं. उस दौर की अन्य शादियों की तरह उनकी शादी भी बाल –विवाह ही थी. फिल्म में ‘ सब बराबर –सब बराबर’ गाते दलित –मुसहर युवाओं-युवतियों का मंदिर प्रवेश 1950 में संविधान लागू होने के बाद समानता के संवाद की प्रतीक कथा है. देश के आजाद होने और वयस्क मताधिकार की संवैधानिक व्यवस्था के कारण सब बराबर राजनीतिक हकीकत बनने की दिशा में जरूर एक कथन है , तभी दशरथ मांझी के लगभग समकालीन (1936 में पैदा हुई भागवती देवी और 1946 में पैदा हुए जीतन राम मांझी ) राजनीतिक वर्चस्व का पहाड़ तोड़ पाने में सफल हुए. लगभग एक साथ गहलौर की पहाडी तोड़ने के साथ –साथ- इन तीनों ही प्रतीकों का राजनीतिक –भूगोल एक है- गया जिला.
कहानी के इस यथार्थ के बीच ही बना है ‘मांझी, द माउंटेन मैंन’ का फिक्शन, जिसे रूमानियत ने उतना ही लील लिया है , जितना 2015 में मुसहर समाज के दयनीय यथार्थ को विकास की राजनीति के रूमानियत ने लील लिया है. फिल्म में जिस मुसहर समाज को फिल्माया गया है, वह बिहार के अधिकांश मुसहरों का समाज आज भी नहीं है, 1940 के दशक में तो कतई नहीं. गहलौर की पहाड़ियों के इलाके में इन पंक्तियों का लेखक भी घूम आया है , दशरथ मांझी के घर भी. फिल्म का मुसहर समाज किसी मध्य जाति के समाज सा दिखता है. अभिजात्य मानसिकता और प्रेरणाओं से बनी इस फिल्म में मुसहरों का एक नक्सली नेतृत्व भी 70 के दशक में ही पैदा कर दिया गया है, जो ऐतिहासिक सच नहीं है. ऐतिहासिक सच है बोध गया का भूमि आन्दोलन और विनोबा के नेतृत्व में भूदान आन्दोलन, जिसने 2015 तक कुछ मुसहर परिवारों को खेतीहर जरूर बना दिया है. इसी ऐतिहासिक सच के साथ मुसहरों के बीच से नेतृत्व का सच खडा होता है, जिसके संधान में लगे हैं जीतन राम मांझी और उनके माध्यम से नरेन्द्र मोदी और अमितशाह. नीतीश कुमार ने अपने राज्य में फिल्म को टैक्स फ्री जरूर कर दिया है, लेकिन लाभ का गणित केतन मेहता और जीतन राम मांझी के पक्ष में है .
और अंत में
दो साल पहले इन पंक्तियों के लेखक ने गहलौर पहाड़ियों के दोनों और बसे गांवों में दस्तक दी थी , खासकर दशरथ मांझी जिस जाति से आते थे उस जाति के लोगों के टोलों में – दलित जातियों के गाँव नहीं होते. दशरथ मांझी की मुसहर जाति राज्य की ‘महादलित’ जातियों में सर्वाधिक हाशिये पर रहने वाली जाति है. इनके विकास के लिए राज्य सरकार ने कई योजनायें घोषित कर रखी हैं. उन योजनाओं के क्रियान्वयन को जानने के लिए दशरथ मांझी के टोले सहित, बहालपुर, आशापुर आदि टोले /गांवों के दौरे पर जाते हुए गहलौर घाटी के बहुत पहले से ही कई पर्वत श्रृंखलाएं मिलनी शुरू होती हैं. ये राजगीर की पर्वत श्रृंखलाएं हैं. वैध-अवैध खननों के कारण एक-एक कर के कई पहाड़ियां अपना अस्तित्व खोती चली गई हैं . कहा जाता है कि दशरथ मांझी पर्यावरण के प्रति काफी सजग थे ,लेकिन उन्हें प्रतीक बना चुकी व्यवस्था पहाड़ियों की लूट से आँखें मूँद कर पर्यावरण को दीर्घकालिक चोट पहुंचा रही है . दोनों ओर के टोलों में जहाँ मुसहर जाति के लोग रहते हैं, जीवन स्तर सामान्य से भी नीचे है. दशरथ मांझी के दशरथ नगर और बहालपुर टोले के बीच वही पहाड़ी है, जिसे काटकर रास्ता बना था . एक छोर पर दशरथ मांझी की समाधी है तो दूसरे छोर पर १९९३ में पास के गाँव आशापुर में मारे गए पुलिस मुठभेड़ में मारे गए ८ लोगों की समाधी.
इन दोनों प्रतीकों के बीच ही विकास के मिथ का सत्य है. ८ लोग जिस जनता के सवाल पर लड़ने के कारण मारे गए, उसका हाल पास के बहालपुर टोले में आज भी यथावत है. ५० घर के परिवार के लिए एक कुआँ है, कोई चापानल नहीं. कुँए का गन्दा पानी लोग और उनके जानवर पीते हैं. टोले में बिजली होने का तो कोई सवाल ही नहीं है. लगभग लोग, स्त्री –पुरुष इंट के भट्ठे पर काम करते हैं. किसी के पास मनरेगा का काम नहीं है, गाँव में जो दो-चार लोग हमारी आगवानी में थे, उन्होंने बताया. इंदिरा आवास कुछ लोगों को है, अधिकांश को नहीं. दूसरी अन्य योजनाओं का उन्हें पता तक नहीं था. हाँ वे दशरथ मांझी को लेकर कृतज्ञ थे, जिसने उन्हें सड़क दी थी कम से कम . सरकारी योजनाओं का हाल है कि मनरेगा के तहत गाँव के बाहर वृक्षारोपण के अंश दिखाते हैं और गाँव से एक किलोमीटर दूर उन्हीं पौधों को पटाने के लिए एक चापानल भी लेकिन उसका भी पानी पीने लायक नहीं है. दूसरी ओर स्टेट के द्वारा प्रतीक बना दिए गए दशरथ मांझी के टोले और परिवार का हाल उस पार के टोले से भिन्न नहीं है. परिवार में बहु बीमार है, इलाज की कोई व्यवस्था नहीं है . इस परिवार को कोई सुख है तो वह यह कि यह एक प्रतीक बन गए व्यक्ति का परिवार है , उससे जुडी कुछ आशाएं हैं . शहर की सीमा पार करते ही १० किलोमीटर की दूरी में कम से कम १० ५ सितारा प्राइवेट स्कूलों के भवन बन रहे हैं. वही सुबह के समय में इस रास्ते में आते गांवों और टोलों में बने स्कूलों में बच्चे न के बराबर दिखे , ये वे सरकारी स्कूल हैं, जहाँ मिड डे मिल परोसे जाते हैं . इन गरीब –दलित बस्तियों के बच्चे सडकों पर दिखे, छोटे –छोटे बच्चे इंटें ढोते हुए.
दशरथ मांझी के घर बैठे एक राजपूत किसान का वाक्य कानों में गूंजता है , ‘ सब मुसहर पहाड़ काट देगा तो इटखोला कौन जायेगा.’
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