.. तो टूट गई दोस्ती !
जनता परिवार का विलय टल गया है। इसके बाद अब राष्ट्रीय जनता दल और जदयू के गठबंधन के भविष्य को लेकर भी कयास लगाए जा रहे हैं। जदयू नीतीश को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़ना चाहता है। अब राजद को इस पर आपत्ति है। राजद को लगता है कि नीतीश को आगे कर चुनाव लड़ने से उसका आधार वोट प्रभावित होगा।
सुभाष चन्द्र
हिन्दुस्तान में बिहार की पहचान कई रूपों में समय-समय पर होती रही है। गौरवमयी अतीत की विरासत और वर्तमान की राजनीति को देखें, तो इस बात को कहने में तनिक भी संदेह नहीं है कि बिहार ने कभी भी संप्रदायिकता को परवान नहीं चढ़ने दिया। हमेशा ही इस देश को रास्ता दिखाया है। राजनीति को नई दिशा दी है। चाहे स्वतंत्रता आंदोलन का दौर रहा हो अथवा या आज की बात है। हाल के दिनों में जिस प्रकार से राजनीति में कई प्रकार के गुण दोष आ रहे हैं, उसमें भी बिहार की राजनीति ने सामाजिक तुष्टीकरण अथवा संप्रदायिकता को बढ़ावा नहीं दिया है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पूरी राजनीति को आप इस परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं। नीतीश कुमार ने अपनी छवि एक विकास की बात करने और उसे पूरा करने वाले नेता के रूप में बनाई है। यही कारण है कि कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी भी कई मौके पर नीतीश कुमार की नीतियों की सराहना कर चुकी हैं। परिस्थितियां कितनी भी प्रतिकूल हों, राजनीति में अपनी नीति और सिद्धांत पर कायम रहना चाहिए। बिहार की राजनीति में आने वाले दिनों में यदि धर्मनिरपेक्ष ताकत यदि एक मंच पर एक साथ आए और जनता के बीच जाएं, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
बिहार की राजनीति का ताजा पहलू यह है कि यहां नीतीश और लालू दोनों की राहें अलग हो गईं हैं। लालू नीतीश को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मानने को तैयार नहीं, तो नीतीश विलय के अलावा दूसरे विकल्प गठबंधन के पक्ष में नहीं। कांग्रेस ने नीतीश के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद ये तय हो गया कि लालू और नीतीश अब साथ-साथ नहीं रहेंगे। लालू ने रघुवंश प्रसाद सिंह के बयान का खंडन तो दूर, उन्होंने यहां तक कह दिया कि अगर राजनीतिक सौदा नहीं पटा तो सबकी राहें अलग-अलग होंगी। हाजीपुर में लालू और नीतीश जब गले मिल रहे थे, तो उस वक्त भी इनका दिल नहीं मिला था। राजनीतिक मजबूरी ने इन दोनों को एक साथ खड़ा कर दिया पर उस वक्त ही ये कयास लगाए जा रहे थे कि ये दोस्ती कब तक? आज दोनों की पार्टीयां एक-दूसरे के खिलाफ आग उगलने लग गईं हैं। राजद नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने नीतीश को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की बात तो दूर, उनकी वजह से वोट का नुकसान होने की बात कह दी।
नीतीश और लालू दोनों एक साथ बैठने को तैयार नहीं हैं। नीतीश विलय से नीचे किसी बात पर मानने को तैयार नहीं और लालू अब विलय के पक्ष में नहीं। पिछले कई दिनों से लालू और उनकी पार्टी के नेता मीडिया के जरिये नीतीश सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहे थे। लालू पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को अपने साथ लाने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे, कुल मिलाकर नीतीश विरोधी नेताओं को साथ लेकर नीतीश पर दबाव बना रहे थे, पर नीतीश ने भी तय कर लिया है कि अब लालू के साथ जाना सम्भव नहीं। इसलिए नपे-तुले और सधे अंदाज में जवाब दे रहे हैं। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव लालू और नीतीश के बीच सहमति बनाने की कोशिश करते रहे पर बात नहीं बनी। आखिर दोनों की दोस्ती टूट ही गई।
असल में, बीते कई दशक से देश की राजनीति गठबंधन युग में है। देश में राष्ट्रीय स्तर पर गठजोड़ की राजनीति के तीन बड़े प्रयोग हुए हैं। जनता पार्टी, जनता दल और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन। बाद में यूपीए की कहानी भी जुड़ गई। आपातकाल के विरोध में 1977 में सत्ता में आते ही जनता पार्टी वैचारिक मतभेद की शिकार हो गई। दूसरी बार 1989 में गैर कांग्र्रेसी नेता जनता दल के रूप में एकजुट हुए, लेकिन यह प्रयोग भी कामयाब नहीं हो सका। मंडल कमीशन और राम मंदिर के मुद्दे पर सारे धड़े बिखर गए। 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी सरकार को 13 दिन में ही इस्तीफा देना पड़ा। मध्यावधि चुनाव के बाद फिर बनी सरकार 13 महीने में गिर गई, मगर 1999 में राजग गठबंधन सफल रहा। अटल बिहारी वाजपेयी ने कई छोटे दलों को साथ लेकर पांच साल तक गठबंधन सरकार चलाई। बाद में कांग्रेस भी इसी राह पर चली और कई दलों के साथ लंबा रास्ता तय किया।
विधानसभा चुनाव से पहले जनता परिवार में विलय की कहानी के खत्म होते ही गठबंधन की कोशिशों और उसकी कामयाबी पर सवाल उठना लाजिमी है। विलय में पेंच के बाद बिहार के दो बड़े दल राजद और जदयू में अभी भी किंतु-परंतु बरकरार हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि सत्ता के लिए सियासी दोस्ती का रास्ता कितना कामयाब रहा है। बिहार में इसकी परख हो चुकी है और बहुत हद तक यह प्रयोग सफल भी हो चुका है।
देश के कई राज्यों में सियासी उठापटक और दांव पेंच के दौर में गठबंधन के फॉर्मूले को एक विकल्प के तौर पर आजमाया जाता रहा है। कई बार जनता ने इसे स्वीकार भी किया है और एक हद तक कशमकश झेलने के बाद झटक भी दिया है। हाल के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे से लेकर सरकार बनाने तक के मुद्दों पर शिवसेना और भाजपा की तकरार भी गठबंधन की राजनीति के लिए एक सबक है। मगर बिहार में भाजपा और जदयू (2003 के पहले समता पार्टी) की दोस्ती बिना किसी तकरार के लगभग 17 सालों तक जारी रही। केंद्र से लेकर राज्य में दोनों दलों ने धैर्य के साथ सरकारें चलाईं।
लालू प्रसाद के लंबे के एकाधिकार को चुनौती देने के लिए बिहार में नीतीश कुमार के साथ मिलकर भाजपा ने गठबंधन की नींव डाली थी। 1996 में नीतीश कुमार की समता पार्टी के साथ भाजपा की शुरू हुई दोस्ती 2013 तक निर्विवाद चलती रही। 2003 में नीतीश जब जदयू को लेकर अलग हो गए तो भी दोस्ती जारी रही। इसी गठबंधन ने 2005 में लालू प्रसाद का तिलिस्म तोड़ा। फिर राजधर्म और संयम के साथ लगभग सात वर्षों तक बिहार में भी साथ-साथ सरकार चलाई। सत्ता की मजबूरियों और दांव पेच की राजनीति ने आखिरकार लोकसभा चुनाव के पहले 2013 में दोनों को अलग-अलग रास्ते पर चलने को बाध्य कर दिया। भाजपा-जदयू गठबंधन के सफल प्रयोग से नसीहत लेकर 2010 के विधानसभा चुनाव में राजद और रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा ने भी दोस्ती कर ली, लेकिन चुनाव में कोई ख्रास उपलब्धि हासिल नहीं कर पाने के कारण दोनों अपने अपने रास्ते पर चल निकले।
असल में, राज्यों में गठबंधन सरकार की शुरुआत लगभग 48 साल पहले हुई थी। 1967 में जब सात प्रदेशों में कांग्रेस बहुमत से पिछड़ गई थी तो छह राज्यों में कई दलों ने मिलकर संयुक्त सरकार का गठन किया था। ऐसी ही कोशिशों से केरल में बनी सरकार बहुत दिन तक नहीं चल पाई, लेकिन पश्चिम बंगाल में लगभग तीन दशक तक गठबंधन सरकार चलती रही। वैसे इसके पहले बड़े स्तर पर बेमेल गठबंधन सबसे पहले उत्तर प्रदेश में हुआ था, जब मायावती के साथ भाजपा ने सरकार बनाई थी। कुछ दिनों तक तो यह प्रयोग सफल भी रहा था, मगर फिर दोनों की राहें अलग-अलग हो गई थीं।
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