काश! मोहन जी महात्मा को समझ पाते
काश! मोहन जी महात्मा को समझ पाते
अरुण कुमार त्रिपाठी
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत जी ने सन 2021 के पहले दिन एक विचित्र बयान दिया। उनका कहना था, “सभी भारतीय मातृभूमि की पूजा करते हैं लेकिन गांधीजी ने कहा था कि मेरी देशभक्ति मेरे धर्म से आती है। इसलिए अगर आप हिंदू हैं तो आप स्वाभाविक रूप से देशभक्त हैं। आप अवचेतन में हिंदू हो सकते हैं या आपको जागरण की आवश्यकता है लेकिन हिंदू कभी भारत विरोधी नहीं हो सकता है।’’ मोहन भागवत जी `हिंद स्वराज’ पर लिखी गई एक किताब के विमोचन में अपनी बात रख रहे थे। उन्होंने और भी बहुत सी बातें कहीं जो उतनी चौंकाने वाली नहीं हैं जितनी ऊपर कही गई बात इसलिए उनकी इस समझ पर चर्चा होनी चाहिए।
इस बीच दिल्ली के गाजीपुर बार्डर पर धरने पर बैठे एक किसान ने अपने साथियों की मौत से उदासीन सरकार से नाराजगी जताते हुए कहा कि यह सरकार और कंपनियां हमें नागरिक नहीं मानतीं। वे हमें कोल्हू में पिराई के लिए इस्तेमाल होने वाले गन्ने की तरह समझती हैं। गन्ने का इस्तेमाल करके मिलें चीनी बनाती हैं और मुनाफा कमाती हैं और सरकारें हमसे वोट लेकर अपनी बैधता और ताकत बढ़ाती हैं। सरकार और कारपोरेट के गठजोड़ पर यह टिप्पणी धर्म और देशभक्ति के विमर्श के समांतर चल रही चिंताओं की एक झलक है। दरअसल गांधी और उनका देश विकास और हिंदुत्व के आख्यान में इस तरह से उलझ गया है कि वहां नागरिक चारा और फिर बेचारा बनता जा रहा है। शायद गांधी को समझा गया होता तो वैसा न होता।
इस विमर्श को समाजवादी विचारों से प्रभावित प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक यू आर अनंतमूर्ति ने अपनी आखिरी पुस्तक ` हिंदुत्व आर हिंद स्वराज’ (Hindutva or Hind Swaraj) में बहुत प्रभावशाली ढंग से उठाया है। यूआर अनंतमूर्ति गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में हुए उभार से चिंतित थे और उन्होंने कहा भी था कि वे उस देश में नहीं रहना चाहते जिसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों। यह एक संवेदनशील लेखक का वैसा ही बयान था जैसा कभी अवतार सिंह पाश ने कहा था कि `जिस राज्य के मुख्यमंत्री भजनलाल विश्नोई हों हम उस राज्य का नागरिक होने से इनकार करते हैं।’ अपने उसी भावुक प्रवाह में गांधी, सावरकर, गोडसे और नरेंद्र मोदी के चरित्र और विचारों को समझाते हुए एक लंबा निबंध लिखा था जिसे सन 2016 में हार्पर पेरिनियल ने प्रकाशित किया और उसकी भूमिका प्रसिद्ध समाजशास्त्री शिव विश्वनाथन ने लिखी है।
यह आलेख बहुत स्पष्ट शब्दों में कहता है भारत का आने वाला समय गांधी के हिंद स्वराज और सावरकर के हिंदुत्व के बीच टकराव का है। यह भारत को तय करना है कि वह दोंनो विचारों में से किसको अपनाता है। वे मानते हैं कि मोदी के सत्तासीन होने के साथ भारत में सावरकर के हिंदुत्व संबंधी विचारों को लागू करने की शुरुआत हो चुकी है। राष्ट्रहित के नाम पर कोई भी कानून बनाने, कहीं भी जुलूस निकालने, कोई भी नारा लगाने और किसी पर भी अत्याचार करने की छूट मिलती जा रही है। यहां सावरकर का पुण्यभूमि का विचार लागू किया जा रहा है। चूंकि हिंदुत्व के सिद्धांत के अनुसार भारत हिंदुओं के लिए पुण्यभूमि है इसलिए उनकी देशभक्ति पर कभी भी संदेह नहीं किया जा सकता। भले ही वह देशभक्ति के नाम पर कितना ही अत्याचार और हिंसा करे। इसीलिए अनंतमूर्ति कहते हैं कि हमें इस मान्यता को चुनौती देनी चाहिए कि कोई व्यक्ति बहुमत के माध्यम से सत्ता में आ गया है इसलिए उसकी आलोचना न की जाए। वास्तव में लोकतंत्र वहां फलता फूलता है जहां पर गैर-बहुसंख्यावाद को प्रोत्साहन दिया जाता है। गांधी और टैगोर के लिए राष्ट्र-राज्य का अर्थ बुराइयों का केंद्रीकृत होते जाना है। जबकि गोडसे और मोदी के लिए राष्ट्र- राज्य ही ईश्वर और परम तत्व है। हालांकि अनंतमूर्ति सरदार पटेल और नेहरू में भी राष्ट्र- राज्य के अहंकार को पनपते हुए देखते हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि अगर राष्ट्र-राज्य और कारपोरेट के गठजोड़ से होने वाले अत्याचार, लूट और उससे पैदा होने वाले कट्टर राष्ट्रवाद का जवाब देना है तो गांधी के `हिंद स्वराज’ और टैगोर के `गोरा’ को ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए और उस पर चर्चा होनी चाहिए।
यह एक विडंबना है कि 1948 में जब गांधी के शरीर को तीन गोलियों से समाप्त किया गया तो उनकी हत्या करने वाले ने कहा था कि वे हिंदू धर्म को नष्ट कर रहे हैं, वे हिंदुस्तान को नष्ट कर रहे हैं। वे मुसलमानों के तुष्टीकरण की नीतियां चला रहे हैं। वे जानते हैं कि उनके अनशन से जिन्ना पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है इसलिए वे भारत सरकार और उसके नेताओं को झुकाने के लिए अनशन कर रहे हैं। इसलिए उन्हें भारत का राष्ट्रपिता कहने की बजाय पाकिस्तान का राष्ट्रपिता कहा जाना चाहिए। हत्या करने के बाद गोडसे ने अदालत में सुनवाई के दौरान जो बयान दिया था उसमें यह बातें थीं। गोडसे ने साफ शब्दों में कहा था कि वह सावरकर की विचारधारा से प्रभावित है।
लेकिन मुश्किल यह है कि शरीर से हत्या किए जाने के बाद गांधी के विचार आज भी जोर मार रहे हैं। इसलिए जरूरत उनके विचारों की हत्या करने की है और इसीलिए गांधी को कहीं कट्टर देशभक्त तो कहीं कट्टर हिंदू साबित करने की कोशिश की जा रही है। कहीं कहा जा रहा है कि गांधी की देशभक्ति तो धर्म से निकली थी और वह वैसा धर्म था जो हिंदुस्तान में ही पैदा होता है और धर्म को रिलीजन कहने वाले यूरोप के लोग उसे समझ नहीं सकते। लेकिन गांधी जिस तरह के हिंदू थे और जिस तरह के धार्मिक थे, वैसा हिंदू और वैसा धार्मिक नेता तो छोड़िए वैसा कार्यकर्ता जिस दिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पैदा करने लगेगा उस दिन वह दुनिया का सबसे ज्यादा सम्मानीय संगठन बन जाएगा और पूरा विश्व संयुक्त राष्ट्र की बजाय उसी की ओर उम्मीद के साथ देखेगा।
गांधी की धर्म की समझ तो उनकी प्रार्थना सभाओं में दिखाई पड़ती है जहां वे सभी धर्मों की प्रार्थना करते थे। यही कारण था कि विभाजन के समय उनकी प्रार्थना सभाओं पर सांप्रदायिक हिंदू और मुस्लिम दोनों समान रूप से आपत्ति करते थे। क्या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ उन प्रार्थनाओं को अपने आयोजनों में शामिल करने का साहस करेगा? गांधी से जब पूछा गया कि उन्होंने अहिंसा का दर्शन कहां से प्राप्त किया तो उनका कहना था कि उन्होंने बाइबल के `सरमन आन द माउंट’ के प्रसंग से इसे लिया। हालांकि कभी कभी वे गीता से भी अहिंसा का दर्शन प्राप्त करने की बात करते थे। उनके इस प्रसंग पर मशहूर पत्रकार और इतिहासकार विलियम शरर ने `लीड काइंडली द लाइट’ में विस्तार से लिखा है।
गांधी ने सत्याग्रह कहां से पाया इस बारे में अगर आप उनके द्वारा लिखी गई चर्चित पुस्तक दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि इसकी प्रेरणा उन्हें इस्लाम से मिली थी। जब नागरिकता संबंधी अंग्रेजी कानून के विरोध में वे लोग एक सभा कर रहे थे तो एक मुस्लिम भाई ने कहा कि वे अल्लाह के नाम पर अपनी जान दे देंगे। गांधी ने इस बात को पकड़ लिया और ईश्वर का नाम लेकर अपनी जान की बाजी लगाने का विचार बनाया। वहीं से सत्याग्रह का प्रयोग निकला और बाद में ईश्वर की जगह पर सत्य आ गया। यह जानना रोचक है कि गांधी के लिए रामराज्य का मतलब अयोध्या में मस्जिद गिराकर राम का मंदिर बनाकर उनके नाम पर नागरिक अधिकारों का दमन करना नहीं था। उनके लिए रामराज्य का मतलब टालस्ताय के `किंगडम आफ गाड’ से था, खलीफा के पवित्र शासन से था और रैदास के `बेगमपुरा’ की अवधारणा से था। वे इस मुहावरे का प्रयोग इसलिए करते थे क्योंकि इसे बहुत सारे लोग समझ लेते थे।(read complete article in Newsclick HINDI)
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