सावित्रीबाई फुले के जीवन की 10 मुख्य उपलब्धियां
सावित्रीबाई फुले के जीवन की 10 मुख्य उपलब्धियां इस प्रकार हैं –
गीता यादव
उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर 1848 में पुणे में लड़कियों का स्कूल खोला. इसे देश में लड़कियों का पहला स्कूल माना जाता है. उस समय तक लड़कियों के स्कूल नहीं होते थे. मिशनिरियों के स्कूल में लड़कियां भी कहीं-कहीं जाती थीं. लेकिन लड़कियों के अलग स्कूल नहीं होते थे.
अपने जीवन काल में फुले दंपति ने 18 स्कूल खोले. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने शिक्षा के क्षेत्र में फुले दंपति के योगदान को स्वीकार करते हुए उन्हें सम्मानित भी किया.
इस स्कूल में सावित्रीबाई फुले प्रधानाध्यापिका थीं. फातिमा शेख भी इस स्कूल में पढ़ाती थीं. ये स्कूल सभी जातियों की लड़कियों के लिए खुला था. दलित लड़कियों के लिए स्कूल जाने का ये पहला अवसर था.
जब सावित्रीबाई फुले स्कूल पढ़ाने जाती थीं तो पुणे की महिलाएं उन पर गोबर और पत्थर फेंकती थीं क्योंकि उन्हें लगता था कि लड़कियों को पढ़ाकर सावित्रीबाई धर्मविरुद्ध काम कर रही हैं. सावित्रीबाई अपने साथ एक जोड़ी कपड़ा साथ लेकर जाती थीं और स्कूल पहुंचकर पुराने कपड़े बदल लेती थीं.
सावित्रीबाई ने अपने घर का कुआं दलितों के लिए भी खोल दिया. उस दौर में यह बहुत बड़ी बात थी.
सावित्रीबाई ने गर्भवती विधवाओं के लिए एक आश्रयगृह खोला, जहां वे अपना बच्चा पैदा कर सकती थीं. ये उन पर था कि वे उन बच्चों को पाले या न पालें. उस समय तक खासकर ऊंची जातियों की विधवाओं का गर्भवती हो जाना बहुत बड़ा कलंक था और इसलिए वे अपना बच्चा अक्सर फेंक देती थीं. सावित्रीबाई फुले ने उन बच्चों के लालन-पालन की व्यवस्था की. ऐसा ही एक बच्चा यशवंत फुले परिवार का वारिस बना.
उस समय तक विधवा महिलाओं के सिर के बाल मुंड़ने की व्यवस्था थी. सावित्रीबाई ने इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई और नाई बिरादरी के लोगों को संगठित करके पुणे में इस मुद्दे पर उनकी हड़ताल कराई कि वे विधवाओं का मुंडन नहीं करेंगे.
अपने पति ज्योतिबा फुले, जो तब तक महात्मा फुले कहलाने लगे थे, की मृत्यु के बाद उनके संगठन सत्यशोधक समाज का काम सावित्रीफुले ने संभाल लिया और सामाजिक चेतना का काम करती रहीं.
जाति और पितृसत्ता से संघर्ष करते उनके कविता संग्रह छपे. उनकी कुल चार किताबें हैं.
पुणे में प्लेग फैला तो सावित्रीबाई फुले मरीजों की सेवा में जुट गईं. इसी दौरान उन्हें प्लेग हो गया और 1897 में उनकी मृत्य हो गई.
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