शिक्षा, शिक्षक, शिक्षार्थी का भंग होता अनुशासन!
आज शिक्षक दिवस है। आज के दिन कुछ अहम सवालों पर चर्चा जरूरी है। शिक्षा शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच भंग होते अनुशासन पर चिंता जाहिर कर रहे हैं दिल्ली पत्रकार संघ के कार्यकारिणी सदस्य *आशुतोष कुमार सिंह*
किसी भी राष्ट्र के निर्माण में वहां उपलब्ध ज्ञान शक्ति का अहम् योगदान होता है। ज्ञान की प्रचुरता उस राष्ट्र के विकास का एक महत्वपूर्ण मापदंड भी होता है। शिक्षक दिवस के मौके पर आशुतोष कुमार सिंह का विशेष लेख…
राजनीतिक विद्वानों ने संप्रभु राष्ट्र को राज्य की संज्ञा दी है। एक सुव्यवस्थित राज्य के निर्माण में चार तत्वों (निश्चित भू-भाग, जनसंख्या, संप्रभुता और सरकार) का होना जरूरी माना गया है। इन चार तत्वों में तीन तत्व निश्चित भू-भाग, संप्रभुता और सरकार इसके एक और सबसे महत्वपूर्ण तत्व जनसंख्या अर्थात् मानव के हितार्थ कार्य योजना के माध्यम मात्र हैं। जहां मानव साध्य है और ये तीनों तत्व साधन। मानव को मानवत्व प्राप्त करने के लिये अपने से इतर बाकी तत्वों की समुचित जानकारी रखना आवश्यक होता है। और इस जानकारी को प्राप्त करने के लिए शिक्षा ग्रहण करना अति आवश्यक है। शिक्षा ग्रहण करने के लिए ग्रहण करने योग्य शिक्षा की जरूरत होती है। ग्राह्य योग्य क्या है? यह बताने के लिए सुयोग्य शिक्षक की जरूरत पड़ती है। शिक्षक का सुयोग्य होना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी शिक्षार्थी को सुनने और गुनने वाला होना भी है।
जब इन तीनों शिक्षा-शिक्षक-शिक्षार्थी का संगम होता है तब राष्ट्र-निर्माण की दिशा में बढ़े पहले कदम का पहला अध्याय लिखा जाता है। शिक्षा प्राप्त करने के बाद शिक्षार्थी का ज्ञान चक्षु खुल जाता है। उसे देश-काल, परिस्थिति की समझ हो जाती है। समयानुसार उसमें सार्थक वह सही दिशा में निर्णय लेने की शक्ति आ जाती है। सही दिशा में निर्णय लेने की यही शक्ति किसी भी राष्ट्र को मजबूत से और मजबूत बना देता है।
वही दूसरी तरफ शिक्षा-शिक्षक-शिक्षार्थी का त्रय जब कमजोर पड़ने लगता है तब राज्य का जन संकट में घिर जाता है। ज्ञान का उत्पादन कम होने लगता है। अज्ञानियों की फौज जमा हो जाती है। कटुता का भाव चरम हो जाता है। अज्ञान के कारण ये आपस में मरने-कटने लगते हैं। व्यष्टि साध्य हो जाता है। समष्टि का भाव दब-सा जाता है। खुद के लिए सबकुछ करने की ललक जाग जाती है। सबके लिए कुछ भी नहीं होता। ऐसे में दूसरे राज्य की सत्ता राष्ट्र की संप्रभुता को नष्ट करने के लिए तैयार होने लगती हैं।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में दुर्भाग्यवश कुछ ऐसी ही स्थिति जगत् गुरु भारत ( दुनिया के बाकी देश भी इससे अछुते नहीं हैं ) में भी बनती हुई प्रतीत हो रही है। ज्ञान के भंडार पर विराज़मान भारत अपने ज्ञान की ढ़िबरी में छिद्र करना भूल गया है। भारतीय शिक्षार्थी रुपी बाती में वह शक्ति नहीं रह गई है कि वह ढिबरी में छिद्र कर खुद को उसमें
डाल ज्ञान ज्योत को विश्व क्षितिज पर फैला सकें। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि शिक्षा-शिक्षक-शिक्षार्थी का त्रयी अनुशासन लगभग भंग हो चुका है। न तो हमारी शिक्षा इतनी कारगर है कि शिक्षार्थी इसे ग्रहण कर मानवत्व को प्राप्त कर सकें और न ही शिक्षक वैसे बचे हैं जो यह बता सके कि क्या ग्रहण करने योग्य है? इसी तरह राष्ट्र के भविष्य निर्माण के कर्ता शिक्षार्थी भी वैसे नहीं है जिनमें सुनने और गुनने का धैर्य बचा हो। हमारे मनीषियों ने शिक्षार्थियों के पाँच लक्षण गिनाएं हैं-काग चेष्टा (कौए की तरह प्रयत्नशील), वको ध्यानम् (बगुले की तरह ध्यानरत्) , स्वान निद्रा (कुत्ते की नींद) , अल्पाहारी (कम भोजन करने वाला), गृहत्यागी (घर छोड़ने वाला)। लेकिन इन लक्षणों से युक्त शिक्षार्थियों को खोजना आज मुश्किल होता जा रहा है। साथ ही साथ गुरु ब्रम्हा गुरु विष्णु गुरु देव महेश्वरः, गुरु साक्षात् परमब्रम्ह, तस्मैय श्री गुरुवे नमः (अर्थात् गुरु ही सृष्टिकर्ता ब्रम्हा हैं, गुरु ही पालनहार विष्णु हैं, गुरु ही संघारकर्ता शिव हैं, इतना ही नहीं गुरु साक्षात् परम पिता परमेश्वर हैं, मैं उस गुरु को नमन करता हूं) का भाव भी विलुप्त-सा हो गया है।
यह स्थिति किसी भी राष्ट्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। शिक्षा-शिक्षक-शिक्षार्थी का अनुशान भंग होने में सामाजिक बिखराव एक बहुत बड़ा कारण है। समाज की प्रथम इकाई परिवार का समष्टी भाव खत्म होता जा रहा है। परिवार से दादा-दादी गायब होते जा रहे हैं। इसका कुपरिणाम यह हुआ है कि बच्चों में जो संस्कार अपने घर में मिल जाते थे वो संस्कार नहीं मिल पा रहे हैं। दादी द्वारा नैतिक शिक्षा वाली जो कहानी सुनने की मिलती थी उससे बच्चे दूर हो गए हैं। वहीं दूसरी तरफ शिक्षक के प्रति शिक्षार्थियों में श्रद्धा-भाव इसलिए उत्पन्न नहीं हो पा रहा है क्योंकि शिक्षा को एक वस्तु की तरह वे खरीदते हैं। विद्या दान की भावना शिक्षकों में नहीं रह गयी है। शिक्षा भी व्यवसाय हो गया है। वैसे भी जब कोई चीज बाजारू हो जाती है तो उसका महत्व खुद-ब-खुद कम हो जाता है। यही हाल शिक्षा के साथ हो रहा है। शिक्षा बाजार का बाजार के लिए और बाजार के द्वारा संचालित होने लगी हैं। ऐसे में शिक्षा-शिक्षक-शिक्षार्थी के त्रय को अनुशासनहीन होने से बचाना आसान नहीं रह गया है।
लगभग सूख चुकी इस त्रिवेणी में फिर से संस्कार का जल डाला जाये और लगभग खत्म हो चुकी गुरु-शिष्य परंपरा को फिर से पुनर्जीवित किया जाए। क्योंकि तभी जाकर कृष्ण और सुदामा जैसी मित्रता देखने को मिल सकेगी। तभी शिक्षा के नाम पर अमीर-गरीब का भाव खत्म हो सकेगा। सब पढेंगे, सब हँसेंगे। कुछ भी अपना नहीं होगा। कुछ भी सपना नहीं होगा। सबकुछ सबका होगा और सभी सबके होंगे। शायद इसी भाव को ध्यान में रखकर हाल ही में इलाहाबद न्यायालय ने सभी सरकारी कर्मचारियों के बच्चों को सरकारी विद्यालय में पढाने की वकालत की होगी।
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