बौद्धिक स्वच्छता अभियान से कौन डरा ?
राकेश सैन
दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई जाने वाली इन तीन पुस्तकों में प्रकाशित इन पंक्तियों की गहराई समझें, ‘बुद्ध के विचारों को अगर भारत मानता तो चीन, यूरोप से ज्यादा आगे होताÓ (पुस्तक-बुद्धा चैलेंज टू ब्राह्मनिज्म)। ‘श्रम करके जिंदगी गुजारने वाले लोगों के बीच जाति के आधार पर विवाद रहा। दलित, आदिवासी मजदूरी करते और ब्राह्मण-बनिया आराम की जिंदगी बिताते। ये बदलाव समाज में जरूरी हैÓ (पुस्तक -वाय आई एम नॉट हिंदू)। ‘आदिवासी से लेकर दलितों का उत्पादन करने का विज्ञान, जैसे नाई भारत में डॉक्टर की तरह रहे, मेडिकल प्रैक्टिस जैसी चीजें करते। कथित पिछड़ी जातियां उत्पादन में लगी रहीं। ब्राह्मण और बनिया ऐसे किसी काम में शामिल नहीं हुए। बस सिस्टम और धन अपने हाथ में लिए रहेÓ (पुस्तक -पोस्ट हिंदू इंडिया)। ऊपर से अकादमिक से लगने वाली यह बातें स्पष्ट रूप से हिंदू-बौद्ध और हिंदुओं के अंदर भी जातिगत आधार पर बिखराव पैदा करती दिखती हैं। इन तीनों पुस्तकों के लेखक हैं स्वयंभू दलित चिंतक कांचा इलैया, जो अपनी लेखनी के चलते अक्सर विवादों में रहते हैं और भारत विरोधी ताकतें उनकी पुस्तकों को आधार बना कर देश की छवि बिगाड़ती रही हैं। कांचा इलैया की इन तीन किताबों को दिल्ली विश्वविद्यालय में एमए राजनीतिक विज्ञान के पाठ्यक्रम से हटाया जा सकता है। दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टैंडिंग कमेटी ऑन अकैडमिक मैटर्स ने एक बैठक में ये सुझाव दिया है कि इन किताबों को रीडिंग लिस्ट से हटाया जाना चाहिए। इस कमेटी की सदस्य प्रोफेसर गीता भट्ट का कहना है कि आपत्ति की मुख्य वजह रिसर्च, आंकड़ों की कमी है। किताब की विषयवस्तु समाज को बांटने वाली अधिक है। ऐसी किताबों को अगर आप यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं तो वो सही नहीं है। इसमें कांचा इलैया का दृष्टिकोण अधिक है पर अकादमिक तौर पर किताबें कमजोर हैं। देश में पिछले कई सालों से अकादमिक स्तर पर ऐसा विषाक्त प्रचार-प्रसार होता रहा और विभाजनकारी राजनीति इसका समर्थन करती रही है जिससे भारतीय समाज में जातिगत आधार पर विभाजन की रेखा बरकरा रखी जा सके। अब देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है तो अभियानवादी शिक्षाविदों के पेट में मरोड़ शुरू हो चुका है। दिल्ली विश्वविद्यालय के इस प्रयास का विरोध होना शुरू हो चुका है। सवाल पैदा होता है कि देश में चल रहे बौद्धिक स्वच्छता अभियान से आखिर कौन डर रहा है ?
विरोध की पहली आवाज उठाई है खुद कांचा इलैया ने, उनका कहना है कि मेरी किताबें डीयू, जेएनयू और कई पश्चिमी देशों में लंबे समय से पढ़ाई जाती हैं। मैं अपनी किताबों में बीजेपी और आरएसएस की सोच को चुनौती देता हूं इसलिए ही ये सब किया जा रहा है। यानि संघ और भाजपा विरोध की वही कमजोर दलील दी जा रही है जो अकसर वामपंथी दिया करते हैं। कांचा इलैया की किताबों पर रोक लगाने के फैसले का कुछ अध्यापकों ने भी विरोध किया है। उन्होंने मांग की है कि स्टैंडिंग कमिटी में कांचा इलैया, शेपहर्ड और नंदिनी सुंदर की किताबों के कंटेंट पर लगे सवाल पर फिर चर्चा की जाए। एसी मेंबर और पॉलिटिकल साइंस टीचर डॉ नचिकेता सिंह ने कहा है कि स्टैंडिंग कमिटी की मीटिंग में मैंने इसका विरोध किया। अकैडमिक मामलों की इस स्टैंडिंग कमिटी को मेरिट के हिसाब से किताबों, रीडिंग पर फैसला लेना चाहिए। सिर्फ विवादस्पद टाइटल या टिप्पणियों की वजह से यह फैसला लेना गलत है। डॉ नचिकेता स्टैंडिंग कमिटी के मेंबर भी हैं और एसी में भी इस ऐतराज को नंवबर में रखा जाएगा।
इसके विपरीत विश्वविद्यालय की समिति के सदस्य प्रोफेसर हंसराज सुमन इन आरोप को नकारते हैं। उनका कहना है कि ये बदलाव पाठ्यक्रम की समीक्षा की वजह से हो रहा है। इसमें किसी तरह का कोई राजनीतिक दबाव नहीं है। ये पुस्तकें अब तक दिल्ली विश्वविद्यालय के एमए की रीडिंग लिस्ट में बताई जाती रही हैं लेकिन साल 2019 से शुरू होने वाले कोर्स के लिए सिलेबस की समीक्षा की जा रही है। ऐसी हर समीक्षा कमेटी करती है। कमेटी के सदस्यों के सुझावों को विभाग के पास भेजा जाता है। विभाग अगर इनसे असहमत होता है तो मामला दिल्ली यूनिवर्सिटी के एकेडमिक काउंसिल के पास जाता है। इस काउंसिल में करीब 20 सदस्य होते हैं। दोनों ही कमेटियों के सदस्य प्रोफेसर होते हैं। कांचा इलैया की किताबों पर आपत्ति भी इसी प्रक्रिया के तहत हुई है।
इलैया की लेखनी अत्यंत विवादित रही है। ‘वाय आई एम नॉट हिंदूÓ किताब में कांचा लिखते हैं- भगवा और तिलक मेरे लिए उत्पीडऩ की तरह हैं, हिंदुवादी ताकतें मुस्लिम और इसाइयों से नफरत करती हैं। कांचा लिखते हैं कि 1990 के दौर से हमारे कानों ने रोज हिंदुत्व सुनना शुरू किया, जैसे भारत में कोई मुस्लिम, सिख, ईसाई नहीं…बस हिंदू हैं। मुझसे अचानक कहा गया कि मैं हिंदू हूं। सरकार भी इस मुहिम का हिस्सा हो गई। संघ परिवार हर रोज़ हमें हिंदू कहकर उत्पीडऩ करती है। यानि कांचा की समस्या का मूल हिंदुत्व व हिंदू समाज है। मूलत: हैदराबाद के लेखक और कथित दलित चिंतक ‘सामाजिका स्मगलर्लु कोमाटोल्लुÓ के कारण भी विवादों में आए थे। इस किताब में दावा किया गया है कि आर्य वैश्य समुदाय मांस खाता था और ये किसान हुआ करते थे। बाद में वे शाकाहारी हो गए। आर्य वैश्य संगठनों की आपत्ती थी कि किताब के शीर्षक का मतलब है, ‘कोमाटोल्लु सामाजिक तस्कर होता हैÓ, जो कि उनकी प्रतिष्ठा के खिलाफ है।
प्रगतिशीलता व धर्मनिरपेक्षता के नाम पर देश में जिस तरह की बौद्धिकता को प्रोत्साहन दिया जाता रहा है उसकी लंबी फेरहिस्त है। बहुसंख्यक आस्था को नीचा दिखाना, मीन मेख निकालना, अल्पसंख्यकों की सामाजिक व धार्मिक कुरीतियों का या तो महिमामंडन या फिर अनदेखी, हिंदू समाज में जातिगत बिखराव को प्रोत्साहन आदि आदि इसी प्रगतिशीलता के मुख्य गुण रहे हैं। इसी तरह के लेखन व चिंतन को सोची समझी साजिश के चलते अकादमिक व शिक्षण पाठ्यक्रमों में शामिल किया गया। रोमिला थापर, इरफान हबीब जैसे असंख्य अभियानवादी षड्यंत्रकारियों को इतिहासकार व विद्वान के रूप में स्थापित किया गया और दुनिया इन्हीं की नजरों से भारत को देखती रही। कांचा इलैया भी इसी कुटुंब की संतान मानी जाती है। आज जब प्रगतिशील बुद्धिमता की प्याज की भांति परतें उधड़ चुकी हैं तो कांचा इलैया जैसे संदिग्ध लेखकों के वैचारिक विषाणुओं वंशानुगत रोग के रूप में ढोना कोई जरूरी नहीं है। देश में स्वच्छता अभियान जोरों पर है और इसका विस्तार बौद्धिक धरातल पर भी होना समय की आवश्यकता है। अगर किसी को स्वच्छता से एलर्जी है या पेट दुखता है तो यह उसकी समस्या हो सकती है समाज की नहीं।
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