वोट के खातिर दम तोड़ती प्रतिभाएं
संदर्भ : बिहार में शिक्षकों की योग्यता और शिक्षा की बदहाली
अखिलेश कुमार
1835 के विलियम एडम रिपोर्ट में इस बात का प्रमुखता से उल्लेख किया गया था कि उन दिनों बिहार-बंगाल में प्रत्एक गांव में काफी संख्या में ना केवल ग्रामीण विद्यालय थे बल्कि पढ़ाई की रुप-रेखा बेहतर थी लेकिन आजादी के बाद बिहार में शैक्षणिक स्तर में गिरावट होती चली गई, उसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रत्एक साल लाखों की संख्या में छात्र-छात्राएं बिहार से पलायन करते हैं, और दिल्ली, मुबंई और कोटा तक पहुंचने के बाद भी उनके सामने एक अंधेरा सा रहता है। दरअसल मैच्चोर होते हुए भी वो ना तो ठीक से अपनी भाषा हिन्दी और ना ही अंग्रेजी बोल पाते हैं। जेएनयू की पब्लिक मीटिंग हो या दिल्ली यूनिवर्सिटी के स्टीफंस और श्रीराम कॉलेज का वह मोड़ जहां वो दिस-दैट के सहारे कल्चरल शॉक के शिकार हो जाते हैं।
सवाल है कि वोट के खातिर प्रतिभा का गला घोंटना नीतीश सरकार को फिर से सत्ता वापसी करने में भले सहायक साबित हो लेकिन बिहार के सुदूर गांवों में तीसरी कक्षा की अंग्रेजी की किताबों को महज बोलकर पढ़ाने में शिक्षक नाकाबिल साबित हो रहे हैं बल्कि दूसरे पेशे में रम चुके व्यवसाई, दुकानदार, सिलाई और बुटिक सेंटर चलाने वाली महिलाएं स्थाई शिक्षक बनकर अब बच्चों की प्रतिभा का गला घोंटने के लिए उतारु हैं। गंभीर सवाल ठेके या स्थाई शिक्षक होने की बात नहीं है बल्कि शैक्षणिक व्यवस्था के साथ न्याय करने वाली शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हो पाई। इस बात का प्रवाह लाचार अभिभावकों को नहीं सताना वाजिब है लेकिन तथाकथित उभर रहे सिविल सोसाइटी का गंभीर मसले पर नहीं बोलना सवाल खड़ा करता है। दरअसल चुनाव की रेलमपेल घुड़दौर में ठेके पर रखे गए शिक्षकों ने आंदोलन कर अपनी जिद्द को मनवाने में चालाक तो साबित हो गए हैं। जबकि सच्चाई ए है कि बिहार में आर्थिक रुप से विपन्न लाखों बच्चों की प्रतिभा की दमन की स्क्रीप्ट दूसरी अध्याय लिखी गई है। दरअसल 4 अप्रैल 2015 को एक खबर के हवाले से कहा गया था कि बिहार में लगभग तीन हजार संविदा शिक्षक एक बार फिर से कंपिटेंसी टेस्ट में फेल हो चुके हैं। हाई कोर्ट ने लगातार दो बार फेल हुए शिक्षकों को हफ्ते भर के अंदर हटाने का आदेश दिया। जरा गौर कीजिए जो शिक्षक लगातार दो बार में भी कंपीटैंसी परीक्षा ना पास कर पाए वो भला लाखों छात्रों के साथ न्याय कैसे कर पाएगा। सोशल इंजीनीयरींग के पैरोकार नीतीश सरकार सबकुछ जानते हुए वोट की खातिर बिहार की अमृत प्रतिभा का गला घोंटने पर उतरु हो चुकी है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि बिहार में सालों से शैक्षणिक गतिविधि कोमा में गुमसुम रहा है लेकिन नीतीश सरकार ने सत्ता संभालने के कुछ ही समय बाद साल 2006 में प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों के लिए शिक्षा मित्र के रुप में दो लाख से अधिक शिक्षकों की नियुक्ति किया था जबकि ए लोग शिक्षा के दुश्मन साबित हो रहे हैं। इस पूरे प्रक्रिया में लिखित या मौखिक परीक्षा लिए बिना सिर्फ इंटर पास मार्कशीट के अंकों के आधार पर उम्मीदवारों का चयन, अंधेर नगरी चौपट राजा, टके शेर भाजा, टके शेर खाजा की तरह हुआ था। गंभीर आलोचनाओं की डर से नव-नियुक्त शिक्षकों की दक्षता जांचने के लिए परीक्षा आयोजित करने का फैसला किया गया था। अक्तूबर 2009 फिर साल 2013 में 10,000 से ज्यादा संविदा शिक्षक दक्षता परीक्षा में फेल हो गए थे। जरा सोचिए क्या ए शिक्षक समाज के गरीब तबके के बच्चों के साथ न्याय कर पाएंगे।
उल्लेखनीय है कि नेशनल यूनिवर्सिटी आॅफ एजुकेशन प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन की रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार के प्राइमरी और अपर प्राइमरी स्कूलों में पढ़ानेवाले आधा से ज्यादा टीचर ट्रेंड नहीं हैं। अब जरा गौर कीजिए पास करने लायक 30 फीसद अंक भी नहीं ला पाने वालों को शिक्षक बना देने का जिÞम्मेवार कौन है? शिक्षा समाज की रीढ़ होती है लेकिन ठेके पर रखे गए शिक्षक इस रीढ़ को तोड़कर बार-बार प्लास्टर की बात कर रहे हैं जिससे लाखों प्रतिभाओं की सर्जरी स्कूलिंग में ही हो जाती है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक दस में करीब छह शिक्षक पेशेवर तौर पर पढ़ाने के काबिल नहीं हैं। राज्य में प्राइमरी, अपर प्राइमरी सहित अन्य सभी तरह के स्कूलों में शिक्षकों की तादाद 4 लाख 20 हजार 912 है। इनमें से केवल एक लाख 81 हजार 413 शिक्षक ही पढ़ाने की काबिलियत रखते हैं। दुसरी तरफ 2011 में अमर्त्य सेन की गैर सरकारी संस्था प्रतीचि (इंडिया) ट्रस्ट और पटना की संस्था ‘आद्री ‘ ने संयुक्त रूप से राज्य के पांच जिÞलों में कुल तीस गांवों के सर्वेक्षण में बिहार के कुपोषित गौरवशाली शैक्षणिक अतीत की पिछड़ापन को रखांकित किया था।
उल्लेखनीय है कि जननायक कपूर्री ठाकुर ने जीवन के अंतिम समय में 23 दिसंबर 1987 को पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में महारैली में कहा था कि बिहार में जब मेरी सरकार बनेगी तो सूर्य के प्रकाश की तरह शिक्षा देने का काम मुफ्त में किया जाएगा। महामाया प्रसाद की सरकार में जब कपूर्री ठाकुर शिक्षामंत्री बने थो तो उन्होंने सबके लिए दसवीं तक की शिक्षा मुफ्त कर दी। लेकिन उन्होंने अंग्रेजी में पास करने की अनिवार्यता ही समाप्त कर दिया। इसका फायदा जितना भी मिला हो, लेकिन इसका श्राप इतना असरकारी हुआ कि बिहार के लाखों छात्र पलायन कर दिल्ली, मुंबई और अन्य महानगरों में धूल फांक रहे हैं इसके बावजूद कि उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ है। गौरतलब है कि शिक्षा के घोर राजनीतिकरण से प्रदेश के गरीब परिवार के बच्चे ही धूल फांकेंगे, शिक्षकगण अपनी कमाई कर अपने बच्चों को आलीशान स्कूलों में पढ़वाएंगे और गरीबों के बच्चों के प्रतिभा का गला घोटेंगे। अगर समय रहते लोग इनके विरुद्ध आवाज नहीं उठाया गया तो आने वाला समय हम सभी को माफ नहीं करेगा। कथा और भी हैं लेकिन हरि अनंत हरि कथा अनंता के इस एपीसोड में फिलहाल इतना ही। ।
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