अंग्रेजी की तरह उदार नहीं हिंदी

प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह,

अंग्रेजी में मूल शब्द दस हजार हैं और आज साढ़े सात लाख पहुंच गए हैं, यानी कि सात लाख चालीस हजार शब्द बाहर से आए. इसका पता हम लोगों को नहीं है. जैसे अलमिरा को हम लोग मान लेते हैं कि ये अंग्रेजी भाषा का शब्द है, लेकिन वह पुर्तगाली भाषा का शब्द है.

इसी तरह रिक्शॉ को हम मान लेते हैं कि अंग्रेजी का है, लेकिन वह जापानी भाषा का है. चॉकलेट को हम मान लेते हैं कि ये अंग्रेजी भाषा का शब्द है, लेकिन वह मैक्सिकन भाषा का है. बीफ को मान लेते हैं कि अंग्रेजी का है, लेकिन वह फ्रेंच भाषा का है. अंग्रेजी ने बहुत सी भाषाओं के शब्दों को लेकर अंग्रेजी से अपने को समृद्ध किया और संसार की सबसे समृद्ध भाषाओं में से एक है.

 

अब हिंदी को लीजिए. हिंदी की जो पहली डिक्शनरी है उसकी शब्द संख्या थी बीस हजार. अंग्रेजी का सीधा दो गुना. ये आई थी 1800 ईस्वी के कुछ बाद. पहली डिक्शनरी मानी जाती है पादरी आदम की और दूसरी श्रीधर की.

 

आज हिंदी डिक्शनरी में शब्दों की संख्या क्या है? डेढ़ लाख से दो लाख अधिकतम. शब्दों की संख्या नहीं बढ़ रही है हिंदी में. इसके कारण हैं. हम लोग उतने उदार नहीं हैं. हमारी भाषा में वही छुआछूत की बीमारी है जो हमारे समाज में है.

 

लोक बोलियों के शब्दों को हम लेते नहीं हैं. कह देते हैं कि ये गंवारू शब्द हैं. कोई बोल देगा कि तुमको लौकता नहीं है? तो कहेंगे कि कैसा प्रोफेसर है! कहता है तुमको लौकता नहीं है. इसी लौकना शब्द से कितना बढ़िया शब्द चलता है हिंदी में, परिमार्जित हिंदी में, छायावादी कवियों ने प्रयोग किया-अवलोकन, विलोकन. उसमें लौकना ही तो है.

कितनी मर्यादा और उंचाई है इन शब्दों में. उसी को आम आदमी बोल देता है कि तुमको लौकता नहीं है? लौकना और देखना में सूक्ष्म अंतर है. भोजपुरी क्षेत्र में महिलाएं कहती हैं कि हमारे सिर में ढील (जुआं) हेर दीजिए. वे देखना शब्द का प्रयोग नहीं कर रही हैं. काले बाल में काला ढील आसानी से दिखाई नहीं देता, इसलिए वे कहतीं हैं कि ढील हेर दीजिए. कितना तकनीकी शब्द का इस्तेमाल है यह. मतलब गौर से देखिएगा तब वह छोटा-सा ढील दिखाई देखा.

इस तरह आप देखिए कि लोक बोलियों के शब्दों को लेने से हम लोग परहेज कर रहे हैं. विदेशी भाषा के शब्द लेने से आपकी भाषा का धर्म भ्रष्ट हो रहा है. क्रिकेट का हिंदी बताओ, बैंक का हिंदी बताओ, टिकट की हिंदी बताओ. टिकट का हिंदी खोजते-खोजते गाड़ी ही छूट जाएगी. यह छुआछूत का देश है.

 

इसीलिए हम विदेशी शब्द नहीं लेते कि यह तो विदेशी नस्ल का शब्द है, इसे कैसे लेंगे? यही कारण है कि हिंदी का विकास नहीं हो रहा है. अंग्रेजी बढ़ रही है लेकन हिंदी का विकास वैसा नहीं हो रहा है. हिंदी को छुआछूत की बीमारी है.

 

हिंदी में शब्दों की संख्या की कमी नहीं हैं. पहले हमारे यहां हिंदी की 18 बोलियां मानी जाती थीं. अब 49 मानी जाती हैं. हिंदी भारत के दस प्रांतों में बोली जाती है. इन दस प्रांतों की 49 बोलियों में बहुत ही समृद्ध शब्द भंडार है. हर चीज को व्यक्त करने के लिए शब्द हैं, लेकिन उसको अपनाने के लिए हम लोगों को परेशानी है.

 

हम भूसा शब्द का इस्तेमाल करते हैं. हिंदी शब्दकोश में भूसा मिलेगा, लेकिन पांवटा नहीं मिलेगा. जबकि भूसा और पांवटा में अंतर है. भूसा सिर्फ गेहूं का हो सकता है, लेकिन पांवटा धान का होता है. अवधी में इसे पैरा कहते हैं. दोनों एक ही चीज है. पांवटा पांव से है और पैरा पैर से.

दरअसल, हो क्या रहा है कि किसानों के शब्द हमारी डिक्शनरी में बहुत कम हैं. हमारे यहां राष्ट्र भाषा परिषद से दो खंडों में किसानों की शब्दावली छपी हुई है. उसमें कृषक समाज से जुड़े सभी शब्दों को शामिल किया गया है. लेकिन किसानों के शब्द, मजदूरों के शब्द, आम जनता के शब्द हमारी भाषा और शब्दकोश से आज भी गायब हैं. इसलिए गायब हैं कि हम मान लेते हैं कि ये ग्रामीण, गवांरू शब्द हैं.

 

हमारा देश धर्मप्रधान देश है. हमारी डिक्शनरी पर भी देवी देवताओं का वर्चस्व है. गाजियाबाद के एक अरविंद कुमार हैं, कोशकार हैं. उनपर खुशवंत सिंह ने एक टिप्पणी लिखी थी. उनकी एक डिक्शनरी है शब्देश्वरी. उसमें केवल शंकर भगवान के नामों की संख्या तीन हजार चार सौ ग्यारह है. विष्णु के एक हजार छह सौ छिहत्तर. काली के नौ सौ नाम हैं. दस देवी देवता दस हजार शब्दों पर कब्जा करके बैठे हुए हैं. लेकिन किसानों, मजदूरों और आम जनता के शब्द गायब हैं. ये आपको जोड़ना पड़ेगा.

(प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह, भाषा वैज्ञानिक, के एक लेख से)

 






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