दुनिया में हर व्यक्ति के जन्म की भाषा केवल हिन्दी !

 डा. श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट

भले ही कुछ लोग अंग्रेजी को दुनिया का पासपोर्ट बताते हो और भारत में अंग्रेजी की खुलकर पैरवी करते हो। लेकिन सच यही है कि हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाओं को बोनी भाषा बताकर अंग्रेजी की पैरवी करना बेहद शर्मनाक है। यह कुछ लोगो की अंग्रेजियत भरी सोच हो सकती है जिसका भारतीयता से कोई नाता नही है। ऐसे लोग या तो हिन्दी अच्छी तरह से जानते नही या फिर उन पर अंग्रेजी इस कदर सवार है कि उन्हे अंग्रेजी के सिवाए कोई दुसरी भाशा दिखाई ही नही देती । देश की भाषा यानि संवाद का माध्यम आम भारतीयों का अंग्रेजी नही बल्कि अपनी भारतीय भाषाएं है जिनके प्रति पूरा देश गर्व करता है। हिन्दी सिर्फ भारत की नही अपितु संसार भर की भाषा है। पिछले दिनों एक सांसद  ने संसद में एक विधेयक प्रस्तुत कर देश का नाम भारत या हिन्दुस्तान रखने और इण्डिया नाम समाप्त करने की मांग की थी। इनका सांसद  तर्क है कि इण्डिया शब्द से अंग्रेजी की बू आती है जो हिन्दी के भारत के लिए उचित नही है। उज्जैन मौनतीर्थ धाम  के महामण्डलेश्वर सुमन भाई ने तो राश्टृपति  को पत्र लिखकर पूछा था कि हमारे देश का वास्तविक नाम क्या है? यानि हिन्दुस्तान है या भारत या इण्डिया अथवा कुछ ओर? भारतीय संविधान में भी देश को इण्डिया देट इज भारत रूप में परिभाषित किया गया है। भारत को छोडकर दुनिया में कोई भी दूसरा ऐसा देश नही होगा जिसके नाम को परिभाषित करने की जरूरत पडती हो।चूंकि भारत शब्द शकुन्तला पुत्र भरत से आया है जो हमारी भारतीय विरासत की पहचान है इसलिए देश का नाम भारत मात्र ही होना चाहिए और अपने देश को किसी भी रूप में परिभाषित करने की आवष्यकता नही है। यही हिन्दी है हम वतन है ,की पहचान भी भारत की है। ऐसा करना हिन्दी के प्रति सम्मान भी है। भारत के ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुडे स्कूलों में बीस साल पहले तक प्राइमरी शिक्षा से अंग्रेजी नदारद थी। यानि बच्चे को उसकी मातृ भाषा में ही अक्षर ज्ञान कराकर पांचवी तक पढाई कराई जाती थी और कक्षा 6 से अंग्रेजी का अक्षर ज्ञान कराया जाता था। परन्तु समय के साथ आए बदलाव से अ,आ,इ,ई व क,ख,ग तथा 1, 2, 3, 4 सीखाने से पहले अब ए बी सी डी और वन टू थ्री सीखाया जाने लगा है। हिन्दी की अंक माला तो जैसे इतिहास ही बन गई है। आज हिन्दी भाषाई भी हिन्दी अंको के बजाए अंग्रेजी अंको को अपनाने लगे है। जो गम्भीर चिन्ता का विषय है। जब हम हिन्दी में लिखते है तो अंको को अंग्रेजी में लिखने की क्या मजबूरी है। हिन्दी अंक न सिर्फ सहज है बल्कि लिखने और दिखने में भी सुन्दर लगते है। इसलिए हिन्दी अंकमाला को मरने से बचाना चाहिए ,तभी हिन्दी पूर्ण रूप से सुरक्षित कही जा सकेगी।
अंग्रेजी सीखना और उसमें विद्वता प्राप्त करना बुरी बात नही है, लेकिन हिन्दी की कीमत पर यानि हिन्दी को दांव पर लगाकर अगर अंग्रेजियत सिर चढकर बोलती है तो यह भारत के लिए भाषाई खतरे का संकेत है। जब किसी शिशु का जन्म होता है,तो उसके रूदन में हिन्दी के स्वर व्यंजन गूंजते है। ये स्वर व व्यंजन केवल हिन्दुस्तान में ही नही,अपितु दुनियाभर में गूंजते है क्योकि शिशुओं के रूदन की भाषा एक है। इस रूदन में अंग्रेजी, जर्मनी, फ्रेंच ,जापानी भाषा कही दिखाई नही पड़ती। जबकि हिन्दी भाषा के स्वर व व्यंजन का समावेश हर नवजात शिशु के रोने पर सुनाई पडता है। जिससे कहा जा सकता है कि हिन्दी पूरी दुनिया की प्राकृतिक भाषा है।
दुनिया भर के शिशुओं की भावाभिव्यक्ति रूदन भाषा का एक होना, उसका हिन्दीमय होना, यह प्रमाणित करता है कि हिन्दी हर भाषा के मूल में है अर्थात हिन्दी ही सब भाषाओं की जननी है। लेकिन फिर भी गैर हिन्दी भाषी क्षेत्रो के साथ-साथ हिन्दी भाषी क्षेत्र में भी हिन्दी उपेक्षित क्यो है। जबकि आज भी ऐसे अनेक प्रौढ़ है जिन्होने अंग्रेजी की ए, बी, सी, डी का ज्ञान प्राप्त करना कक्षा 6 से शुरू किया था। उस जमाने में सरकारी प्राइमरी स्कूलो में पढे़ लोग अंग्रेजी में पारंगत तो हो सकते है लेकिन पहला अक्षर ज्ञान हिन्दी का मिलने के कारण उनके दिलोदिमाग पर हिन्दी ही राज करती है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि आज के अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में जो बच्चे हिन्दी भाषी पढ़ रहे है, उनकी हिन्दी बदहाल  है। कई ऐसे बच्चे भी है जो हिन्दी में अनु़त्र्तीण तक हो रहे हैजिनकी पृष्ठभूमि में हिन्दी समाहित है। ऐसा होना गम्भीर चिन्ता का विषय है। हिन्दी के पिछड़ने का कारण हिन्दी के अज्ञानियो द्वारा अंग्रेजी का लबादा ओढ़कर स्वयं को श्रेष्ठ प्रदर्शित करने से भी है। हांलाकि ऐसे लोगो को न हिन्दी आती है और न ही  अंग्रेजी। अंग्रेजी को हिन्दी में मिलाकर काॅकटेल भाषा के नाम पर हिन्दी और अंग्रेजी दोनो की भदद् पीटने वालो ने दोनो भाषाओं को क्षति पहॅुचाने का काम किया है। ऐसे लोग हिन्दी दिवस भी हिन्दी डे के रूप में मनाते है। हिन्दी के नाम पर सरकारी बजट ठिकाने लगाने से हिन्दी बलवती होने वाली नहीं है। हिन्दी को समृद्व करने के लिए सरकार और जनता दोनो को इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। प्रतिवर्ष सितम्बर माह में हिन्दी माह, हिन्दी पखवाड़ा, हिन्दी सप्ताह और हिन्दी दिवस मनाने से हिन्दी मजबूत होने वाली नहीं है । मात्र हिन्दी के विशेष अवसरो या हिन्दी अपनाने और बाकी दिनो में अंग्रेजियत का लबादा ओढ़ते रहने से कैसे हिन्दी जिन्दा रह पाएगी। देश की रूड़की स्थित आई आई टी ने तो हिन्दी भाषा का जिम्मा ही अंग्रेजी के प्रोफेसर को सौंपा हुआ है। इससे बड़ा भददा मजाक हिन्दी के साथ और क्या हो सकता है। यह भी सच है कि हिन्दी अपनाने वालो को अपने ही हिन्दी भाषी देश में दोयम दर्जे का माना जाने लगा है। हिन्दी फिल्मों के नाम पर पेट भरने वाले फिल्मकार जब पर्दे से बाहर हिन्दी छोड़कर अंग्रेजी में बात करते है तो शर्म आने लगती है। लोगो को जान लेना चाहिए हिन्दी किसी भी दृष्टि से कमजोर भाषा नही है। वह ऐसी भाषा है जिसे बौध धर्म ने संसार भर में अपने अनुयायीयो के माध्यम से फैलाया। भगवान महावीर ने तो ढाई हजार साल पहले वनस्पति में जीवन का रहस्य हिन्दी में ही प्रकट किया था। सर्वाधिक अक्षरों की भाषा हिन्दी हर दिल पर राज करे इसके लिए राजनेताओ को भी इच्छाशक्ति जागृत करनी होनी।उन्हे वोट मांगने के लिए हिन्दी और संसद में जाकर अंग्रेजी का लबादा ओढने की प्रवति से बचना होगा। ऐसे नेताओ को ससंद में भी हिन्दी अपनाकर यह संदेश देना होगा कि हिन्दी हमारी मातृ भाषा ही नही देश की राष्ट्रभाषा भी है। देश की जनता चाहती है कि नेता जिस भाषा का प्रयोग वोट मांगते समय करते है उसी भाषा का प्रयोग उन्हे ससंद में भी करना चाहिए तभी सही मायनो में वे अपने क्षेत्र की सही आवाज से ससंद को रूबरू करा सकते है।  देश की संसद से लेकर पंचायत और चोपाल तक हिन्दी सिर चढकर बोल सके। इसके लिए सरकार और जनता दोनो को आगे आना होगा। जिस तरह से हिन्दी सिनेमा के कलाकारो को हिन्दी फिल्मों में काम करने के लिए हिन्दी सीखनी पडती है उसी तरह देश के नेताओ के लिए भी ससंद व विधान सभा पहुंचने लिए हिन्दी अनिवार्य करनी होगी। तभी हिन्दी हिन्दुस्तान का नारा सार्थक माना जाएगा और हिन्दी अपने पैरो पर खडे होकर देश में गौरव पूर्ण स्थान प्राप्त कर सकेगी और तभी  गैरजिम्मेदार नेताओ के स्वछंन्दतापूर्ण हिन्दी विरोधी ब्यानो पर अंकुश लग सकेगा।आवश्यकता तो उच्चतम न्यायालयों से भी अंग्रेजी का प्रभुत्व समाप्त किये जाने की है। जिस देश में न्याय के लिए दूसरी भाषा का सहारा लेना पडे इससे बडी शर्म की बात ओर क्या हो सकती है। हिन्दी चूंकि हमारे जन्म की भाषा है और जन जन की भाषा है इस लिए अपने देश में हिन्दी सिर चढकर बोली जानी चाहिए।

डा.श्रीगोपालनारसन एडवोकेट






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