छोटी-छोटी उपलब्धियों को सहेज कर बड़े बने लालू
छोटी-छोटी उपलब्धियों को सहेज कर बड़े बने लालू
गोपालगंज से रायसीना-1
———- वीरेंद्र यादव —————
पिछले दिनों दो साथियों ने दो पुस्तकें दी थीं पढ़ने के लिए। अरुण नारायण ने लालू यादव की आत्मकथा ‘गोपालगंज से रायसीना’ दी थी, जबकि नवल किशोर ने ‘बिहार की चुनावी राजनीति’ भेजी थी। पहली पुस्तक में लालू यादव की राजनीतिक यात्रा उनके ही शब्दों में लिखी गयी है तो दूसरी पुस्तक में बिहार की राजनीति के ‘लालू युग’ का आंकड़ों में अध्ययन किया गया है। इस पुस्तक में 1990 से 2017 तक के राजनीतिक उतार-चढ़ाव का अध्ययन है और केंद्र में लालू यादव ही हैं।
हम बात कर रहे हैं ‘गोपालगंज से रायसीना’ की। 235 पन्ने की इस पुस्तक में करीब 75 पन्ने पढ़े हैं। अभी दो-तिहाई पढ़ना बाकी है। पुस्तक की भाषा काफी सहज है। अभी तक लालू यादव के अभावपूर्ण जिदंगी से आगे निकलते हुए अण्णे मार्ग यानी मुख्यमंत्री आवास तक पहुंचने की यात्रा पूरी हो गयी है। लालू यादव ने बड़ी सहजता के साथ अपनी बातों को रखा है। परिस्थितियों को ढकने का कहीं कोई प्रयास नहीं दिखता है। लालू यादव जब अपने पैतृक गांव फुलवरिया में चरवाही की स्थिति चर्चा करते हैं तो पढ़ते हुए हम अपने चरवाही के दौर में पहुंच जाते हैं। जेठ की दोपहरिया में भैंस को उजाड़ खेतों में हांक कर पेड़ के नीचे सो जाना या फिर डोल-पता जैसे खेलों को में जुट जाना। लालू यादव की यह शैली अलग-अगल घटनाक्रम के साथ पाठकों को जोड़ने में भी सक्षम है।
लालू यादव ने फुलवरिया से लेकर पटना तक की यात्रा में ऐसी कई घटनाओं का चर्चा की है, जिसमें वह घटना को इंटरकनेक्ट करते हैं और पहली घटना के आधार पर अगली घटना की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। वे मानते हैं कि उनकी संवाद शैली और बातों को रखने का अंदाज सभी लोगों को पसंद था और इसका कई बार उन्हें लाभ भी मिला। मिलर स्कूल में नामांकन में उनकी यह शैली ही काम आयी। रेडियो नाटक ‘लोहा सिंह’ का डायलॉग के लिए वे चर्चित हो गये थे और युवाओं में लोकप्रियता का वह बड़ा आधार था।
वे कहते हैं कि बीएन कॉलेज में नामांकन के बाद उनके सामने नयी परिस्थिति आयी। वहां अगड़ी जाति के साधन-संपन्न परिवार के अनेक छात्र आते थे। हालांकि पिछड़ी व दलित जातियों के भी छात्र काफी संख्या में थे। कॉलेज में अपनी अलग पहचान के लिए एक दिन उन्होंने कॉलेज की दीवार पर खड़े होकर छात्रों की समस्याओं को लेकर भाषण देने लगे। संवाद को डिलेवर करने की उनकी शैली जबरदस्त थी। भाषण को सुनने के लिए कुछ छात्र जमा हुए। इसके बाद लगातार छात्रों की समस्याओं को लेकर आंदोलन करने लगे। इसके साथ उनकी धाक जमती गयी और लोकप्रिय भी होते गये। इसी लोकप्रियता और जुझारूपन के कारण वे पहले पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के महासचिव बने और अगले साल अध्यक्ष निर्वाचित हुए।
लालू यादव ने घटनाओं की व्याख्या में अपनी भावनाओं को भी उड़ेला है। संभावनाओं को यथार्थ में बदलने की रणनीति पर खूब चर्चा की है और इसके लिए होने वाले जोड़-तोड़ को भी स्वीकार किया है। मुख्यमंत्री के रूप में अपनी कार्यशैली को आम लोगों के लिए सहज बनाया। वे कहते हैं कि उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद बिहार की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था बदल गयी थी। सामंती व्यवस्था के तंग व त्रस्त लोग राहत महसूस कर रहे थे और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रहे थे। इन वर्गों में नया आत्मविश्वास पैदा हुआ था। मंडल आयोग के संदर्भ में उन्होंने कहा कि इसकी सिफारिशों को लागू करने से पिछड़ी जातियों को सरकारी सेवाओं में रोजगार के व्यापक अवसर मिले। उच्च पदों पर इन जातियों के लोग आने लगे थे। इसके बावजूद इन वर्गों के आइएएस और आइपीएस अफसरों की कमी थी। लेकिन जो भी पदाधिकारी थे, उन्हें ही वंचित वर्गों को सम्मान देने और उनकी बातों को सुनने की हिदायत दी। इसका सकारात्मक असर पूरी व्यवस्था पर पड़ा।
इस पुस्तक में लालू यादव ने अपनी राजनीतिक हैसियत, कद और नीतिगत मामलों में बढ़ते हस्तक्षेप को स्वीकार किया है। पहले छात्र नेता, फिर सांसद और इसके बाद विधायक बनना उनकी राजनीतिक हैसियत का क्रमिक विकास था। कर्पूरी ठाकुर के देहांत के बाद नेता प्रतिपक्ष बनना और फिर सांसद बनना उसी कड़ी का हिस्सा था। इसके बाद 1990 में सांसद होते हुए मुख्यमंत्री की जिम्मेवारी संभालना ‘मील का पत्थर’ साबित हुआ। वे कहते हैं कि अपनी सत्ता का इस्तेमाल बराबर सदियों से उपेक्षित और वंचित समाज के सशक्तीकरण के लिए किया। इसमें आने वाली जड़ता को भी ध्वस्त किया और सामाजिक न्याय के मार्ग का प्रशस्त किया। (जारी) https://www.facebook.com/kumarbypatna
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