हिंदी की स्थिति को जानिए अतीत के आइने से

सेठ गोविन्ददास (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के नवम वार्षिकोत्सव (1960-62 )में सभापति-पद से सेठ गोविन्ददास का व्याख्यान)
सर्वप्रथम मेरा यह कर्त्तव्य है कि प्राचीन और वर्त्तमान बिहार की पुण्यभूमि को नमन करूँ, जिस भूमि पर महाराजा विदेह, जगज्जननी महारानी सीता, तीर्थंकर महावीर स्वामी, भगवान् बुद्ध, सम्राट् चन्द्रगुप्त और सम्राट् अशोक ने जन्म लिया। आपने इस अधिवेशन का सभापति बनाकर मेरा जो सम्मान किया है, उसके प्रति आपका हृदय से आभारी हूँ। मेरा विचार है कि आपने मुझे यह सम्मान केवल इस कारण प्रदान नहीं किया है कि मैं हिन्दी-साहित्य की कुछ सेवा कर सका हूँ, वरन् इसलिए भी दिया है कि मेरा सतत प्रयास रहा है कि हिन्दी को अपना उचित स्थान राजकाज और प्रशासन-क्षेत्र में भी मिले। आज हम जिन परिस्थितियों में यहाँ समवेत हुए हैं, उनमें इस बात की अत्यन्त आवश्यकता है कि हम सब मिलकर हिन्दी को अपना उचित स्थान दिलाने के लिए और भी अधिक प्रयास करें।
यह बात लगती तो कुछ अजीब-सी है कि हमें अपने देश में इस बात का प्रयास करना पड़े कि देशवासियों की भाषा राजभाषा भी हो। यदि देश पर विदेशियों का राज्य होता, तो ऐसे प्रयास करने की आवश्यकता सम्भवत: समझ में आ सकती थी, किन्तु इतिहास की यह कैसी विडम्बना है कि जो देश विदेशियों के चंगुल से लगभग बारह वर्ष पूर्व मुक्त हुआ था, उस देश में भी हमको इस बात के लिए परिश्रम और प्रयास करना पड़े कि जनता की भाषा राजभाषा हो। जिस जाति की भाषा पूर्णत: अविकसित हो, जिसकी अपनी संस्कृति और सभ्यता न हो, जिसकी अपनी ऐतिहासिक परम्पराएँ और गौरवगाथा न हों और जो बर्बरता की स्थिति से या तो निकली ही न हो या कुछ समय पूर्व ही निकली हो, उस जाति के लिए सम्भवत: अपनी भाषा में अपना राजकाज चलाने के लिए प्रयास करना पड़े। किन्तु, हमारे देश का इतिहास, हमारे देश की संस्कृति, हमारे देश की सभ्यता संसार के किसी देश से यदि अधिक पुरानी नहीं, तो कम पुरानी नहीं है। जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र न था और न हो सकता था, जिसमें हमारी जाति ने उल्लेखनीय सफलताएँ प्राप्त न की हों और अमूल्य विचार मानव-जगत् के सामने न रखे हों। क्या दर्शन, क्या विज्ञान, क्या काव्य सभी क्षेत्रों में भारत ने ऐसे सूक्ष्म और चामत्कारिक विचार रखे कि आज भी सारे सभ्य जगत् पर उसकी छाप है और सारा सभ्य जगत् उसका ॠणी। ये सब सत्य हमारे पूर्वजों ने इस देश की भाषा या भाषाओं द्वारा ही व्यक्त किये थे। मैं समझता हूँ कि इन क्षेत्रों में उन्होंने अपनी भाषा द्वारा इतने सूक्ष्म और गूढ़ विचार व्यक्त किये कि आज भी उनके पूर्ण रहस्य को समझने के लिए विद्वानों को परिश्रम करना पड़ता है। अपनी बात को मँजे हुए और बहुत ही थोड़े शब्दों में व्यक्त करने की परिपाटी हमारे यहाँ इतनी घर कर गई कि मात्रा के लाघव को भी विद्वान पुत्रलाभ के समान मानते थे। आज संक्षेपाक्षरों की जो प्रणाली प्रचलित है, उससे भी अद्भुत प्रणाली हमारे यहाँ दो सहस्र वर्षों पहले प्रचलित थी और प्रत्याहारों द्वारा पाणिनी ॠषि व्याकरण-जगत् में वह चमत्कार कर गये जिसकी पुनरावृत्ति अनेक शताब्दियों तक प्रयास करने पर भी कोई देश या जाति नहीं कर सकी।  इस प्रकार, हमारे देश के विद्वान गागर में सागर भरने में समर्थ थे और मैं यही मानता हूँ कि आज भी हैं। यह बात न केवल संस्कृत के लिए ठीक है, वरन् हमारी अन्य भाषाओं के लिए भी उतनी ही ठीक है। कबीर ने हिन्दी में जितने उदात्त, किन्तु सूक्ष्म दार्शनिक विचार अपनी सूक्तियों में रखे हैं, वैसे सम्भवत: उतने थोड़े शब्दों में अन्यत्र कहीं भी न मिलेंगे। मैं यह बात आपके समक्ष मिथ्या-अभिमान या अतीत की गौरवगाथा के लिए नहीं रख रहा, वरन् मैंने इनकी ओर संकेत केवल इसलिए किया है कि आप तथा इस देश के अन्य वासी इस ऐतिहासिक विडम्बना पर विचार करें कि इतनी समृद्ध भाषाओंवाले देश में यह प्रयास क्यों करना पड़े कि देश की भाषा राजभाषा भी हो। पर मैं इसे अपना दुर्भाग्य कहूँ, जनता का दुर्भाग्य कहूँ या अपनी भावी पीढ़ियों का दुर्भाग्य कहूँ कि आज भी हमारे देश में कुछ ऐसे व्यक्ति हैं, जो सम्भवत: सच्चे मन से या स्वार्थवश इस बात पर अड़े हुए हैं कि इस देश की कोई भाषा राजद्वार में फटकने न पावे। अत:, हम सबके लिए, जिनका जीवन-प्रयास और जीवन-लक्ष्य जनवाणी की सेवा करना रहा है, यह अत्यंत आवश्यक हो गया है कि हम पूरी लगन से इस प्रयास में लग जायँ कि हमारे देश की भाषा और देश की भाषाओं का वह अपमान और निरादर अब अधिक दिनों तक न किया जा सके।
मैं इस सम्बन्ध में आपका ध्यान उन देशों की ओर खींचना चाहता हूँ, जो अभी चार-पाँच साल पहले ही स्वतन्त्र हुए हैं। आप सब लोग जानते हैं कि कम्बोज, लवप्रदेश, वियतनाम, अभी कुछ वर्ष हुए, स्वतन्त्र हुए थे। मेरा विश्वास है कि आप सब इस बात से भी परिचित हैं कि इन देशों के वासियों का इतिहास कम-से-कम इतना पुराना नहीं है, जितना कि हमारे देश का है। मैं यह भी समझता हूँ कि इन देशों की संसार को सांस्कृतिक देन हमारे देश की अपेक्षा कहीं कम रही। इनकी भाषा और इनकी लिपि भी हमारे देश की भाषा और लिपि की अपेक्षा कम उन्नत थी। किन्तु, इन देशों ने इतने अल्पकाल में ही अपना सारा राजकाज अपनी भाषाओं में करना आरम्भ कर दिया है। वहाँ भी फ्रांस ने फ्रांसीसी भाषा को अपने राज्यकाल में प्रशासन, विधि और शिक्षा का माध्यम बना रखा था। वहाँ का शिक्षित-वर्ग भी फ्रांसीसी भाषा का प्रयोग करने का अभ्यासी था। किन्तु, यह सब होते हुए भी वहाँ के नये शासकों ने एक दिन भी यह नहीं कहा कि फ्रांसीसी भाषा को ही प्रशासन, न्याय या शिक्षा का माध्यम बना कर रखा जाय या फ्रांसीसी भाषा के द्वारा ही अन्तरराष्ट्रीय जगत् से सम्बन्ध स्थापित किया जाय या ज्ञान-सरोवर को केवल फ्रांसीसी भाषा की खिड़की द्वारा ही देखा जाय। मैं समझता हूँ कि संसार में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो यह कहने की सामर्थ्य या धृष्टता रखता हो कि फ्रांसीसी भाषा ज्ञान या किसी अन्य क्षेत्र में अँगरेजी से किसी प्रकार कम है। सच तो यह है कि आज भी लगभग सारे मध्यपूर्व और योरप के देशों में फ्रांसीसी भाषा राजनय की भाषा है और अँगरेजी का प्रयोग वहाँ बहुत थोड़ा है और अभी कुछ ही वर्षों से किन्हीं-किन्हीं क्षेत्रों में आरम्भ हुआ है। किन्तु, ऐसी समृद्ध भाषा का मोह भी उन्हें अपनी देशभाषा को अपनी राजभाषा बनाने से एक मुहूर्त्त के लिए भी न रोक सका। चीन की बात मैं कुछ अधिक कहना नहीं चाहता। अभी हाल में उस देश का व्यवहार कुछ ऐसा रहा कि जिससे हमारे मन में कड़ुवाहट पैदा हो गई है, किन्तु इसपर भी हमें यह सर्वदा स्मरण रखना चाहिए कि हम उसकी प्रगति और उसकी प्रगति के कारणों को अपने ध्यान में रखें; क्योंकि यदि हमने ऐसा न किया, तो हम उसका उचित समय पर उचित प्रतिरोध करने में कभी सफल न होंगे। वे हमारे शत्रु ही सही, किन्तु उनके बलाबल से हमें अपने को पूर्णतया परिचित रखना है और इस दृष्टि से मैं आपका ध्यान इस बात की ओर खींचता हूँ कि वहाँ भी एक क्षण के लिए भी यह प्रश्न किसी के मन में नहीं उठा कि वैज्ञानिक प्रगति की दृष्टि से वहाँ शिक्षा का माध्यम योरप की किसी ऐसी भाषा को रखना चाहिए, जिसमें विज्ञान का भाण्डार है। वहाँ भी सब प्रकार की शिक्षा-दीक्षा चीनी भाषा के द्वारा ही दी जाती है। उन्हें एक क्षण के लिए भी यह अनुभव नहीं हुआ कि इस कारण उनके देश में किसी प्रकार के यन्त्रविदों, वास्तुकारों, वैज्ञानिकों की कमी रही हो।

पर, हमारे देश में ऐसे शिक्षाशास्त्री हैं, ऐसे प्रशासक हैं, ऐसे राजनीतिज्ञ हैं, ऐसे राजनायक हैं, जो यह माने बैठे हैं कि भारत की मुक्ति, भारत का भविष्य, भारत की समृद्धि अँगरेजी और केवल अँगरेजी पर आधृत है। मैं नहीं जानता कि कभी उन्होंने इस बारे में सोचा भी है या नहीं कि जब अँगरेज इस देश में नहीं आये थे, जब अँगरेजी इस देश में नहीं आई थी, तब इस देश के लोगों ने अपनी जीवनधारा कैसे चलाई थी, प्रकृति से कैसे संघर्ष किया था, राजनीतिक तन्त्र कैसे स्थापित किये थे और भूमि एवं अन्तरिक्ष के अनेक सत्यों का पता चलाया था। क्या वे समझते हैं कि अँगरेजों के पहले हमारे देश के लोग मूक थे, उनकी अपनी वाणी न थी, अपनी प्रतिभा न थी। मैं यह नहीं कहता कि ये लोग राष्ट्रप्रेमी नहीं हैं, किन्तु इनका राष्ट्रप्रेम कैसा है, यह मैं समझ नहीं पाता। उन्हें यह बात भी नहीं दिखती कि यह विचार कि अँगरेजी के बिना हम सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में प्रगति न कर पायेंगे, हमारे सारे इतिहास का उपहास है, हमारी जाति के प्रति सारे विश्व में यह भावना पैदा करना है कि अँगरेजों के पूर्व हमारा देश पूर्णत: असभ्य था, बर्बर था और केवल अँगरेजों ने ही गोरे आदमी का भार वहन करके हमें सभ्य बनाया। मैकाले को मरे हुए लगभग एक शताब्दी हो गई, किन्तु यदि वे आज जीवित होते, तो उन्हें कितनी प्रसन्नता हुई होती, जब वे यह देखते कि जो बात उन्होंने भारतीय संस्कृति, भारतीय साहित्य, भारतीय विज्ञान के सम्बन्ध में अपनी शिक्षा-माध्यम-सम्बन्धी टिप्पणी में 1833 में लिखी थी, उसी बात की पुष्टि असाक्षात् रूप से उनके इन मानस-पुत्रों द्वारा, जिनकी चमड़ी भारतीय है, किन्तु, जिनका मन, जिनकी संस्कृति, जिनका दृष्टिकोण मैकाले की भाषा द्वारा, मैकाले के विचारों द्वारा बना है, पुष्ट हो रही है। मैकाले ने अपनी इस टिप्पणी  में लिखा था कि यदि समग्र भारतीय साहित्य और विज्ञान की पुस्तकें समुद्र में डाल दी जायँ, तो मानव जाति की कोई हानि नहीं होगी। (इस एक वाक्य द्वारा भारत के इस भयंकर राष्ट्रीय अपमान के बावजूद भारत में मैकाले की प्रतिमा की स्थापना करना और उसकी शिक्षा-पद्धति से चिपटे रहना और आज तक अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का मुख्य माध्यम बनाये रखना हमें दुनिया के सबसे कलंकित और नीच लोगों में भी निम्नतम स्थान पर ले जाकर फेंक देता है। अब इसे क्या कहें? – प्रस्तुतकर्ता) चाहे अँगरेजी से मोह रखने वाले भारतीय विज्ञान और साहित्य के प्रति इन्हीं शब्दों का प्रयोग न करते हों, किन्तु इससे कुछ अन्य उनका तात्पर्य न तो है और न हो सकता है; नहीं तो वे यह क्यों सोचते या क्यों कहते कि इस देश की भाषा द्वारा हम प्रगति के प्रशस्त पथ पर अग्रसर न हो सकेंगे, हमारे देश की एकता न रह सकेगी, हम प्रजातन्त्र के प्रयोग को सफल न बना सकेंगे, हम अपने आर्थिक तन्त्र को शीघ्रातिशीघ्र समृद्ध न कर सकेंगे, हम जगत से सम्बन्ध खो बैठेंगे, हम विज्ञान की अमृतदायिनी सरिता से वंचित हो जायेंगे। स्पष्टत: उनके मन में यह मोह है, यह धारण है कि इन सब बातों का केवल एक सूत्र, केवल एक द्वार, एक माध्यम अँगरेजी और केवल अँगरेजी है। पर, थोड़ा विचार करके देखिए कि इसमें कितना तथ्य है। क्या यह बात ठीक है कि केवल अँगरेजी के माध्यम द्वारा ही किसी जाति के नर-नारी प्रगति कर सकते हैं? यदि यह बात ठीक होती, तो सम्भवत: इंग्लैण्ड में ऐसा एक भी आदमी न होता, जो ज्ञान-विज्ञान के हर क्षेत्र में पारंगत न होता, यदि अँगरेजी ही सांस्कृतिक और वैज्ञानिक प्रगति का दूसरा नाम है, तो इंग्लैण्ड का हर वासी, जिसे अँगरेजी अपनी माँ के दूध के साथ मिलती है, किसी प्रकार विज्ञान या ज्ञान से अपरिचित न होता।  किन्तु, क्या ऐसा है? इंग्लैण्ड ने विज्ञान के क्षेत्र में जो भी प्रगति पिछले डेढ़ सौ वर्षों में की है, इतिहास इस बात का साक्षी है कि उस प्रगति का कारण अँगरेजी भाषा किसी प्रकार न थी।
इंग्लैण्ड में विज्ञान का प्रवेश ‘लातनी’ और ‘यूनानी’ भाषा के द्वारा हुआ। यदि मैं भूलता नहीं तो इंग्लैण्ड में रोजर बेकन (कुछ स्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, रोजर बेकन को दुनिया के सबसे प्रभावशाली वैज्ञानिकों में माना जाता है। – प्रस्तुतकर्ता) ने अपना कार्य अधिकतर इन्हीं भाषाओं के ज्ञान के सहारे किया और उसके पश्चात् भी अनेक वर्षों तक इंग्लैण्ड के विद्वान् इन भाषाओं का सहारा अपनी विधि, अपनी शिक्षा, अपने विज्ञान के लिए लेते रहे। सच तो यह है कि आज भी अँगरेजी में यह शक्ति नहीं कि वह नये-नये वैज्ञानिक तथ्यों के लिए अपने निज के शब्द दे सके। आज भी इंग्लैण्ड के वैज्ञानिक इन तथ्यों की अभिव्यक्ति के लिए ‘लातनी’ या ‘यूनानी’ भाषा का सहारा लेते हैं।  मुझे पूर्ण विश्वास है कि जो लोग दुहाई देते हैं कि अँगरेजी के बिना भारत अन्धकार के गर्भ में चला जायगा, उनमें से अनेक वनस्पतिशास्त्र के ऐसे एक भी शब्द को न समझ सकेंगे, जो उस विज्ञान के क्षेत्र में अँगरेजी भाषा में प्रयोग किये जाते हैं। वे सभी शब्द अँगरेजी में यूनानी या लातनी भाषा से लिये गये हैं और मैं तो यह समझता हूँ कि सम्भवत: उन्हें निन्यानबे प्रतिशत अँगरेजी भी न समझ में आती हो। मैं नहीं जानता कि इस ओर अँगरेजी के हिमायतियों की दृष्टि गई है या नहीं कि अँगरेजी भाषा में शब्द-निर्माण की शक्ति लगभग नहीं के बराबर है और उस दृष्टि से सभ्य भाषाओं में उतनी दरिद्र भाषा सम्भवत: संसार में कोई न होगी! हिन्दी के सम्बन्ध में बहुधा इन लोगों द्वारा यह कहा जाता है कि वह दरिद्र भाषा है। हिन्दी ही क्यों, ये लोग सब भारतीय भाषाओं को दरिद्र भाषा मानते हैं, किन्तु मेरा यह निजी अनुभव है कि हिन्दी में नये शब्द-निर्माण करने की नैसर्गिक शक्ति है। उदाहरणार्थ, संस्कृत का एक शब्द ‘चूर्ण’ कई वस्तुओं को व्यक्त करने के लिए काम में लाया जाता था, किन्तु हिन्दी ने उसी आधार पर कई शब्द बना लिये। चून, चूना, चूर्ण- ये तीन शब्द पृथक्-पृथक् वस्तुओं को व्यक्त करते हैं और इनका निर्माण हिन्दी ने अपनी शक्ति के आधार पर किया है। ऐसे एक नहीं, अनेक उदाहरण आपको हिन्दी भाषा में मिलेंगे। इसलिए, यह कहना कि हिन्दी दरिद्र भाषा है, पूर्णत: निराधार है। हाँ, जिन लोगों को हिन्दी के ‘अ’, ‘आ’ का ज्ञान नहीं, जिन्होंने अपने जीवन का एक क्षण हिन्दी-साहित्य के अध्ययन में नहीं लगाया और जिनके मन में हिन्दी के प्रति अकारण ही विद्वेष और उपेक्षा का भाव है और रहा है, यदि वे कहने लगें कि हिन्दी दरिद्र भाषा है, तो आश्चर्य कि बात ही क्या? किन्तु, यदि शुद्ध भाषा-विज्ञान की दृष्टि से अँगरेजी और हिन्दी का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय, तो पता चलेगा कि केवल भाषा की दृष्टि से कौन-सी भाषा बलशाली है और कौन-सी असहाय और दुर्बल। जो भी हो, इस सम्बन्ध में क्या एक क्षण के लिए भी शंका हो सकती है कि अँगरेजी विज्ञान के लिए एकमात्र देववाणी नहीं है। भगवान् ने यही विधान कर दिया होता कि अँगरेजी ही विज्ञान की भाषा होगी, तो फिर क्या रूसी, फ्रांसीसी, जर्मन या अन्य देश विज्ञान के क्षेत्र में ऐसी ही प्रगति कर पाते? यह केवल उपहासास्पद बात है कि अँगरेजी का प्रगति से कोई विशेष सम्बन्ध है। प्रगति तो केवल इसपर आश्रित है कि मनुष्य की यह भावना और विश्वास हो कि जो भूतकाल से मिला है, उसपर ही पूर्णत: आश्रित न रहकर, उसी से सर्वथा बँधे न रहकर, जीवन को अधिक समृद्ध और आनन्दमय बनाने के लिए नये-नये प्रयोग किए जायँ, नई-नई दिशाएँ खोजी जायँ।वह धारण क्या हम इस देश के वासियों में अपनी भाषा द्वारा नहीं फैला सकते? क्या यह विचार उनके मन में नहीं बैठा सकते? क्या इस सम्बन्ध में एक क्षण के लिए भी किसी प्रकार की शंका होनी चाहिए? अत:, मेरा निवेदन है कि अँगरेजी के पक्ष में इस प्रकार तर्क देना बड़ा असंगत और अत्यन्त उपहासास्पद है।
ऐसी ही एक दलील यह है कि भारत की एकता का आधार और स्रोत अँगरेजी है। यह कहा जाता है कि भारत के विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न भाषाएँ बोली जाती हैं और वहाँ के वासियों के लिए परस्पर विचार-विनिमय करना केवल अँगरेजी के माध्यम द्वारा ही सम्भव है; अँगरेजी जाननेवाले इन भाषाभाषी प्रदेशों के प्रत्येक नगर और नगरी में मिलते हैं, इस कारण अँगरेजी भाषा के प्रयोग करनेवाले के लिए भारत में किसी स्थान में कठिनाई नहीं होती; यह भारत की किसी अन्य भाषा के सम्बन्ध में लागू नहीं है, इसलिए आज जो सुविधा अँगरेजी के द्वारा हमें प्राप्त है और जिस सुविधा के कारण एक दृष्टि से भारत की एकता बनी हुई है, उसे छोड़ देने में कोई विशेष तुक नजर नहीं आती। (आज के सन्दर्भ में यहाँ बता दें कि भारत में सवा छह लाख से अधिक गाँव हैं और लगभग आठ हजार शहर और इन गाँवों में 99 प्रतिशत या इससे भी अधिक लोग अंग्रेजी नहीं बोल सकते। यह आँकड़ा इससे स्पष्ट हो सकता है, अगर मान लें कि एक गाँव में औसत 1300 लोग हैं, तो क्या हर गाँव में 13 लोग ऐसे हैं, जो सारा काम अंग्रेजी में कर सकते हैं? और लगभग 35 करोड़ लोग जो शहरों में रहते हैं, क्या उनमें से पंद्रह करोड़ लोग भी ऐसे हैं जो अंग्रेजी में सब कुछ कर सकने में समर्थ हैं? और वह भी तब जब इस व्याख्यान के पचास साल बीत चुके हैं और अंग्रेजी का राज बरकरार है! यानि पिछले 160-70 सालों में अंग्रेजी के घोर प्रचलन के बावजूद भारत में 20 करोड़ लोग भी अंग्रेजी नहीं समझ पाए। – प्रस्तुतकर्ता) इसके अतिरिक्त इनका यह दावा भी है अँगरेजी-साहित्य के अध्ययन के कारण ही भारत में राष्ट्रीय भावना जागरित हुई और भारत में लोग यह सोचने लगे कि हम किसी जाति-विशेष या प्रदेश-विशेष के न होकर सब भारत-माता की सन्तान हैं, अत: अँगरेजी हमारी राष्ट्रीयता की जननी है, पोषिका है। इसलिए, यदि अँगरेजी हमारे देश से हट गई, तो परस्पर विचार-विनिमय के अभाव के कारण और राष्ट्रीय एकसूत्रता के अभाव के कारण हमारा राष्ट्र छोटी-छोटी इकाइयों में बँट जायगा। कुछ अँगरेजी के पक्षपाती यह तर्क भी उपस्थित करते हैं कि अँगरेजी ही ऐसी भाषा है, जिसके मनन और अध्ययन में हमारे देश के विभिन्न प्रदेशवालों को एक समान प्रयास करना पड़ता है, एक-सी ही कठिनाइयों से संघर्ष करना पड़ता है; किन्तु यदि भारत की कोई एक भाषा भारत की राजभाषा बन गई, तो अन्य प्रदेशवालों को अन्य भाषाभाषियों की अपेक्षा राजकीय जीवन में अधिक सुविधाएँ प्राप्त हो जायँगी और इस प्रकार अन्य प्रदेशवासियों के प्रति यह घोर अन्याय होगा। कहते हैं कि जादू वह, जो सिर पर चढ़कर बोले। अँगरेजों का जादू इस सम्बन्ध में पूरा उतरता है। वे चले गये, किन्तु, जो मन्त्र वे फूँक गये थे, जो पट्टी वे पढ़ा गये थे, वह वह आज अपना पूरा प्रभाव दिखा रही है। इस बात को आपलोग भूले न होंगे कि अँगरेज भारत में अपने राज्य के पक्ष में मुख्यत: यही तर्क देते थे कि भारत की एकता उसी राज्य की नींव पर आधृत है। उनके आने के पहले भारत छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटा था और उसकी जनता राष्ट्रीयता से सर्वथा अपरिचित थी।  भारत में उनकी यह गर्वोक्ति थी कि जबतक भारत में हमारा राज्य है, तभी तक भारत में एकता है, यदि हम यहाँ से एक क्षण के लिए भी अपना प्रभुत्व हटा लेंगे, तो भारत के पुन: टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे और यहाँ परस्पर ऐसी मार काट मच जायगी, ऐसा अनाचार और अत्याचार फैल जायगा कि किसी भी भारतीय कुमारी का सतीत्व बचा न रहेगा।उनका यह भी तर्क था कि इस देश के विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों, विभिन्न भाषाभाषी और प्रादेशिक जातियों के अधिकार की रक्षा वे निष्पक्ष भाव से करते हैं और सबको सम न्याय प्रदान करते हैं, किन्तु यदि वे चले गये, तो भारत का सम्प्रदाय-विशेष या जाति-विशेष या प्रदेश-विशेष, दूसरे सम्प्रदायों, दूसरी जातियों और प्रदेशों पर छा जायगा और उनको पैरों-तले रौंद देगा। आप देखेंगे कि अँगरेजों के इन्हीं तर्कों की पुनरावृत्ति आज हमारे अँगरेजी के हिमायती इस सम्बन्ध में कर रहे हैं। अपने गौरांग गुरुओं की शिक्षा का कितनी कुशलता से वे पालन कर रहे हैं। किन्तु, ये सब तर्क थोथे हैं, निराधार हैं। थोड़े-से विचार से यह स्पष्ट हो जायगा कि इस सब स्वार्थ के पीछे उनका वैसा ही स्वार्थ है, जैसा कि अँगरेजी का स्वार्थ उनके अपने राज्य के समर्थन के पीछे था। अँगरेजी के द्वारा इन लोगों के लिए यह सम्भव हो रहा है कि वे भारत की जनता के कन्धे पर बैठकर भारत की जनता से उसी प्रकार परिश्रम कराकर, जैसा कि अँगरेज कराते थे, स्वयं सुख भोगें, गुलछर्रे उड़ायें। सिन्दबाद नाविक की कहानी में जिस प्रकार हम पढ़ते थे कि सिन्दबाद की गरदन पर सवार होकर उसके गले को अपने पाँवों में कसकर और दबाकर उस व्यक्ति ने सिन्दबाद को दौड़ाया, उससे परिश्रम कराया और स्वयं आनन्द भोगा, उसी प्रकार आज ये ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज से निकले श्याम वर्णवाले,  किन्तु आँग्ल चेतना और आत्मावाले हमारे देश की जनता के कन्धे पर कसकर आसन जमाये बैठे हैं और हर प्रकार से उनका शोषण कर रहे हैं तथा भोली-भाली विभिन्न प्रदेशों की जनता को विमुख करने को इस प्रकार के तर्क दे रहे हैं। नहीं तो, क्या वे यह नहीं जानते कि इस देश में अँगरेजी जाननेवालों की संख्या एक प्रतिशत से अधिक नहीं हैं और इस एक प्रतिशत की एकता भारत की एकता नहीं कही जा सकती। क्या इस बात से इनमें से कोई भी इनकार कर सकता है कि आज भी लाखों की संख्या में सुदूर दक्षिण के ग्रामवासी, जिन्हें अँगरेजी का एक शब्द भी नहीं आता, उत्तर-भारत के काशी, मथुरा, हरद्वार और बदरीनाथ जैसे महान् तीर्थ-स्थानों में प्रतिवर्ष यात्रा के लिए आते हैं। क्या यह बात सत्य नहीं है कि उत्तर-भारत के अनेक ग्रामवासी सुदूर रामेश्वरम् की यात्रा करने के लिए सहस्रों की संख्या में जाते हैं? क्या इन लोगों का काम अँगरेजी के बिना नहीं चलता? क्या वे अपने सब धार्मिक संस्कार और जीवन के अन्य व्यापार अपनी यात्रा में हिन्दी के माध्यम द्वारा नहीं करते? क्या यह सत्य नही है कि भारत के प्रत्येक धार्मिक तीर्थस्थान में हिन्दी जाननेवाले पण्डे नहीं मिलते या नहीं होते, तब फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि भारत के विभिन्न प्रदेशवासियों के विचार-विनिमय का माध्यम केवल अँगरेजी है? आसाम के चाय-बगानों में, कलकत्ता के बड़े बाजार में, बम्बई की चौपाटी पर और सुदूर दक्षिण में सर्वत्र ही हमें हिन्दीभाषा-भाषी श्रमिक कार्य करते मिलते हैं, हिन्दी भाषा-भाषी व्यापार करते मिलते हैं, हिन्दी भाषा-भाषी पण्डे धार्मिक संस्कार करते मिलते हैं। सचमुच यह महान् आश्चर्य की बात होती, यदि ऐसा न होता। अँगरेजी तो सभी अभी कुल एक सौ वर्ष से ही इस क्षेत्र में आई थी। उससे पहले भी हमारे देश के विभिन्न प्रदेशों में विचार और वस्तुओं का आदान-प्रदान होता था। अत: स्वाभाविक ही मध्यदेश की यह भाषा हिन्दी उस विचार-विनिमय का माध्यम बन गई थी और बनी रही और बनी रहेगी।

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अँगरेजी-वर्ग अधिक-से-अधिक यही कह सकता है कि उसकी अपनी एकता अँगरेजी के आधार पर है, यद्यपि इस सम्बन्ध में भी पूरी-पूरी शंका की जा सकती है। यदि वर्त्तमान भारतीय राजनीतिक कलह का वास्तविक कारण ढूँढा जाय, तो हमें यह पता चलेगा कि इस अँगरेजी से मोह रखनेवाले व्यक्तियों में ही परस्पर सर्वाधिक द्वेष और स्पर्द्धा वर्त्तमान है। क्या यह सत्य नहीं है कि भारत की राजनीति में जो विष-वृक्ष बोया गया, वह उन लोगों ने बोया या उन लोगों के माध्यम द्वारा बोया गया, जो इस बात के लिए लालायित थे कि अँगरेजी साम्राज्य द्वारा इस देश की जनता से दुही जानेवाली सम्पत्ति में उनका भी कुछ साझा हो जाय! अँगरेजी साम्राज्य के तंत्र में छोटी-मोटी नौकरी पाने के लिए कौन लालायित था, वही तो जिसने यह अँगरेजी पढ़ ली थी। नौकरियाँ थोड़ी थीं और अँगरेजी पढ़े-लिखे अधिक। अत:, इन अँगरेजी पढ़े-लिखे लोगों ने परस्पर एक-दूसरे की जड़ काटने के लिए हर प्रकार के साम्प्रदायिक, प्रादेशिक और भाषा-जाति-विभेद पैदा किये और उन्हें तीव्रातितीव्र किया। क्या यह सत्य नहीं है कि पाकिस्तान के आन्दोलन के जन्मदाता इसी अँगरेजी-वर्ग के कुछ लोग थे? उन्होंने भोली-भाली जनता को अपने स्वार्थ के लिए गुमराह किया और देश को टुकड़े-टुकड़े कर डाला। क्या यह सत्य नहीं है कि इसी अँगरेजी-वर्ग के कुछ लोगों ने अँगरेजी कि शह पर इस देश में उत्तर और दक्षिण का प्रश्न उठाया और उत्तरवासियों के विरुद्ध दक्षिण क कुछ प्रदेशों में एक प्रकार का जेहाद प्रारम्भ कर दिया। यदि ऐसा न होता तो आश्चर्य की बात होती। जिन लोगों ने सर्वप्रथम अँगरेजी पढ़नी प्रारम्भ की थी, उन लोगों ने उसका अध्ययन ज्ञानोपार्जन-विज्ञान और दर्शन के ज्ञान के लिए नहीं किया था, वरन् हमारे देश के पूज्य गुरुजनों के आदेश की अवहेलना कर अधिकांशत: इस प्रयोजन से प्रारम्भ किया था कि वे भी अँगरेजी राज्य की लूट में कुछ हिस्सा पाये। हो सकता है कि कुछ ऐसे व्यक्ति रहे हों, जिन्होंने अँगरेजी का अध्ययन अँगरेजी की सफलता का रहस्य जानने के लिए आरम्भ किया हो, किन्तु ऐसे संख्या नगण्य थी। किन्तु, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अधिकांशत: ऐसे लोग स्वार्थरत थे, अपने ही निजी सुख और समृद्धि की भावना से प्रेरित थे। भला वे लोग भारत की एकता की बात सोचें, यह तो महान् आश्चर्य की बात होती!

यह बात आज भी है कि जो लोग अँग्रेजी की हिमायत करते हैं, उनमें से निन्यानबे प्रतिशत भारत की एकता की बात मन में नहीं रखते। वे केवल इस एकता की दुहाई अपनी स्वार्थ-पूर्ति के लिए देते हैं। नहीं तो क्या यह प्रश्न उनके मन में नहीं उठता कि आज अँग्रेजी के कारण भारत की निन्यानबे प्रतिशत जनता और राज्य के बीच खाई पैदा हो गई है और बढ़ती जा रही है। क्या उनको यह सोचने का समय नहीं मिलता कि अँगरेजी के कारण आज भारत के निन्यानबे प्रतिशत नागरिक राज-दरबार में प्रवेश नहीं कर पाते। उनकी सन्तान को कहीं कोई राजपद नहीं मिलता। वे मूक, निरीह, असहाय रहते चले आ रहे हैं, उनके हृदय में यह भावना जागरित नहीं हो पाती कि यह राजतन्त्र, यह देश की सम्पत्ति, इस देश की विशाल भूमि, इसके नदी-पहाड़ सब उनके हैं। आज भी वे अकिंचन बने हुए हैं और यही समझते हैं कि उनके सर पर बैठी सरकार ही उनकी भाग्यविधात्री है, वे स्वयं उनके संचालक नहीं। क्या भारत की एकता के लिए यह आवश्यक नहीं कि भारत के जन-जन के हृदय में यह विचारधारा तरंगित होने लगे कि हम सबका भाग्य एक है, हम सबकी सम्पत्ति एक है, हम सबका इतिहास एक है। मैं विनम्रता से पूछ्ता हूँ कि क्या यह बात अँगरेजी भाषा के द्वारा सम्भव है? क्या यह स्पष्ट नहीं कि यदि अँगरेजी के माध्यम द्वारा यह सम्भव होती, तो फिर हमारे ग्रामों में हमारी साधारण जनता से ये लोग अँगरेजी भाषा के माध्यम द्वारा वार्त्तालाप करते, अपने व्याख्यान अँगरेजी में देते। मैं इस बात की चुनौती देता हूँ कि ये लोग अँगरेजी के द्वारा भारत की एकता बनी रहने की बात कहते हैं, वे जरा साहस कर हमारे गाँवों में जाकर हमारी जनता से केवल अँगरेजी में बोलें और अपने इस तर्क को चरितार्थ करें। पर, मैं जानता हूँ कि उनमें से एक में भी यह सामर्थ्य नहीं। इन्हें हम दुभाषिया कहें या बहुरुपिया? कैसा महान आश्चर्य है कि देश की एकता को छिन्न-भिन्न करनेवाले देश की एकता की दुहाई दें। देश की राष्ट्रीयता को तिलांजलि देनेवाले, इस देश की वेष-भूषा, खान-पान, आचार-विचार, रीति-रिवाज, इतिहास और संस्कृति का उपहास और तिरस्कार करनेवाले व्यक्ति और पाश्चात्य योरप, विशेषत: इंग्लैण्ड को अपना सांस्कृतिक और आध्यात्मिक घर और देश माननेवाले व्यक्ति राष्ट्रीयता का यह बाना दिखाने के लिए पहन लें। इनकी राष्ट्रीयता का अर्थ इस देश को छोटा इंग्लैण्ड बनाना  है और इसीलिए यह स्वाभाविक है कि अपने उस स्वप्न के निर्माण के लिए ये लोग अँग्रेजी भाषा को अनिवार्य समझें। किन्तु यदि विचारपूर्वक हम सोचें, तो स्पष्ट पता चल जायगा कि हमारे देश में राष्ट्रीय भावना का उद्भव किसी भी तरह अँगरेजी के द्वारा नहीं हुआ। राष्ट्रीय भावना की उत्पत्ति किसी भी जाति में उस समय होती है, जब वह आर्थिक विकास की उस स्थिति में पहुँच जाती है, जब केवल ग्राम, केवल नगर अथवा केवल जनपद के क्षेत्र में हो, उसका आर्थिक व्यापार सीमित नहीं रहता और नहीं रह सकता। उस समय इन छोटी इकाइयों की सीमा को लाँघकर अनेक नगरवासी, अनेक ग्रामवासी और अनेक जनपदवासियों के हृदय परस्पर बिंध जाते हैं और उन्हें यह दिखने लगता है कि हमारे हित दूसरे देशवासियों के हित से पृथक् हैं और परस्पर एक हैं। कभी-कभी राष्ट्रीय भावना की जागृति उस समय होती है, जब एक जाति का किसी विदेशी जाति से संघर्ष हो जाता है। हमारे देश में इस प्रकार की आर्थिक स्थिति यान्त्रिक और शक्ति-चालित उद्योग के विकास के कारण पैदा हुई और फैली है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है, जिसकी पुष्टि आपको इटली, फ्रांस, जर्मनी जैसे देशों में राष्ट्रीय भावना की जागृति के इतिहास से मिल जायगी। यह संसार-विदित है कि आयरलैण्ड में राष्ट्रीय भावना का उद्रेक उस भाषा के पुनर्निमाण से हुआ, जिसका अँगरेजों ने बीज तक लगभग नष्ट कर दिया था। आयरलैण्ड के राष्ट्रीय नेता गैलिक भाषा के पुनर्निर्माता थे, पुन:प्रतिष्ठाता थे। क्या यह सत्य नहीं है कि हमारे देश में भी काँगरेस का आन्दोलन तब तक निष्प्राण था, जब तक वह केवल अँगरेजी जाननेवाले वर्ग तक सीमित था और उसमें जीवन-ज्योति उसी समय जगी, जब पूज्य बापू ने हिन्दी को और भारतीय भाषाओं को उस आन्दोलन का आधार बनाया और ग्राम-ग्राम में, नगर-नगर में भारतीय भाषाओं के माध्यम द्वारा स्वाधीनता का अलख जगा दिया। भारतीय राष्ट्रीयता का इतिहास जनसाधारण का इतिहास है। आज यदि अँगरेजी जाननेवाला वर्ग इस महान् सृष्टि को हथिया लेना चाहता है, इसका गौरव अपना बना लेना चाहता है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। जिसकी रग-रग में स्वार्थ बसा है, उससे और क्या आशा की जा सकती है? पर, उनके लिए यह सम्भव नहीं कि वे इस बनी-बनाई राष्ट्रीयता को कायम रख सकें। क्या यह स्पष्ट नहीं है कि अँगरेजी का यदि आधिपत्य बना रहा, यदि उसने अपना शोषण कायम रखा, तो भारतीय जन-जीवन शोषक और शोषितों के परस्पर संघर्ष से खण्ड-खण्ड हो जायगा। कैसे अचम्भे की बात है कि ये लोग भी न्याय की बात करते हैं। पर, ऐसा लगता है कि न्याय की इनकी अपनी विशेष परिभाषा है। सम्भवत:, ये लोग इस बात को न्याय नहीं समझते कि भारत के प्रत्येक नर-नारी के लिए यह सुविधा प्राप्त हो कि वह इस देश के राजतन्त्र में सुगमता से प्रवेश कर सके, राजकाज के संचालन में भाग ले सके, राजपदों पर आसीन हो सके। यदि ये लोग इस बात को न्याय मानते, तो क्या ये यह न सोचते कि यह बात तबतक सम्भव न होगी, जबतक कि भारत का राजतन्त्र अँगरेजी में लिपटा रहेगा। जैसा मैं अभी कह चुका हूँ कि भारत के निन्यानबे प्रतिशत जनता के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह इस राजतन्त्र में किसी प्रकार से भाग ले सके और वह इसलिए सम्भव नहीं है कि वह अँगरेजी नहीं जानती और इस राजतन्त्र के द्वार पर बड़े मोटे अक्षरों में लिखा है कि अँगरेजी न जाननेवालों के लिए यहाँ प्रवेश निषिद्ध है। सम्भ्वत:, इन लोगों की न्याय की परिभाषा वही है, जो साधारण दफ्तरी लोगों की होती है। दफ्तरों में काम करनेवाला प्रत्येक व्यक्ति यह मानता है कि उसकी तरक्की हुई, तो न्याय हुआ और तरक्की न हुई, तो अन्याय अर्थात् वहाँ निजी स्वार्थ का दूसरा नाम न्याय है। जब ये लोग न्याय की बात करते हैं, तब वहाँ भी यही गन्ध आती है, नौकरी में हमारी प्रगति रुक जायगी, हम नौकरी में उतने आगे नहीं बढ़ पायेंगे , जितने अन्य; अर्थात् इनके निजी स्वार्थ का ही नाम न्याय है। पर, ये लोग इस बात को प्रदेश-प्रदेश के बीच न्याय का बाना पहना देते हैं, मानों इनके अपने प्रदेश में ये स्वयं अपनी साधारण जनता के प्रति न्याय कर रहे हों, उसके अधिकारों की रक्षा के लिए लालायित हों। स्वयं अपने स्वार्थ पर डटे रहकर, अपनी ही वैयक्तिक प्रगति को ध्यान में रखकर और अपनी जनता के प्रति पूर्ण अन्याय करते रहकर ये लोग न्याय की दुहाई दें, इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है? अँगरेजी ही परस्पर इन प्रदेशों में नौकरी के सम्बन्ध में समता रख सकती है, इससे बड़ी अनर्गल बात और क्या हो सकती है? क्या इन लोगों को यह नहीं दिखाई पड़ता कि इसी तर्क के आधार पर उन्हें एक दिन अँगरेजों को भी वापस बुलाना पड़ेगा। यदि भारत में भारत की किसी भाषा के प्रयोग से अन्य प्रदेशों के प्रति अन्याय होगा, तो फिर क्या भारत के किसी प्रदेश के व्यक्ति के हाथ में नेतृत्व जाने से इन लोगों को अन्य प्रदेशों के प्रति अन्याय न लगेगा, और तब क्या ये लोग इस बात की दुहाई न देने लगेंगे कि भारत का नेता भारतीय न होना चाहिए, वह तो इनके आँग्ल गुरुओं में से एक होना चाहिए। मैं आप सबका ध्यान इस भयावह बात की ओर विशेषतः खींचना चाहता हूँ कि जो देशभाषा को विदेशी मान सकते हैं, वे देश-भाई को भी विदेशी मान सकते हैं और अपने भाई का गला काटने के लिए विदेशियों को भी आमन्त्रित कर सकते हैं।न्याय शब्द का जिस प्रकार उल्टे अर्थ में ये लोग प्रयोग करते हैं, सम्भवत: उसी प्रकार इनके प्रजातन्त्र शब्द का अर्थ है। साधारणत: प्रजातन्त्र से यही बोध होता है कि प्रजा अपना शासन स्वयं करे, राजतन्त्र में उसका प्रमुख भाग हो। अपनी राजनीतिक समस्याओं पर वह स्वयं सोच-विचार कर अपनी नीति निर्धारित करे। स्पष्ट है कि ऐसा राजनीतिक तन्त्र तभी स्थापित हो सकता है, जब उसका सारा कामकाज जनता की अपनी भाषा में हो। अत:, जब भी कोई देश साम्राज्यवादिता के चंगुल से छूटकर स्वतन्त्र हुआ है, उसने तुरन्त अपना सारा कामकाम अपनी जनता की भाषा में करना आरम्भ कर दिया है। संसार के इतिहास में अन्यत्र ऐसा कोई उदाहरण न मिलेगा, जहाँ स्वतन्त्र देश अपनी भाषा में अपना राजकाज न चलाता हो। केवल हमारा ही अनोखा देश है जो स्वतन्त्र कहलाता है, किन्तु जिसका राजकाज देश की भाषा में न होकर उस भाषा में होता है, जो हमारे पिछले शासकों की भाषा थी और जिसे हमपर उन्होंने अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रयोग कर लादा था। इससे भी अनूठी बात यह है कि यहाँ का राजतन्त्र प्रजातन्त्र कहलाता है, जबकि यहाँ कि निन्यानबे प्रतिशत जनता उस भाषा से सर्वथा अपरिचित है, जिसमें यहाँ का सारा राजकाज यहाँ का शासक-वर्ग करता है। इस अनोखेपन पर गर्व करें या आँसू बहायें? पर, कैसा आश्चर्य है कि यहाँ अँगरेजी जाननेवाला वर्ग कहता है कि यदि अँगरेजी भाषा न रखी गई, तो इस देश में प्रजातन्त्र का प्रयोग सफल न हो सकेगा। इन लोगों के अनुसार प्रजातन्त्र हमने इंग्लिश्तान से आयात किया है। इन लोगों का कहना है कि प्रजातान्त्रिक प्रणाली और संसदीय राजतन्त्र जगत् को इनके परम गुरु इंगलैण्ड की देन है। इंग्लैण्ड की इस अपूर्व देन के हृदय-तल में अँगरेजी बसी हुई है। तत्सम्बन्धी सारा साहित्य अँगरेजी भाषा में है। उसकी पारिभाषिक शब्दावली अँगरेजी भाषा में है। उसका विधि-विधान सब अँगरेजी में है। अत:, यदि हमें इस प्रजातान्त्रिक और संसदीय प्रणाली को सफल बनाना है, इसकी जड़ें इस देश में मजबूत करनी हैं, तो हमें अँगरेजी भी अपने यहाँ रखनी है और उसके माध्यम द्वारा अपना कामकाज चलाना है। मुझे इस बात पर आश्चर्य नहीं कि ये लोग समझें कि इस जगत् में जो कुछ श्रेष्ठ है, जो कुछ सुन्दर है, जो कुछ उपास्य है, वह सब इनके परम गुरु इंग्लैण्ड का है और इंग्लैण्ड में है। किन्तु, इस बात को समझने के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं कि प्रजातान्त्रिक प्रणाली का कुछ विशिष्ट सम्बन्ध नहीं है। फ्रांस की राज्यक्रान्ति तक इंग्लैण्ड में केवल सामन्तों का राज्य था और वहाँ जनसाधारण को बालिग मताधिकार तो पिछले प्रथम महायुद्ध के पश्चात् मिला। इसके विपरीत युग-युगान्तर से हमारे देश में अपने सामाजिक और सामूहिक मामलों की व्यवस्था ग्राम-पंचायतों के द्वारा करने की परिपाटी चली आ रही थी और हमारे देश के लोग उस परिपाटी में अभ्यस्त थे। मैं नहीं जानता कि अँगरेजी-वर्ग के लोग उस पंचायत-प्रणाली को प्रजातान्त्रिक प्रणाली मानने के लिए तैयार हैं या नहीं। समाजशास्त्र के निष्पक्ष विद्यार्थी तो उस प्रणाली को प्रजातान्त्रिक प्रणाली का आदि रूप सर्वदा स्वीकार करते रहे हैं। तथ्य तो यह है किसी भी देश की शासन-प्रणाली उसी देश के आदर्शों और भावनाओं के अनुसार होती है। अत:, हमारे देश में भी वर्त्तमान प्रणाली की सफलता, विफलता, हमारे इतिहास, हमारी आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था, हमारे आदर्शों और भावनाओं पर निर्भर करेंगी, न कि अँगरेजी पर, चाहे हम कैसी ही दृढ श्रृंखला से अपने को इंग्लैण्ड के चौखट से कसकर कितना ही क्यों न बाँध लें, चाहे हम ‘मे’ की संसदीय प्रणाली की प्रसिद्ध पुस्तक के कितने ही पारायण क्यों न करें, हमारे देश का राजतन्त्र उस रूप में कार्य नहीं कर सकता, न ही कर सकेगा, जिस रूप में कि इंग्लैण्ड में कार्य करता रहा है। अत:, इस बात में लेशमात्र भी तथ्य नहीं कि अँगरेजी बनाये रखने से हम अपने इस तन्त्र को ठीक उसी ढर्रे पर चला सकेंगे, जैसा कि वह इंग्लैण्ड में चलता है। यह हमारा अपना है, इसका निर्माण हमारी सर्वप्रभुतासम्पन्न जनता ने अपनी संविधान-सभा के द्वारा किया है। यह हमारे देश की समस्याओं को ध्यान में रखकर बना है और इसमें अनेक ऐसी बातें हैं, जो न तो इंग्लैण्ड में और न इंग्लैण्ड के किसी अधिराज्य में पाई जाती हैं। अत:, इस बात का प्रयास करना कि यह पूर्णतया भारतीय राजतन्त्र इंग्लैण्ड के राजतन्त्र के ही ढर्रे पर चले, इस तन्त्र का अपमान है और हमारे देश का एवं जनता का अपमान है। कम-से-कम इस आधार पर अँगरेजी को रखने का समर्थन तो घाव पर नमक छिड़कने के समान है।
सबसे अनोखी बात जो अँगरेजी के पहले पक्षपाती उसके समर्थन में कह देते हैं; वह यह है कि हमारे द्रुत आर्थिक विकास के लिए अँगरेजी की परम आवश्यकता है। कहा यह जाता है कि द्रुत आर्थिक विकास के लिए हमें अनेक इंजीनियर, शिल्पी और वैज्ञानिक चाहिए। हमारे पास इस समय सारा साहित्य अँगरेजी में उपलब्ध है और भारतीय भाषाओं में वह साहित्य उपलब्ध नहीं है। अत: हम, पर्याप्त संख्या में इंजीनियर, वैज्ञानिक और शिल्पी इस अँगरेजी साहित्य के द्वारा शीघ्रातिशीघ्र तैयार कर सकते हैं। यदि हम थोथी राष्ट्रीय भावना से बँधे रहकर यह प्रयास करें कि हमारी देशी भाषाओं के माध्यम द्वारा हम अपने विद्यार्थियों को इन विषयों की शिक्षा दें, तो हमें अनेक वर्ष व्यर्थ में यह साहित्य अपनी भाषाओं में तैयार करने के लिए खो देने पड़ेंगे और इस प्रकार हमारा आर्थिक विकास न हो पायगा। जिस ढंग से यह बात कही जाती है, उससे ऐसा लगता है कम-से-कम यह तर्क तो अकाट्य है। किन्तु, है यह भी धोखे-भरी बात। अबतक हम सब यही समझते रहे हैं और मानते रहे हैं कि शिक्षा का मूलमन्त्र परिचित के आधार पर अपरिचित का बोध कराना है। इसी कारण संसार-भर के शिक्षाशास्त्री यह मानते हैं कि मातृभाषा के माध्यम द्वारा समय और शक्ति की पूर्ण मितव्ययिता के साथ और अत्यन्त तीव्र गति से बालक को शिक्षा दी जा सकती है। अत:, यह स्पष्ट है कि भारत में तीव्रातितीव्र गति से देशवासियों को शिक्षित करने का माध्यम अँगरेजी हरगिज नहीं हो सकती। केवल अँगरेजी सीखने में ही हमारे विद्यार्थी को कम-से-कम दस वर्ष व्यतीत कर देने पड़ते हैं। इसके विपरीत अच्छा कामचलाऊ ज्ञान एक-दो वर्ष में ही हो जाता है। स्पष्ट है, यदि हम अपने देश में हर प्रकार की शिक्षा अपनी मातृभाषा द्वारा अपने युवकों को दें, तो वह लगभग आधे समय में उतना ज्ञानोपार्जन कर लेंगे, जितने में कि आज वे अँगरेजी के माध्यम द्वारा करते हैं। हर विद्यार्थी के कम-से-कम पाँच-छह वर्ष बच जायेंगे और यदि हम इन वर्षों को विद्यार्थियों की संख्या से गुणा कर दें, तो हमको पता चलेगा कि हम अपने देशवासियों के लाखों वर्ष इस प्रकार बचा लेंगे और जो समय इस प्रकार बचेगा, उसे देश विभिन्न प्रकार अधिकाधिक आर्थिक विकास में लगा सकेंगे। यह दलील कि हमारी भाषाओं में साहित्य नहीं है, कुछ महत्त्व नहीं रखती। यदि हमने उस धन और समय का, जो हम आज अँगरेजी-माध्यम के कारण व्यर्थ गँवा रहे हैं, शतांश भी आवश्यक साहित्य के निर्माण के लिए लगाया होता, तो अबतक हमारे पास अपनी भाषाओं में वर्षों पूर्व सब आवश्यक वैज्ञानिक और शिल्पिक साहित्य हो जाता। पर, हमारे अँगरेजी-वर्ग के लोगों ने ही हर प्रकार की बाधा खड़ी करके यह नहीं होने दिया। इस प्रकार के साहित्य का निर्माण तब होता है, जब उसके लिए माँग हो। किन्तु, जब अँगरेजी के माध्यम द्वारा ही शिक्षा दी जाती रहे, तो अपनी भाषाओं में ऐसे साहित्य का निर्माण होने का प्रश्न पैदा हो ही कैसे सकता है? न तो कोई लेखक और न कोई प्रकाशक इस बात के लिए तैयार होगा कि वह अपना समय और धन उस साहित्य के तैयार करने में लगाये, जिसकी माँग के सब द्वार यत्नपूर्वक पूर्णत: बन्द कर दिये गये हों।

हमारी भाषाओं में इस प्रकार का साहित्य पहले हो और तब वे शिक्षा का माध्यम बनाई जायँ, यह बात किसी से यह कहने के समान है कि तैरना पहले सीख लो और पानी में पीछे घुसो।इस प्रश्न के एक पहलू और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पहलू पर अबतक लोगों की दृष्टि नहीं गई है। विज्ञान का इतिहास हमें यह बताता है कि नये-नये वैज्ञानिक तथ्यों की खोज और नये-नये यन्त्रों का निर्माण विश्वविद्यालय से उपाधि-प्राप्त विद्यार्थियों ने इतना नहीं किया है, जितना कि उन लोगों ने किया है, जिन्हें कि जीवन में स्वयं की समस्याएँ स्वयं अपनी प्रतिभा से सुलझानी पड़ती हैं, अर्थात् श्रमिकों ने और शिल्पियों ने। हम यह समझे बैठे हैं कि हमारे विश्वविद्यालयों में जो पाठ पढ़ाये जाते हैं, उन्हीं के सहारे इन विश्वविद्यालयों के स्नातक हमारी सब यान्त्रिक और आर्थिक समस्याओं का हल कर लेंगे। एक प्रकार से देखा जाय, तो विज्ञान के क्षेत्र में भी हम इसी भरोसे बैठे हैं कि पाश्चात्य जगत् से मिले वैज्ञानिक उधार-खाते से हमारा उसी प्रकार काम चल जायगा, जिस प्रकार कि आर्थिक क्षेत्र में विदेशी धन के उधार-खाते से हम चला रहे हैं।  किन्तु, भारत के भौगोलिक वातावरण से और भारत के प्राकृतिक परिस्थितियों से संघर्ष करने के लिए केवल पाश्चात्य जगत् के उधार के उधार से हमारा काम नहीं चलने का और यदि किसी सीमा तक चल भी जाय तो, हम अपने देश को विज्ञान के उस स्तर तक नहीं ला सकेंगे, जिस स्तर तक कि अन्य देश अपनी नई-नई खोजों को, नये-नये यन्त्र-निर्माण के द्वारा पहुँच गये हैं और आगे भी पहुँचेंगे। यदि हम वैज्ञानिक जगत् में दूसरों के समकक्ष बनना चाहते हैं, तो हमें स्वयं नई-नई वैज्ञानिक खोजें और नये-नये प्रकार के यन्त्र-निर्माण करने होंगे और यह सब हम पाश्चात्य जगत् की जूठन से नहीं कर पायेंगे।  जब जीवन की चुनौती हम स्वीकार करते हैं, तभी हम नये सत्य खोज निकालते हैं, नये यन्त्र, नई युक्तियाँ बना पाते हैं। स्पष्ट है कि हम अपने देश के निन्यानबे प्रतिशत वासियों को यह अवसर इस कारण प्रदान नहीं कर पा रहे कि हम अँगरेजी से चिपटे हुए हैं और अपने इस देश में हमने यह भ्रम फैला रखा है जिसे अँगरेजी नहीं आती, वह किसी प्रकार की वैज्ञानिक खोज या वैज्ञानिक निर्माण नहीं कर सकता। विदेशी भाषा के माध्यम द्वारा पढ़ने के लिए अपने युवकों को मजबूर करके हमने उनकी प्रतिभा को तो कुण्ठित कर ही दिया है, उनको रट्टू मण्डूक बना ही दिया है, साथ ही हमने अपने देश के साधारण जन में भी असहायता की, विचारशून्यता की प्रवृत्ति पैदा कर दी है और ज्ञान के स्रोत हर प्रकार से अवरुद्ध कर दिये हैं। हमारा आर्थिक तन्त्र आज लँगड़ी चाल से चल रहा है, उसमें जनता के हृदय का स्पंदन नहीं है, उसके पीछे जनबल नहीं है, इस देश का महान् अपरिमित जनबल नहीं है। सच तो यह है कि हमारा अँगरेजी-वर्ग अपने स्वार्थवश यह भूल बैठा है कि इस देश की कितनी हानि इस अँगरेजी के कारण हो रही है। हम अनेक वर्षों तक अपनी राष्ट्रीय महासभा में यह बात अपने संकल्पों, अपने प्रस्तावों द्वारा कहते रहे हैं कि अँगरेजी के कारन हमारे देश का महान् सांस्कृतिक, आर्थिक और नैतिक महापतन हुआ है। जब हम यह बात कहते थे, तब हमारा आशय इतना ही न था कि हमारा पतन इस कारण हुआ कि इस देश में अँगरेज राजतन्त्र के प्रमुख पदों पर आसीन थे और वे उस तन्त्र को अपने स्वार्थ के लिए चलाते थे, वरन् हमारे मन में यह बात भी थी कि इस पतन का कारण वह भाषा भी है, जिसके द्वारा वह अपना शासन इस देश में चला रहे थे। अँगरेजी भाषा के कारण हमारी अपने देश की भाषाएँ पंगु हो गईं। उनको वह दाना-पानी न मिला, जो उनके स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक था। अँगरेजी के कारण हमारे जनसाधारण असहाय हो गये; क्योंकि राज-दरबार में जाने पर वे शासकों से अपनी भाषा में न तो बात कर सकते थे और न शासकों की भाषा समझ सकते थे, अत: उन्हें अपने जीवन की गाढ़ी कमाई शासकों के दलालों को इसलिए देनी पड़ी कि वे दलाल इनकी बात शासकों तक पहुंचा सकें और शासकों के आदेश उन्हें समझा सकें। अँगरेजी के कारण हमारे देश के शिल्पी, हमारे देश के महान् वास्तुकार दर-दर के भिखारी हो गये। जिन लोगों ने कोणार्क जैसे मन्दिर का निर्माण किया था, उनके वैसे ही कुशल वंशज केवल इसलिए रंक हो गये कि वे अँगरेजी न जानते थे और अँगरेजी साम्राज्य के राज-दरबार में केवल वे ही कुशल वास्तुकार माने जाते थे, जिन्होंने किसी अँगरेजी वास्तु-विज्ञान के विद्यालय में शिक्षा पाई थी। अँगरेजी ने हमें प्रगति-पथ पर तो क्या चलाया, हमसे वह विज्ञान, वह शिल्प, वह कला भी बहुत-कुछ छीन ली, जो हम अँगरेजी राज्यकाल के पूर्व अर्जित कर पाये थे। आज भी अँगरेजी से हमारी कितनी हानि हो रही है, इसपर जरा विचार कीजिए। अँगरेजी के मोह के कारण हमारे सहस्रों विद्यार्थी इंग्लैण्ड, अमरीका के विद्यालयों में जाकर पढ़ते हैं और इस प्रकार देश का करोड़ों रुपया विदेशों में खर्च हो रहा है। हमारे यहाँ आज अँगरेजी की पढ़ाई प्राथमिक विद्यालयों में भी अनिवार्य कर दी गई है। परिणामत:, हमें अपनी प्राथमिक कक्षाओं के लिए अँगरेजी की पुस्तिकाएँ भी विदेशों से आयात करने के लिए सम्भवत: करोड़ों रुपया खर्च करना पड़ रहा है। (आज आयात तो नहीं करना पड़ता लेकिन जो लोग अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में अपने बच्चों की किताबें खरीदते हैं, उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि धन का कितना बड़ा अपव्यय देश में हर साल होता है। – प्रस्तुतकर्ता) आखिर, यह सब क्यों हो रहा है? वह कौन-सी बात है, जिसके लिए प्राथमिक कक्षाओं में अँगरेजी पढ़ानी आवश्यक समझी जा रही है और उसकी पढ़ाई पर धनराशि व्यय की जा रही है? आखिर, प्राथमिक कक्षाओं में इस अँगरेजी-पढ़ाई से हमारे ग्रामीण बालकों को क्या लाभ होता है? इसके अतिरिक्त हमारे देश में अँगरेजी का उच्च स्तर बनाये रखने के लिए एक विशेष संस्था हैदराबाद में कायम की गई है, जिसपर लाखों रुपया खर्च होगा। इस प्रकार, जो धन सर्जनात्मक कार्यों और आर्थिक उत्पादन के लिए काम में लाया जा सकता था, वह आज इस विफल प्रयास में खर्च किया जा रहा है कि इस देश को अँगरेजी-भाषाभाषी बना दिया जाय और यहाँ की भाषाओं का अस्तित्व नष्ट हो जाय। कैसे मजे की बात है कि अँगरेजी की पढ़ाई प्राथमिक कक्षाओं से तो अनिवार्य की जा रही है, किन्तु जिस हिन्दी को हमारी प्रभुता-सम्पन्न संविधान-सभा ने संघ की भाषा विहित किया था, उसकी पढ़ाई कई प्रदेशों में अनिवार्य नहीं की गई है और यह पूरा प्रयास किया जा रहा है कि वह उन प्रदेशों में प्रवेश न कर पाये। मैं समझता हूँ कि कुछ लोगों के मन में यह परिकल्पना वर्त्तमान है कि अँगरेजी को प्राथमिक करके इस देश के वासियों को वैसा ही अँगरेजी का ज्ञान करा दिया जाय, जैसा कि अफ्रिका के नीग्रो लोगों को कराया गया और इस प्रकार उन्हें टूटी-फूटी अँगरेजी में अपनी बात व्यक्त करने के योग्य बनाकर यह कह दिया जाय कि इस देश के अधिकतर वासी अँगरेजी-भाषाभाषी हैं और इसलिए अँगरेजी का ही यहाँ अक्षुण्ण साम्राज्य बना रहे। यद्यपि उनकी परिकल्पना कभी सफल नहीं हो सकती, फिर भी वे लोग मोहवश इस प्रकार का प्रयास कर रहे हैं और किसी-न-किसी बहाने से देश के धन, समय और शक्ति का अपव्यय इस लक्ष्य-पूर्त्ति के लिए कर रहे हैं। किन्तु, स्पष्ट है कि इस प्रकार हमारे देश की महान् हानि हो रही है। अँगरेजी के कारण हमारा नैतिक पतन भी कुछ कम नहीं हुआ है। हमारे देश में भ्रष्टाचार और युवकों में अनुशासनहीनता और उद्दण्डता भी बहुत-कुछ इसी कारण फैली है कि अँगरेजी देशों से आनेवाली कौमिक पढ़-पढ़कर हमारे विद्यार्थी कुछ ऐसी बातों की ओर आकृष्ट होते हैं, जो कि हमारी मर्यादाओं, हमारी परम्पराओं, हमारे आदर्शों के सर्वथा प्रतिकूल हैं। और, इस प्रकार अनुशासन का आधार, अर्थात् आदर्शों में आस्था और परम्पराओं के प्रति आदर नष्टप्राय होता जा रहा है। साथ ही, अँगरेजी के मोह के कारण हमारे देश में आज यह भावना घर करती जा रही है कि हमारी भाषाएँ पंगु हैं और इस प्रकार हमारे देश में ऐसे वर्ग की सृष्टि हो रही है, को अपनी जाति, अपनी भाषा और अपने देश का भद्दा परिहास करने से नहीं चुकता। आजकल इस वर्ग के लोग यत्र-तत्र भारतीय भाषाओं और विशेषत: हिन्दी का मजाक उड़ाते दिखते हैं। अँगरेजी का एक शब्द लेकर वह उसके लिए कोई मनमाना हिन्दी का लम्बा-चौड़ा पर्याय देकर और उस पर्याय के प्रति परिहास कर यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि हिन्दी-जैसी उपहासास्पद भाषा कोई हो ही नहीं सकती।  उनलोगों के मन में सम्भवत: यह विचार उठता ही नहीं कि अपनी भाषा का परिहास अपनी जननी का परिहास है। भाषा हमारी माता के समान होती है, वह हमारे सांस्कृतिक शरीर की रचना करती है, उसका पोषण करती है, उसको अनुप्राणित करती है। अत:, अपनी भाषा पर कींचड़ उछालना अपनी माँ पर कींचड़ उछालना है। मैं संसार-भर में घूमा हूँ, पर मुझे एक भी ऐसा देश और जाति नहीं दिखाई दी, जिसके लोग अपनी भाषा का स्वयं अनादर तो क्या, किसी अन्य से भी अनादर सहन कर सकें। किन्तु, इस अँगरेजी-मोह के कारण हमारे देश में ऐसे लोग हैं, जो इस बात में कभी नहीं हिचकिचाते कि वे अपनी भाषा का अनादर करें और उसकी खिल्ली उड़ायें। जब भी वे बोलते हैं, तभी अपनी भाषा का परिहास करते हैं और उसके लेखकों और उपासकों की खिल्ली उड़ाते हैं। उन्हें सम्भवत: यह खयाल नहीं आता कि ऐसा करके वे अपने मुख पर ही कलक-कालिमा पोत रहे हैं और यदि आता भी है, तो सम्भवत: अपने अँगरेजी-प्रेम के कारण वे अपना काला मुँह करने के लिए भी तैयार हैं। इतना ही नहीं, इस अँगरेजी के कारण हमारा देश एक प्रकार से इंग्लैण्ड का अनुवाद बनाया जा रहा है। वैसा ही अनुवाद, जैसा कि शेक्सपियर ने अपने एक नाटक में अपने एक पात्र का करके दिखाया है। मैं समझता हूँ कि आपलोगों ने ‘मिड समर नाइट्स ड्रीम’ नाटक पढ़ा होगा। इसमें एक पात्र बॉटम नामी है, जिसके जिसके सिर पर एक मसखरे वनदेव ने गधे का सिर रख दिया था, उसे देखकर उसका मित्र सहसा कह उठता है-‘Bottom Thou art Translated.’हमारे वे अँगरेजी के उपासक यह मान बैठे हैं कि हमारे देश में जो कुछ अच्छाई आनी है, वह सब अँगरेजी-साहित्य के अनुवाद से आती है और इसीलिए वे, समय-समय पर इस देश की भाषाओं के उपासकों को चुनौती देते रहते हैं कि इस अँगरेजी शब्द का क्या देशी पर्याय है या उस अँगरेजी शब्द का क्या देशी पर्याय है, मानों हमें अँगरेजी के पर्यायों के अतिरिक्त और कुछ काम रह ही नहीं गया है। वे बार-बार कहते हैं कि देशी भाषाओं में यह क्षमता नहीं कि वे अँगरेजी शब्दों की विभिन्न ध्वनियों को व्यक्त कर सकें और इसलिए उनमें यह क्षमता भी नहीं है कि वे अँगरेजी भाषा में उपलब्ध अमूल्य वैज्ञानिक, दार्शनिक और अन्य प्रकार की निधियों को यथावत् व्यक्त कर सकें। इस बात ला ढिंढोरा सारे जगत् में पीटते हैं कि भारतीय भाषाएँ पंगु हैं, अक्षम हैं और इसलिए भारत में अँगरेजी रखी जा रही है, रखी जायगी, पढ़ाई जा रही है और पढ़ाई जायगी। कैसा पतन है यह हमारा कि हम यह मान बैठे हैं कि हममें अपनी कोई नैसर्गिक सर्जन-शक्ति नहीं है, हम कोई मौलिक सृष्टि नहीं कर सकते, ऐसा नहीं है, हम ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में स्वयं कुछ नहीं दे सकते। यह बात कि किसी विशेष अँगरेजी शब्द की सब ध्वनियों को हम किसी एक भारतीय शब्द से व्यक्त नहीं कर सकते, ऐसा नहीं है, जिससे भारतीय भाषाओं की अक्षमता लेशमात्र भी सिद्ध होती हो। हर शब्द के पीछे उस जाति का इतिहास होता है, उस भूमि का वातावरण होता है, भौगोलिक परिस्थितियाँ होती हैं, जिस जाति और जिस देश में उस शब्द का प्रयोग होता रहा है। प्रत्येक अँगरेजी शब्द के पीछे इंग्लैण्ड की भौगोलिक परिस्थितियाँ। इंग्लिश जाति का इतिहास और वहाँ के सामाजिक सम्बन्ध और संस्थाएँ हैं, अत: भारतीय भाषाओं का तो प्रश्न ही क्या, संसार की किन्हीं अन्य भाषाओं में भी ऐसा कोई शब्द नहीं मिल सकता, जो उनकी सब ध्वनियों को यथावत् व्यक्त कर सके। इसी प्रकार, भारतीय भाषाओं के शब्दों के लिए भी अँगरेजी में कभी ऐसे पर्याय नहीं मिल सकते, जो उनके शुद्ध स्वरूप और विभिन्न ध्वनियों को यथावत् व्यक्त कर सकें। मैं पूछता हूँ कि क्या कोई अँगरेजी का महारथी मुझे जलेबी, बालुसाई, गुलाबजामुन, दहीबड़े, चाट जैसे हमारे साधारण शब्दों का ठीक-ठीक अँगरेजी-पर्याय बता सकता है? तब क्या यह कहा जा सकता है कि अँगरेजी भाषा पंगु है, अक्षम है और उसमें विचारों की अभिव्यक्ति की शक्ति नहीं है? बात यह है कि जब भी एक भाषा में निहित विचारों और भावनाओं को दूसरी भाषाओं में अनूदित करने का अवसर आता है, तब यह सम्भव नहीं होता कि अनुवाद पूर्णत: मूल को ध्वनित कर सके। थोड़ा-बहुत अन्तर रह ही जाता है, पर उस कारण किसी भाषा की अक्षमता की दुहाई नहीं पीटी जाने लगती। पर, जो लोग माता के समान आदरणीय अपनी भाषा का उपहास और तिरस्कार करने पर तुले हुए हैं, वे भला यह कहने में क्यों संकोच करेंगे कि हमारी भाषाएँ आधुनिक जगत् के योग्य नहीं हैं। मैं इस सम्बन्ध में एक बात और कहना चाहता हूँ। आजकल हिन्दी का तिरस्कार करने के लिए बराबर यह कहा जाता है कि जो हिन्दी काम में लाई जा रही है, वह इतनी क्लिष्ट, इतनी दुरूह है और की जा रही है कि कोई उसे नहीं समझ सकता। मेरी यह मान्यता है कि यह बात उन लोगों द्वारा अधिकतर दुहराई जा रही है, जो हिन्दी के कभी समर्थक नहीं थे, जिन्होंने हिन्दी जीवन में कभी पढ़ी नहीं, जो हिन्दी से आज भी लगभग अपरिचित हैं और जो यह समझते हैं कि यही भाषा सरल है, जो उनकी अपनी समझ में आ जाय, अर्थात् जो स्वयं अपने को ही इस बात का मापदण्ड माने बैठे हैं कि कौन-सी भाषा दुरूह और कौन-सी सरल है। कम-से-कम जो लोग वैज्ञानिक दृष्टि से सब प्रश्नों पर विचार करने की दुहाई देते हैं, उन्हें यह तो सोचना चाहिए कि स्वयं अपने को ही और अपने सीमित ज्ञान को ही किसी प्रश्न के निर्णय के लिए मापदण्ड न मान लेना चाहिए। विज्ञान का यह पहला सिद्धान्त है कि निजी व्यक्तित्व को ओझल करके प्रश्न पर विचार किया जाय। किन्तु, हिन्दी का यह दुर्भाग्य है कि उसके विषय में विचार करते समय कुछ ऐसे महान् व्यक्ति भी, जो सब दृष्टि से परमपूज्य और आदरणीय हैं, इस विचार की वैज्ञानिक प्रणाली को भूल जाते हैं। आज जो हिन्दी लिखी जा रही है, वह कहाँ तक बोधगम्य और जनप्रिय है, इस बात का निर्णय तो इसी से हो जाता है कि हिन्दी के समाचार-पत्र, हिन्दी पुस्तकें जनता में कितनी बिकती हैं, कितनी पढ़ी जाती हैं। स्मरण रहे कि ये हिन्दी की पुस्तकें या ये हिन्दी के समाचार-पत्र ऐसी परिस्थितियों में जनता द्वारा गृहीत किये जा रहे हैं, जो हिन्दी और अन्य देशी भाषाओं के सर्वथा प्रतिकूल कर दी गई हैं। आज हिन्दी और देशी भाषाओं को वैसी कोई सुविधा प्राप्त नहीं है, जैसी अँगरेजी के लिए उदारता से उपलब्ध की जा रही है। यह सभी को ज्ञात है और इस सम्बन्ध में लोकसभा, राज्यसभा आदि में भी काफ़ी प्रश्नोत्तर तथा भाषण हो चुके हैं कि हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के पत्रों को सरकारी विज्ञापन उस प्रकार नहीं मिलते, जिस प्रकार अँगरेजी-पत्रों को मिलते हैं, चाहे इन भारतीय भाषाओं के पत्रों की ग्राहक-संख्या अँगरेजी-पत्रों से अधिक ही क्यों न हो। विज्ञापन देने के सम्बन्ध में सरकार की इस नीति में तुरन्त परिवर्तन होना आवश्यक है। विना इसके भारतीय भाषाओं के पत्रों का स्तर ऊँचा नहीं उठ सकता और न उनका आर्थिक ढाँचा सुधर सकता और न उनका सम्मान ही बढ़ सकता। क्या संघ और क्या राज्य सर्वत्र ही अँगरेजी पढ़े-लिखे को ही शासन में पद मिलता है, जिसकी अँगरेजी अच्छी नहीं, वह सेवा-आयोगों द्वारा ली जानेवाली परीक्षाओं में कदापि सफल नहीं हो सकता। इसका परिणाम यह हो रहा है कि जिन प्रदेशों में शिक्षा का माध्यम हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाएँ कर दी गई हैं, वहाँ के विद्यार्थी इन परीक्षाओं में अपने को पिछड़ा हुआ पाते हैं। इस प्रकार, उन प्रदेशों को दण्ड दिया जा रहा है, जिन्होंने भारतीय भाषाओं का आँचल पकड़ा है। फिर, इसमें क्या आश्चर्य की बात है कि अनेक माता-पिता जो अपनी संतान का भविष्य उज्जवल करना चाहते हैं, इस बात की माँग करें कि अँगरेजी पुन: शिक्षा का माध्यम बनाई जाय और अँगरेजी का स्तर ऊँचा किया जाय। साथ ही, इसमें क्या आश्चर्य की बात है कि हमारे देश का अभिजात-वर्ग इस बात का प्रयास करे कि उसके पुत्र-पुत्रियाँ अँगरेजी या पब्लिक स्कूलों में प्रवेश पा जायँ। कुछ दिन हुए, एक आँग्ल भारतीय नेता ने दम्भ के साथ कहा था कि मन्त्री लोग भी आँग्ल भारतीय विद्यालयों में अपने बालकों को प्रविष्ट करने के लिए लालायित रहते हैं। पर, जब हिन्दी और अन्य देशी भाषाओं के गले में फाँसी डाल दी गयी है और उनका आसरा लेनेवालों के लिए कोई भविष्य नहीं छोड़ा गया है, तब इसमें आश्चर्य कि अपने बालकों को उच्च आसन पर बिठाने के इच्छुक माता-पिता इन आँग्ल भारतीय विद्यालयों में उनको प्रवेश कराना चाहें। इसपर भी देशी भाषाओं की पुस्तकें लाखों की संख्या में बिकती हैं और पढ़ी जाती हैं और पाठकों को यह कभी नहीं लगता कि उनकी भाषा उनकी समझ में नहीं आती।
मजे की बात यह है कि लोग इस बात की बहुत दुहाई देते हैं कि हिन्दी अत्यन्त सरल बनाई जाय, उन्हीं लोगों ने यह फैसला भी कर दिया है कि जहाँतक वैज्ञानिक शब्दावली का प्रश्न है, वह पूरी-की-पूरी अँगरेजी भाषा से ज्यों-की-त्यों ले ली जाय। क्या यह बात उन्हें नहीं दिखती कि वह शब्दावली हमारे देशवासियों के लिए, अत्यन्त दुरूह और क्लिष्ट होगी और यहाँ के 99.9 प्रतिशत लोग उसे समझने में पूर्णत: असमर्थ होंगे। मैं इस सम्बन्ध में आपके समक्ष कुछ उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ। नीम जैसे सरल सुबोध और जनप्रिय शब्द के लिए अब हमारी वैज्ञानिक शब्दावली में Azadirachta Indica लिखा जायगा। मैं नहीं जानता कि आपमें से कितने लोग और आपमें से ही क्यों, इस देश में से कितने लोग इस शब्द को समझ पायेंगे। मैं तो यह भी कहता हूँ कि अँगरेजी के हिमायतियों में से भी 99 प्रतिशत इसको बोल न सकेंगे, समझने का तो प्रश्न ही क्या। ऐसा ही दूसरा शब्द हल्दी है, जिसके लिए हमारी वैज्ञानिक शब्दावली में लिखा जायगा Curuma Longa, धनिये के लिए लिखा जायगा Coriandrum Satibum, हींग के लिए लिखा जायगा Ferula Asa Foetida; इसी प्रकार सोने को Aurum कहा जायगा, लोहे को Ferrum और सीसे को Plumbum कहा जायगा। मैंने कुछ अन्य शब्दों की एक सूची तैयार की है, जिसको यहाँ पढ़कर सुनाना आवश्यक नहीं है, इस सूची में तो कुछ ही शब्द दिये हुए हैं, किन्तु ऐसे ही लाखों शब्द, जिन्हें कोई नहीं समझ सकता, हिन्दी पर लादने का निश्चय किया जा चुका है। मैं यह पूछता हूँ कि सरलता का सिद्धान्त इस क्षेत्र में क्यों लुप्त हो गया। यदि यह कहा जाय कि वैज्ञानिक क्षेत्र में यह आवश्यक है कि शब्द बड़े निश्चित और सधे हुए हों और इसलिए कठिन शब्दों से नहीं बचा जा सकता हो, तो फिर यह कहना कि अन्य क्षेत्रों में सूक्ष्म विचार व्यक्त करने के लिए या भावों की चामत्कारिक अभिव्यक्तियों के लिए कठिन शब्द आवश्यक न होंगे, ठीक नहीं है। शब्दों का चयन विषय के अनुसार होता है और एक विषयवालों को दूसरे विषय के शब्द दुरूह लगा करते हैं। इसका एक बड़ा उत्तम उदाहरण अभी हाल में मिला है। संयुक्तराष्ट्र में वक्ताओं के भाषणों का तात्कालिक अनुवाद करने के लिए अत्यन्त योग्य अनुवादक और कई भाषाओं के ज्ञाता नियुक्त हैं। कुछ दिन हुए, वैज्ञानिकों के एक सम्मेलन में इन अनुवादकों को वैज्ञानिकों के भाषणों का अनुवाद करने का काम सौंपा गया, किन्तु इनमें से एक भी उसे न कर पाया; क्योंकि जिन विषयों की चर्चा इस वैज्ञानिक सम्मेलन में थी, उन विषयों से ये अनुवादक परिचित न थे। अत:, यदि हिन्दी की अन्य भारतीय भाषाओं की विभिन्न विषयक शब्दावली हमारे कुछ राजनीतिज्ञों की समझ में न आये तो उन्हें यह न समझना चाहिए कि जान-बूझकर कोई इन भाषाओं को दुरूह बना रहा है और कम-से-कम उन लोगों को तो इस सम्बन्ध में कुछ कहने का अधिकार हो ही नहीं सकता, जिन्होंने भारतीय भाषाओं में से किसी को पढ़ने का कष्ट नहीं उठाया है। अत: मेरा विनम्र निवेदन है कि अँगरेजी के भक्त हमारी भाषाओं का निरादर और अपमान करने से अब अलग रहें। यह हमारे देश का अपमान है, हमारी सांस्कृतिक जननी का अपमान है।
ऐसे ही खेद की यह बात है कि अँगरेजी के कारण हममें कुछ यह भावना पैदा हो गई हो कि हम विदेशियों से कुछ हेय हैं और हम उनके समकक्ष तभी हो सकते हैं, जब हम उनकी भाषा में ही या अँगरेजी के माध्यम द्वारा उनसे बात करें। मेरी यह मान्यता है कि यही हेयता की भावना इस तर्क के पीछे है कि बाह्य जगत से हमारा सम्पर्क केवल अँगरेजी के माध्यम द्वारा ही हो सकता है। कहा यह जाता है कि आज संसार के विभिन्न देश एक-दूसरे के अत्यन्त निकट आ गये हैं उर इसलिए प्रत्येक देश और प्रत्येक जाति के लिए यह वांछनीय है कि सारे भू-मण्डल से अपना सम्पर्क बनायें रखे और जहाँतक हमारे देश का सम्बन्ध है, यह कहा जाता है कि यह सम्पर्क केवल अँगरेजी के माध्यम द्वारा ही रखा जा सकता है। प्रश्न यह होता है कि हमारे लिए ही यह क्यों आवश्यक है कि हमारा बाह्य जगत् से सम्पर्क अँगरेजी के माध्यम द्वारा ही हो? यह बात फ्रांस, रूस, दक्षिण अमेरिका, चीन आदि के लिए आवश्यक क्यों नहीं है? क्या इन देशों का बाह्य जगत् से सम्पर्क नहीं है? क्या वे लोग संयुक्तराज्य में केवल अँगरेजी के द्वारा ही विचार-विनिमय करते हैं? क्या यह सत्य नहीं है कि दक्षिणी अमेरिका के राज्यों के प्रतिनिधि स्पेनिश भाषा के माध्यम द्वारा, रूस के प्रतिनिधि रूसी भाषा के द्वारा और चीन के चीनी भाषा के द्वारा सब काम वहाँ करते हैं? यदि वे लोग अपनी-अपनी भाषाओं के माध्यम द्वारा बाह्य जगत् से सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं, तो फिर ऐसी कौन-सी बाधा है कि हम अपनी भाषा के माध्यम द्वारा बाह्य जगत् से सम्बन्ध स्थापित न कर सकें? यह ठीक है कि आज संयुक्तराष्ट्र में हिन्दी एक स्वीकृत भाषा नहीं है, किन्तु क्या इसका यह कारण नहीं है कि जिस समय संयुक्तराष्ट्र की स्थापना हुई थी, उस समय हम परतन्त्र थे और अँगरेजों के दास थे, अत: वहाँ हमारे सम्बन्ध में यह विचार ही पैदा न हुआ कि हमारी भी कोई माँग हो सकती है। चीन ने अपनी गरिमा रखने के लिए अपनी भाषा को वहाँ मान्य कराया, किन्तु क्या स्वतन्त्र होने के पश्चात् हमने एक दिन भी यह प्रयास किया है कि हमारी भाषा उस संगठन की एक स्वीकृत भाषा हो जाय? पर हम करते ही कैसे, जब हम अपने देश में ही अपनी भाषा को राज्यासन पर बिठाने को उत्सुक नहीं हैं। परिणाम यह हुआ है कि विदेशी हमको तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं और समझते हैं कि हम ऐसी बर्बर जाति के लोग हैं, जिनकी अपनी कोई भाषा नहीं और जो अपने भूतपूर्व शासकों की भाषा की जूठन से काम चलाते हैं। कैसा पतन है यह उस देश का, जिसकी भाषा एक दिन सारे दक्षिण एशिया और अन्य देशों की विचार-विनिमय की भाषा थी, जिसमें अनेक देशों के विद्यार्थी उस भाषा का ज्ञान उपार्जित करने को आते थे और जो देश सारे सभ्य जगत् का सांस्कृतिक केन्द्र था। कैसा पतन है कि आज उस देश के वासी इस बात में अपना गौरव समझें कि उनकी सन्तान केवल अँगरेजी बोल सकती है, इस देश की एक भाषा नहीं। हमारी आत्मा का हनन इससे अधिक और क्या हो सकता है और यह इसलिए हुआ है कि अँगरेजी हमपर लादी गई। राजनीतिक शास्त्र में एक सूत्र है कि यदि कोई जाति अन्य जाति पर अपना राज्य पूर्णत: जमाना चाहती है, तो उसे यह चाहिए कि वह विजित जाति की भाषा नष्ट कर दे। अँगरेजों ने इस प्रयोजन से हमपर अँगरेजी लादी थी। वे हमारी भारतीय आत्मा का हनन करना चाहते थे। वे इसमें कुछ सीमा तक सफल हुए, किन्तु हमारी क्रान्ति ने उन्हें पूर्णत: सफल न होने दिया, पर आज हमारी आत्मा की इस शत्रु को हमपर क्यों लादा जा रहा है?
मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मुझे अँगरेजी भाषा से कोई विद्वेष नहीं है, किन्तु जो काँटा मेरे मन में चुभता है वह यह है कि इस भाषा को हमारे देश में विषमता का, शोषण का, वर्ग-प्रभुत्व का साधन बनाया जा रहा है और इसका ऐसा प्रयोग किया जा रहा है कि जिससे हमारे देश की आत्मा का हनन हो। इस विषय में मेरा वही मत है, जो अँगरेजों के सम्बन्ध में गांधीजी का था। वे सदा कहते थे कि उनकी अँगरेज जाति से शत्रुता नहीं, अँगरेजों से वे प्रेम करते हैं, परन्तु यह होते हुए भी अँगरेजी राज्य इस देश पर अस्वाभाविक है, इस देश की समस्त पीड़ाओं का कारण है, इसलिए उसे जाना ही चाहिए। अँगरेजी भाषा के सम्बन्ध में भी मेरी यही स्थिति है। यदि अँगरेजी से ऐसे ही बरता जाय, जैसा कि अन्य विदेशी भाषाओं से बरता जाता है, तो मैं उसका स्वागत करूँगा। न तो मुझे और न किसी हिन्दी या भारतीय भाषाप्रेमी को इस बात में कोई आपत्ति है या हो सकती है कि जो लोग चाहें, वे अँगरेजी सीखें, चाहे फ्रांसीसी सीखें, चाहे चीनी सीखें। यदि कुछ लोग कई भाषाएँ सीखना चाहते हों तो यह भी अच्छी बात होगी। और इसके लिए प्रबन्ध होना चाहिए। किन्तु, केवल इस दृष्टि से कि यहाँ अँगरेजी लादी जाय, यह दलील देना कि कई भाषाओं का ज्ञान-उपार्जन हर विद्यार्थी के लिए वांछनीय है, कुछ उचित बात नहीं है। मैं यह पूछना चाहता हूँ कि जो लोग आज इस वांछनीयता की दुहाई देते हैं, उनमें से कितनों ने यह सोचा भी है, प्रयास करने का तो प्रश्न ही नहीं, कि वे इस देश की कुछ भाषाएँ भी सीख लें। मुझे तो ऐसा लगता है कि अँगरेजी के अतिरिक्त उन्होंने कोई और भाषा सीखने का विचार तक नहीं किया और यहाँ तक कि जो भाषा उन्हें अपनी माता से मिलती थी, उसको भी उन्होंने भुला दिया और यह प्रयास किया कि उनकी संतान अँगरेजी के अतिरिक्त न और कुछ जाने, न बोले। अँगरेजी के मोह में वे इतने पागल हैं कि इस विचार से कि पाँच-छह वर्ष की अवस्था से हमारे देश के बालकों को वे अनिवार्यत: अँगरेजी पढ़ाने के लिए तर्क दे सकें, उन्होंने अँगरेजी बोलनेवालों देशों से विद्वान् बुलाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि छोटे बालकों के लिए कई भाषाएँ सीख लेना बहुत आसान होता है, और इसीलिए छोटी कक्षाओं में ही उन्होंने अँगरेजी की पढ़ाई आरम्भ कर दी है। पर प्रश्न यह होता है कि अँगरेजी की ही क्यों? क्यों इस देश की कई भाषाओं का ज्ञान कराना ठीक नहीं? पर ऐसी कोई योजना नहीं दिखाई पड़ती। कहा यह जाता है कि फ्रांस का राजकुल अपने मुकुट को आँखों पर धरे पहाड़ के कगार पर जा रहा था और खड्ड में जा पड़ा एवं विनष्ट हो गया। कहीं इतिहास यह न कहे कि भारत में अँगरेजी-वर्ग इस अँगरेजी मुकुट को आँखों पर धरे इसी प्रकार खड्ड में जा पड़ा। मेरा यह प्रयास है कि समय रहते हम सँभल जाय और इसी दृष्टि से मैं आप सबका आह्वान करता हूँ कि आप इस महाप्रयास में लग जायँ कि इस देश की भाषाएँ शीघ्रतिशीघ्र राज्य-क्षेत्र में अपना उचित स्थान पा जायँ।यह कितनी भारी विडम्बना है कि इन परीक्षाओं के लिए यूरोप की प्रादेशिक भाषाएँ, अर्थात् फ्रेंच, जर्मन, इटालियन इत्यादि-इत्यादि वैकल्पिक विषयों में तो हों, किन्तु इस देश की एक भी प्रादेशिक भाषा उस सूची में न हो। मानों, हमारे राज-कर्मचारियों के लिए फ्रांसीसी या स्पेनिश सीखना तो वांछनीय है, किन्तु इस देश की एक भी प्रादेशिक भाषा जानना या सीखना वांछनीय नहीं है। अँगरेजों ने तो इस देश की भाषाओं को इन परीक्षाओं के लिए वैकल्पिक विषय इसलिए न रखा था कि उनकी तुलना में यहाँ के परीक्षार्थी अधिक सफलता प्राप्त न कर पायें और यूरोप की प्रादेशिक भाषाओं को इसलिए रखा था कि अँगरेज परीक्षार्थी भारतीयों की अपेक्षा उन परीक्षाओं में अधिक संख्या में सफल हो सकें। किन्तु, आज किस सिद्धान्त पर भारतीय भाषाओं का बहिष्कार किया जा रहा है? इस बहिष्कार के कारन इन भाषाओं की प्रगति में बाधा पड़ रही है और यह अविलम्ब दूर होना चाहिए।
इसके अतिरिक्त आज हमारी भाषाओं के सामने यह बाधा भी है कि उनका प्रयोग उच्च न्यायालयों में नहीं हो सकता। हमारा आज जो संविधान है, उसमें यह एक उपबन्ध है कि उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय की भाषा केवल अँगरेजी होगी। परिणामत:, वहाँ व्यवसाय करनेवाले सब लोग अँगरेजी का ही प्रयोग कर सकते हैं और करते हैं। स्वभावत: सारे विधि-व्यवसायों का हित इसी में हो जाता है कि वे देशी भाषाओं से कुछ विशेष वास्ता न रखकर अँगरेजी से ही अपना वास्ता रखें। विधि के क्षेत्र से हमारी भाषाओं के इस बहिष्कार के कारण भी वे पनप नहीं पातीं। कैसी अजीब बात है कि जिस देश के निन्यानबे प्रतिशत लोग अँगरेजी का एक शब्द नहीं समझते, उनकी जीवन-व्यवस्था के लिए नियम और विधियाँ अँगरेजी में ही बनाई जायँ। जो कारखानों में काम करते हैं और जिनके लिए अँगरेजी ‘करिया अक्षर भैंस बराबर’ है, उनके अधिकारों की विधियाँ भी अँगरेजी में बनाई जायँ। परिणाम यह है कि विधियों से जो अधिकार हमारे जनसाधारण को मिले हुए हैं और जो दायित्व उनपर रखे हुए हैं, उनसे वे सर्वथा अपरिचित रह जाते हैं और कुछ मुट्ठी-भर अँगरेजी पढ़े-लिखे हाथों की इसलिए कठपुतली हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त हमारी न्याय-प्रणाली इस अँगरेजी के कारन अत्यन्त खर्चीली और शिथिल गतिवाली हो गई है। जब कभी उच्च न्यायालय में कोई अपील जाती है, तब इस कारण कि उच्च न्यायालय की भाषा अँगरेजी है, उस मुकदमे की पूरी कार्यवाही का उल्था अँगरेजी में करना पड़ता है। इस उल्थे को पेपर-बुक कहा जाता है और इसके तैयार करने में पर्याप्त धन और समय का खर्च होता है। कभी तो पेपर-बुक हजारों रुपया खर्च बैठता है और वर्षों में यह तैयार होता है; किन्तु कैसे आश्चर्य की बात है कि न्याय-प्रणाली के इस दोष के प्रति विधि-आयोग ने संकेत तक नहीं किया है; क्योंकि अँगरेजी का चश्मा उसकी आँखों पर भी चढ़ा हुआ था और वह अँगरेजी से होनेवाली इस हानि को देख ही नहीं सकता था। मैं समझता हूँ कि हमारी भाषाओं की इस बाधा को भी तुरन्त दूर कर देना चाहिए और इस बात की अनुमति चाहिए कि उच्च न्यायालयों में और उच्चतम न्यायालय में देशी भाषाओं या हिन्दी का प्रयोग किया जा सके।
इसके अतिरिक्त हमारे मन्त्रियों और उच्च पदाधिकारियों द्वारा भी अँगरेजी का अपने सब कार्यों में प्रयोग हमारी भाषाओं के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ के सिद्धान्त के अनुसार इन मन्त्रियों की देखादेखी अन्य लोग भी इसी में अपना गौरव समझते हैं कि वे भी अपने विभिन्न कार्यों में अँगरेजी का प्रयोग करें, चाहे वह अँगरेजी कितनी ही टूटी-फूटी, गलत-सलत क्यों न हो।  अत:, हमारे मन्त्रियों और उच्च पदाधिकारियों को भी अपना यह कर्त्तव्य मानना चाहिए कि वे अपना सारा कार्य अपनी प्रादेशिक भाषाओं के माध्यम द्वारा ही करें। साथ ही सचिवालयों में भी हिन्दी-भाषा-भाषी क्षेत्रों में हिन्दी का प्रयोग और इतर भाषाभाषी क्षेत्रों में वहाँ की भाषाओं का प्रयोग तुरन्त होना चाहिए, तभी हमारी भाषाओं को वह सम्मान मिलेगा, जो उनकी प्रगति के लिए प्राणवायु के समान है। शब्द-संचार के जो यान्त्रिक साधन आज अँगरेजी के लिए उपलब्ध हुए हैं, वे भारतीय भाषाओं के लिए भी अविलम्ब किये जाने चाहिए, तभी हमारी देशी भाषाओं के समाचार-पत्र उस बाधा से मुक्त हो सकेंगे, जो आज उन्हें घेरे हुए है और जिसके कारण वे उतनी शीघ्रता से समाचार नहीं दे सकते, जितना शीघ्रता से कि अँगरेजी-पत्र दे लेते हैं। बाधाएँ तो और भी हैं, किन्तु उन सब को गिनाना आवश्यक नहीं है। केवल इतना कह देना मैं पर्याप्त समझता हूँ कि हमारी भाषाओं को वे सब सुविधाएँ दी जानी चाहिए, जो अँगरेजी को दी जा रही हैं। मैं  हिन्दी-भाषाभाषी राज्यों में हिन्दी चलाने की बात कहता हूँ, तब यह न समझ लिया जाय कि मैं यह मानता हूँ कि जिन राज्यों अथवा क्षेत्रों की मातृभाषा हिन्दी नहीं है, वहाँ हिन्दी का ऐसा विरोध है, जिसपर ध्यान दिया जाय।
हमारी संविधान-सभा ने सर्वमत से हिन्दी को इस देश की राजभाषा स्वीकृत किया था। आज यत्र-तत्र इतर भाषाभाषी कतिपय सज्जन हिन्दी का विरोध करते सुने जाते हैं। एक तो वे दक्षिण के चार राज्यों में से केवल तमिल-भाषाभाषी मद्रास के महानुभव हैं और कुछ बंगाल के। परन्तु, यह विरोध रोटियों के कारण है और जिस मद्रासराज्य में यह विरोध दिख रहा है, वहाँ इस विरोध के साथ ही हिन्दी सीखनेवालों की संख्या बढ़ी है। शेष भारत के किसी भी भाग में हिन्दी का कोई विरोध नहीं है। मैंने समूचे भारत के जाने कितने दौरे किये हैं और करता भी रहता हूँ और यह बात मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कहता हूँ।दूसरा हमारे प्रयास का पहलू सर्जनात्मक हो – मैं इस संस्था को बधाई देता हूँ कि इसने इस बारे में स्तुत्य कार्य दिया है। किन्तु, हम अबतक के कार्य से सन्तोष करके नहीं बैठ सकते। हमें इस देश की आत्मा की अभिव्यक्ति अपनी भाषाओं के माध्यम द्वारा ही हर प्रकार से करनी है। हमारे साहित्यकारों का यह धर्म है कि वे अपनी जीवनानुभूति अपनी भाषाओं के सुन्दरतम शब्दों में अभिव्यक्त करके इन भाषाओं के साहित्य-भाण्डार को परिपूर्ण कर दें। हमारा देश आज एक महान् यात्रा पर चल पड़ा है। ऐसी यात्रा पर, जो उस महामन्दिर में उपासना के लिए है, जिसके प्रसाद से हमारे देश के प्रत्येक नर-नारी का जीवन सब दृष्टियों से सम्पन्न, समृद्ध और आनन्दमय हो जायगपिछली शताब्दियों में अनेक कारणों से हमारा जीवन गतिहीन हो गया था और इस कारण हम अन्य जातियों से बहुत पिछड़ गये। हमें अब बड़े पग बढ़ाकर उनके समकक्ष आ जाना है और यह हम तभी कर पायेंगे, जब हमारे प्रत्येक नागरिक के हृदय में यह ज्योति जग जाये कि उस के प्रयास पर उसका और हम सबका भविष्य निर्भर करता है। हमें उसे गतिमान बना देना है, गाँव-गाँव और नगर-नगर में हमें यह नवसंदेश पहुंचा देना है। यह काम हमारे भाषा के साहित्यिकों का है, कवियों का है, कलाकारों का है और साथ ही हमारे दार्शनिकों और वैज्ञानिकों का है। मैं आपका आह्वान करता हूँ कि आप इस ज्योति-शिखा को लेकर इस भाषा की अपार शक्ति को लेकर ग्राम-ग्राम और नगर-नगर में अलख जगायें। हमारे जन-मानस को आन्दोलित कर दें, जिससे कि वे सब बाधाओं को हटाकर, सब विदेशी जंजीरों को तोड़कर अपना भाग्य-निर्माण करने के लिए और संसार की जातियों में अपना उचित स्थान प्राप्त करने के लिए, द्रुतगति से अग्रसर हो सकें।  बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के नवम वार्षिकोत्सव (1960-62 )में सभापति-पद से सेठ गोविन्ददास का व्याख्यान






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