मानव तस्करी का मकड़जाल
संजय कुमार मिश्र
कोई दस-बारह साल पहले की बात है। पहला मोबाइल खरीदा था। इंतजार में रहता कि कहीं से कोई फोन आए और बात करूँ। एक दिन सुबह-सुबह पाँच बजे ही एक फोन आया जसीडीह संथाली (देवघर, झारखंड) से। ‘‘…संजुआ बोल रहा है।’’ मैंने कहा संजय बोल रहा हूँ बोलिए। …जुलिया कहाँ है? बात कराओ…यहाँ से नौकरी कराने, यह बोलकर ले गया कि हर सप्ताह बात कराएँगे। चार महीना हो गया, न तो एक बार बात ही कराये हो और न कोई पैसा-कोड़ी भेजे हो…कहाँ है वह, जल्दी बात कराओ। मैं हक्का-बक्का रह गया। मैंने कहा, आपको कोई गलतफहमी हो गई है, मैं किसी जुलिया या आपको नहीं जानता हूँ। उसने कहा, हाँ रे, हमीं को सिखा रहे हो, हमर बेटिया को ले गया यह नंबरवा देकर और वहाँ जाकर संजय बन गया और अंगरेजी बतियाने लगा है… बहुत ज्यादा बूथ में पैसा उठ रहा है…जल्दी बात कराओ।’’ मैं समझाने का प्रयास करता रहा। फिर फोन काट दिया, परंतु पुनः तुरंत फोन आ गया, अबकी कोई महिला थी, …हम तुम्हारा क्या बिगाड़े हैं, तोहरो बहिन बेटी है। मैं परेशान हो गया कहा, देखिए आपने गलत जगह फोन किया है। उसके बाद उस महिला के मुँह से माँ-बहन की ऐसी धाराप्रवाह गालियाँ फूटीं कि यहाँ लिखना संभव नहीं है। मैंने फोन काटा। परंतु दूसरे दिन फिर उसी समय किसी दूसरे बूथ से पहले जुलिया से बात करने के लिए गिड़गिड़ाना, फिर अनेक धमकियाँ और गालियों की बौछार! यह सिलसिला करीब महीनों तक चला। किसी ने उसके यहाँ से लड़की को किसी बड़े घर में काम के लिए लाकर उन लोगों को कोई और नंबर थमा दिया था, जो दुर्योग से मेरा था। यह तो बाद में पता चला कि यह गरीब आदिवासियों को काम के नाम पर फँसाकर लड़कियों को लाने का बड़े गोरखधंधे का ही हिस्सा है।
ताजा घटना पश्चिम बंगाल निवासी 16 वर्षीय लूसी (बदला हुआ नाम) को पिछले माह उसके नियोक्ता ने वेतन माँगने पर बुरी तरह पीट-पीटकर मरणासन्न कर दिया। किसी तरह लूसी ने पुलिस से संपर्क साधा। लूसी ने 19 दिसंबर को अस्पताल में दम तोड़ दिया। पुलिस मरियम नाम की महिला को गिरफ्तार किया, जो प्लेसमेंट एजेंसी चलाती है। उसी ने लूसी को मुखर्जी नगर स्थित व्यवसायी अतुल लोहिया के घर भेजा था। जब पुलिस ने लूसी के कार्यालय में छापा मारा तो करीब 203 लड़कियों की तस्वीरें और फर्जी पतों वाला एक रजिस्टर तथा फार्म मिले। वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अनुसार मरियम ने बताया है कि इन लड़कियों के बारे में उसे खुद भी नहीं पता कि वे आज किस हाल में हैं। पता नहीं वे लड़कियाँ एक हाथ से दूसरे हाथ और फिर इसके आगे कितने हाथों से बिकती हुई किस परिणति को प्राप्त हुई होंगी।
लूसी की माँ ने रोते हुए बताया कि दो लोग उसकी इकलौती बेटी को तीन साल पहले मालदा से यह कहकर ले आए थे कि हर महीने दस हजार रुपये उसे भेजा जाएगा, परंतु आज तक न एक पैसा भेजा, न ही लाख कोशिशों के बावजूद कोई जानकारी, सिवाय गाली की। उसने बताया कि घर में चार लोगों का परिवार है और खेती के लिए एक बीघा से भी कम भूमि है, हर साल बाढ़ आती है। ऐसे हालात में मरियम और एक स्थानीय आदमी उसके पास आए और घरेलू काम-काज कराने के नाम पर बहुत जोर-जबरदस्ती करके उनकी बेटी को ले गए।
लूसी के साथ जो हुआ, उससे भी बदतर हालात एक नहीं बल्कि हजारों आदिवासी लड़कियों के साथ लगातार दसकों से बंगाल, झारखंड़, उड़ीसा, बिहार, असम उत्तराखंड, यहाँ तक कि नेपाल और बांग्लादेश तक से घरेलू काम कराने के नाम पर लाया जाता रहा है। इन कार्यों में लगी दर्जनों प्लेसमेंट एजेंसियाँ तथा उसके दम पर पलने वाले स्थानीय दलाल अधिकांश को जिस्मफरोशी के धंधे में झोंक रहे हैं। अनेक समाचार चैनलों तथा पत्र-पत्रिकाओं ने अनेक बार दिल्ली के कई मुहल्लों में बने अनेक प्लेसमेंट एजेंसियों के संचालकों एवं दलालों के काले-कारणामों को उजागर किया है कि वे किस तरह भेड़-बकरियों की कीमत पर मानव तस्करी कर उन्हें पंजाब, हरियाणा से लेकर विदेशों तक में जिस्मफरोशी के लिए भेजते हैं।
कुछ महीने पहले राजधानी दिल्ली के नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से सटे पंत मार्ग पर जिस तरह अफाक हुसैन और उसकी पत्नी सायरा बेगम 40 कमरों में 250 से ज्यादा लड़कियों को मुक्त कराया। यहाँ इन्होंने दर्जनों कोठे बना रखे थे और उसमें 11 से 17 साल की बच्चियों शारीरिक धंधा इन दड़बों में जिन अमानवीय तरीकों से करवाते रहे, वह दिल को दहला देने वाली है। इस दंपती की घोषित संपत्ति 100 करोड़ से ज्यादा है। पुलिस की कर्तव्यनिष्ठता का यह आलम रहा है कि यहाँ तैनात साठ से ज्यादा पुलिसकर्मियों का दसियों सालों से कहीं दूसरे जगह तबादला तक नहीं हुआ। सोच सकते हैं कि शासन व्यवस्था का इस धंधे को बढ़ाने में कितना याराना रिश्ता रहा है।
मानव तस्करी पर एटसेक, झारखंड चैप्टर और भारतीय किसान संघ के आंकड़ों के मुताबिक हर साल 12 से 14 हजार लड़कियाँ अवैध तरीके से दिल्ली जैसे महानगरों में ले जाई जाती हैं। 2010 तक 42 हजार लड़कियाँ मानव तस्करी का शिकार हो चुकी है जबकि इस अवधि में नेशनल क्राइम रिकार्डस ब्यूरो का आँकड़ा 33,000 का है। ध्यान देने की बात है कि यह आँकड़ा सिर्फ झारखंड का है, वह भी 2010 तक का ही। उपर बताये अनेक राज्यों के आँकड़ों को अगर मिलाया जाए तो संख्या लाखों में पहुंचेगी। इससे पता चलता है कि यह परिदृश्य कितना भयावह है।
यह कैसी विडंबना है कि हमारे पास मानव तस्करी के लिए कड़े कानून हैं। राजधानी दिल्ली में अपने आपको सबसे चौकस एवं चाक-चौबंध मानने वाली पुलिस है। केन्द्र एवं राज्यों में गरीब एवं आदिवासियों को सबसे अधिक हितैषी मानने वाली राज्य सरकारें हैं। हजारों की संख्या में समाजसेवा के नाम पर चलने वाली स्वैच्छिक संस्थाएँ हैं। फिर भी इन गरीब मासुमों को जानते-बूझते दर्दनाक मौत के मुँह में धकेला जा रहा है। इसे अंधेरगर्दी नहीं तो और क्या है? आवश्यकता है कि सभी संबंधित राज्य सरकारें इनके लिए विशेष योजनाएँ चलाकर इन्हें गरीबी नामक महामारी से मुक्त कराएँ तथा शासन एवं पुलिस मानव तस्करी के इस मकड़जाल को तत्काल नष्ट करे। इस कोढ़ से मुक्त हुए बिना हम कभी सशक्त एवं विकसित भारत की कल्पना नहीं कर सकते।
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