पूना पैक्ट का दलितों पर प्रभाव -माता प्रसाद, पूर्व राज्यपाल
भारत में जो दलितों की दुर्दशा आज है वह आज से सदीओ पहले भी थी एक बहुत बड़े संघर्ष के बाद डॉ भीम राव आंबेडकर ने अपने हक को यानी अंग्रेजो से कम्युनल अवार्ड हांसिल किया , जिसके बदले आज आरक्षण मिलता है , इसलिए आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन प्रोग्राम नहीं बल्कि इस देश पर किया गया सबसे बड़ा उपकार है इसके बारे में विस्तार से जान्ने के लिए यह लेख है (भारत रत्न बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के 54 निवार्ण दिवस पर हम इस बार दो लेख पूना पैक्ट पर छाप रहे चूंकि दोनों लेख पैक्ट के समर्थन में ही है, हम एक स्वस्थ बहस इस पर आमंत्रित कर रहे, जिसका उद्देश्य आज की मौजूदा दलित राजनीति और पूना पैक्ट का दीर्घकालिक प्रभाव का विवके संगत वि’लेषण हो यह लेख भारतीय दलित साहित्यकार सम्मेलन की पत्रिका प्रज्ञा मंथन से साभार-सम्पादक)
स्वतंत्र भारत के पूर्व, स्वतंत्र भारत का संविधान बनाने के लिए ब्रिटेन की सरकार ने, भारत के सभी राजनैतिक दलों, नवाबों के प्रतिनिधियों और कुछ निर्दलीय बुद्धिजीवियों की एक गोल मेज कोंफ्रेंस लंदन में बुलाई जिसमें दलित प्रतिनिधि के रूप में डॉ.बी.आर. आंबेडकर और राय साहब श्री निवासन भी आमंत्रित थे। निर्दलियों से सर, तेज बहादुर सप्रु० और सी० वाई चिन्तामणि भी उसमें सम्मिलित थे। इसकी पहली बैठक १२ नवम्बर १९३० ई० से १८ जनवरी १९३१ ई० तक तथा दूसरी बैठक ०७ सितम्बर १९३१ से ०९ दिसम्बर १९३१ ई० तक लंदन में चली। जिसकी अध्यक्षता ब्रिटिश प्रधानमंत्री सर रैमजे मैकानाल्ड ने की थी। इन बैठकों में डॉ. अम्बेडकर ने भारत में दलितों की दुर्दशा बताते हुए उनकी सामाजिक, राजनीतिक स्थिति में सुधार के लिए दलितों के लिए “पृथक निर्वाचन” की मांग रखी। पृथक निर्वाचन में दलितों को दो मत देना होता जिसमें एक मत दलित मतदाता, केवल दलित उम्मीदवार को देते और दूसरा मत वे जनरल कास्ट के उम्मीदवार को। महात्मा गाँधी ने डॉ. अम्बेडकर के पृथक निर्वाचन की इस मांग का विरोध किया । दोनों कांफ्रेंसों में सर्वसम्मति से निर्णय न होने पर सभी ने ब्रिटिश प्रधानमन्त्री पर इसका निर्णय लेने की जिम्मेदारी छोड़ दिया और कांफ्रेंस ख़त्म हो गयी।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री सर रैमजे मैकानाल्ड ने १७ अगस्त १९३२ ई० को कम्युनल एवार्ड की घोषणा की उसमें दलितों के पृथक निर्वाचन की मांग को स्वीकार कर लिया था। जब गांधी जी को इसकी सूचना मिली, तो उन्होंने इसका विरोध किया और २० सितम्बर १९३२ ई ० को इसके विरोध में यरवदा जेल में आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी। महात्मा गाँधी जहां पृथक निर्वाचन के विरोध में अनशन कर रहे थे वही पर डॉ० अम्बेडकर के समर्थक पृथक निर्वाचान के पक्ष में खुशियाँ मना रहे थे इसलिए दोनों समर्थकों में झड़पें होने लगी। तीसरे दिन गाँधी जी की दशा बिगड़ने लगी तब डॉ.अम्बेडकर पर दबाव बढ़ा कि वह अपनी पृथक निर्वाचन की मांग को वापस ले लें किन्तु उन्होंने अपनी मांग वापस न लेने को कहा। उधर गाँधी जी भी अपने अनशन पर अड़े रहे। इन दोनों के बीच सर तेज बहादुर सप्रू बात करके कोई बीच का रास्ता निकालने का प्रयास कर रहे थे। २४ सितम्बर १९३२ ई० को सर तेज बहादुर सप्रू ने दोनों से मिलकर एक समझौता तैयार किया जिसमें डॉ.आंबेडकर को पृथक निर्वाचन की मांग को वापस लेना था और गाँधी जी के दलितों को केन्द्रीय और राज्यों की विधान सभाओं एवं स्थानीय संस्थाओं में दलितों की जनसंख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व देना एवं सरकारी नौकरियों में भी प्रतिनिधित्व देना था। इसके अलावा शैक्षिक संस्थाओं में दलितों को विशेष सुविधाएं देना भी था। दोनों नेता इस समझौते पर सहमत हो गये। २४ सितम्बर १९३२ को इस समझौते पर सहमत हो गये। २४ सितम्बर १९३२ ई० को इस समझौते पर गाँधी जी और डॉ. अम्बेडकर ने तथा इनके सभी समर्थकों ने अपने हस्ताक्षर कर दिए। इस समझौते को “पूना पैक्ट” कहा गया। पूना पैक्ट में ही दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था उनके उन्नति की आधारशिला बनी।
पूना पैक्ट में दलितों के आरक्षण के कारण उनकी आर्थिक, शैक्षिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक स्थिति में सुधार आया है। किन्तु कुछ लोग पूना पैक्ट को दलितों के लिए हानिकारक बताकर उसका विरोध कर रहे हैं। विशेषकर बसपा समर्थकों का विरोध एक फैशन बन गया है। जबकि आरक्षण के कारण ही दलितों में सशक्तिकरण की प्रक्रिया शुरू हुई है।
पूना पैक्ट विरोधियों के अनुसार यदि पृथक निर्वाचन को मान लिया जाता तो क्या स्थिति होती ? देश के लोग दो भागों में बँट जाते, एक पृथक निर्वाचन के समर्थक, दूसरी ओर सारे गौर दलित जिनमे पिछड़ी जातियां और अल्पसंख्यक भी सम्मिलित होते, क्योंकि पृथक निर्वाचन में पिछड़ी जातियों का आरक्षण सम्मिलित नहीं था। पृथक निर्वाचन में दलित दो वोट देता एक जनरल कास्ट के उम्मीदवार को ओर दूसरा दलित उम्मीदवार को। ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था किन्तु गैर उम्मीदवार के लिए यह जरूरी नहीं था कि उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास करता। आज भी देखने में आ रहा है कि गैर दलित उम्मीदवार को दलित अपना मत देता है किन्तु गैर दलित उम्मीदवार उनकी कितनी सहायता करते है यह बताने कि आवश्यकता नहीं है। ऐसी दशा में विरुद्ध बहुमत हो जाता ओर दलितों को अधिक कठिनाईयां उठानी पडती। दो समुदायों में बँट जाने पर इनमें कटुता पैदा होती, मजदूर ओर गरीब दलित को गांवों में इसका खामियाजा भुगतना पड़ता। डॉ.अम्बेडकर ने इसी स्थिति को समझ कर ही उस समय की परिस्थिति में पूना पैक्ट करना आवश्यक समझा। यदि पृथक निर्वाचन की स्थिति मान ली जाती तो उस स्थिति में क्या कोई दलित भारत का राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, अध्यक्ष लोकसभा, मुख्य मंत्री, सुप्रीम कोर्ट का प्रधान न्यायाधीश अथवा अन्य संवैधानिक पदों पर जा पाता ? आज बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर के बनाए हुए संविधान की प्रशंसा करते हुए सभी दलित नहीं अघाते। यदि पृथक निर्वाचन की स्थिति होती तो क्या डॉ.आंबेडकर को भारत का संविधान बनाने का अवसर मिलता ?
डॉ.अम्बेडकर की पृथक निर्वाचन की मांग छोड़ देने एवं दलितों के लिए वर्तमान आरक्षण व्यवस्था को मान लेने की स्थिति के संबंध में प्रसिद्ध बौद्ध विचारक, जे.एन.यू. नई दिल्ली के प्रोफ़ेसर डॉ. तुलसी राम कहते हैं ‘पूना पैक्ट के ही चलते स्वंतत्र भारत में आरक्षण की नीति लागू हुई जिससे लाखों लाख दलितों का शैक्षिक, आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सबलीकरण हुआ। मगर बसपा समर्थक दलित पूना पैक्ट को सिरे से खारिज करके उसे दलितों के साथ गाँधी जी की दगाबाजी बताते हैं। स्वयं कांशीराम ने पूना पैक्ट का विश्लेषण करते हुए चमचायुग नाम की एक पुस्तक लिखी जिसका मूल मन्त्र यह है कि पूना पैक्ट के तहत लाभान्वित लाखों दलित कांग्रेस या शासक दल के चमचे हैं। इसलिए उन्होंने खांटी दलित सत्ता का नारा दिया है, यही से शुरू होती है दलितों की आत्मघाती राजनीति। काशीराम का यह मत था कि अगर पूना पैक्ट नहीं होता तो दलित जितना ज्यादा अत्याचार झेलते उतना ही ज्यादा बसपा का साथ देते। बसपा वालों की यह समझ माओवादियों की तरह है जो कहते हैं कि जनता जितना ज्यादा गरीबी, भुखमरी में रहेगी उतना ही ज्यादा क्रान्ति को सफल बनाएगी।
इस प्रकार कुछ लोग राजनीतिक कारणों से पृथक निर्वाचन को वर्तमान आरक्षण व्यवस्था से अच्छा बताकर दलितों को झूठे स्वर्ग का स्वप्न दिखाकर उन्हें भरमा रहे है। डॉ.आंबेडकर ने उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए जो पैक्ट किया वह सामयिक, उचित और दलितों के हित में सिद्ध हुआ। उक्त समझौते में दलितों का आरक्षण ही दलितों की शक्ति का इस समय स्त्रोत है।
डॉ.अंगनेलाल पूर्व कुलपति अवध विश्वविद्यालय अपनी पुस्तक “बाबा साहब डॉ.अम्बेडकर” में पूना पैक्ट की अन्य उपलब्धियों का इस प्रकार बताते हैं-
१- जहां कम्युनल एवार्ड में दलितों को केवल ७१ सीटें प्राप्त हुई थी वहीं पूना पैक्ट में उन्हें १४८ सीटें प्राप्त हुई।
२- महात्मा गाँधी के प्राणों की रक्षा का श्रेय दलितों को मिला।
३- छुआछूत मिटाने तथा अछूतों की शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक उन्नति की जिम्मेदारी हिन्दुओं ने अपने ऊपर ली।
४- भारत के इतिहास में यह पहली घटना थी जब अछूतों ने हिन्दुओं से अलग स्वतंत्र समुदाय के रूप में समतल धरातल पर खड़े होकर कोई राजनैतिक अधिकार संधि की हो। इस प्रकार पूना पैक्ट का लाभ दलितों को पृथक निर्वाचन की अपेक्षा अधिक मिला है।
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