संजय जोशी
भारत में किसी चीज की कमी नही है लेकिन भारत उसके बाद भी विश्वगुरू बनने के लिये प्रयासरत है तो इसका एक मात्र कारण मजदूरों के साथ हो रही घांधली है।सरकार कर रही है , अधिकारी कर रही है, जिनपर उनको न्याय दिलाने का जिम्मा है वह कर रहें है । उनके एकतरफे कारवाई के कारण रईसजादे उनके हक का माल हडपकर ऐश करें है और मजदूर दर ब दर की ठोकरें खाने को मजबूर है। कौन सुनेगा उनकी फरियाद , क्योंकि जिन्हें यह जिम्मेदारी दी गयी है वह कान में तेल डालकर उसके भागने या उसकी कम्पनी के भागने का इंतजार कर रहें है।हम यह सोचकर चुप है कि हमारा क्या जा रहा हैं। जिनका जा रहा है वह हमारे भाई नही है इंसान नही है।
ऐसा हर बार क्यों होता है कि लेबर कोर्ट आर्डर दे देती है और उसका अनुपालन नही होता है। बाद में कहा जाता है कि कम्पनी दूसरी जगह चली गयी है और वह हमारे क्षेत्राधिकार में नही आता है इसलिये हम कुछ नही कर सकते। लेकिन मजदूर का क्या ? चार पांच साल बाद जब वह अपनी कई दिहाडी खोने के बाद आदेश ले लेता है तो उसकी वह उम्मीद की किरण दिखाई देती है तो अंत में उसे भी कोर्ट खत्म कर देती है जिसके लिये उसने इतने साल बर्बाद किये। आखिर क्यों, लेबर विभाग को यहां समझने की आवश्यकता है।जो देश हित में बहुत ही जरूरी है।जिन्होने यह कानून बनाया उनके सोच को समझने की आवश्यकता इसलिये भी है कि दलित व पिछडे ही पहले इस दायरे में आते थे लेकिन अब सभी वर्ग के लोग इस कुव्यवस्था से पीडित है।कई दलों ने मजदूर संगठन भी बना रखा है लेकिन वहां इसके लिये कुछ काम नही होता बल्कि अपने अपने दल को बचाने के लिये इसका उपयोग किया जा रहा है।
अब बात इस विभाग की करते है । शुरूआत पगार न देने पर लेबर इंस्पेक्टर से होती है उसके लिये लेबर कमीशनर को प्रार्थनापत्र देता है जिसे वह लेबर इंस्पेक्टर के मुखिया को वह भेज देता है और वह क्षेत्रीय इंस्पेक्टर को, इस काम में दो तीन महीने का समय निकल जाता है जबकि यह काम उसी विभाग के अंदर एक ही आफिस में होता है , जिसे शाम होते होते पूरा किया जा सकता है।उसके बाद वादी से नोटिस भेजने को कहा जाता है जबकि यह काम कार्यालय का होता है लेकिन टिकट न होने का बहाना बनाकर वादी से 100 रूपये तक की वसूली कर ली जाती है । चार पांच महीने तक यह काम ऐसे ही चलता है और लेबर के 500 रूपये तक नोटिस के नाम पर ले लिये जाते है,यहां भी समझ में नही आता है कि एक दो नोटिस के बाद एक्स पार्टी आर्डर की प्रकिया होनी चाहिये और आदेश के लिये कमीशनर के पास प्रस्तुत कर दिया जाना चाहिये। किन्तु नही, मामले को इतना लंबा क्यों किया जाता है यह बात आज तक समझ में नही आई।
मजे की बात यह है कि फिर भी मालिक नही आता और तब लेबर को सलाह दी जाती है कि वह यूनियन के जरिये वाद दाखिल करे।यूनियन के वाद दाखिल करने से पहले वादी को बता दिया जाता है कि आपसे यह पैसे नही लेगा बल्कि जो राशि आपको मिलेगी उसमें से बीस प्रतिशत तक लेगा , कभी कभी यह बढ भी जाता है।इसका एक मात्र कारण यह है कि यूनियन मिली राशि में आधा अपने पास रखती है और आधा लेबर विभाग में उपर से नीचे तक बंटता है। यहां यह बता देना उचित होगा कि यूनियन कुछ और नही एक वकील संस्था बनाता है और मजदूरों के मामले में अपना स्वीकृत प्रदान करता है । अधिकारी से तालमेल होने के कारण अधिकारी , विभाग व वकील तीनों की दुकान चलती है और मजदूर हमेशा इनके बीच पिसकर रह जाते है । यह जिधर मजबूती देखते है या माल की आवक की खुशबू मिलती है उधर ही रूख कर लेते है , इन्हें मालिक या नौकर से नही खुद से ही सबकुछ लेना देना रहता है।खैर मामला शुरू हो जाता हैं।सबसे खास बात यह है कि यूनियन के वाद दाखिल करने से मामला खारिज नही होता बल्कि कुछ न कुछ जरूर मिल जाता है।
इसके बाद मजदूर से खुद अधिकारी के सामने खड़े रहने के लिये कहा जाता है और कुछ खास मौकों पर यूनियन की तरफ से कोई उसकी मदद करता है।अधिकारी दोनों तरफ दबाब बनाने का काम करते है और कोशिश होती है कि कुछ न कुछ मालिक से लेबर को और यूनियन को मिले , क्यों इसका मतलब बताने की जरूरत नही है।इन सारे कामों में लेबर के कंधे पर ही बंधूक रखकर चलायी जाती है।उससे पहले कागजात मांगे जाते है , एफिडेविड मांगा जाता है , लिखित बयान मांगा जाता है और कोर्ट सवाल पूंछती है फिर आदेश के लिये फाईल रख ली जाती है और दोतीन महीने बाद वादी को आदेश दिया जाता है।इस पूरी प्रकिया में तीन चार साल का समय लगता है लेकिन अगर अधिकारी बदल गया तो इतने ही साल और समझ लिजिये।यह पूरा प्रकरण पगार न मिलने पर है।
यदि आपका एक्सीडेंट हो गया है मामला और जटिल है , इन अधिकारियों की यही कोशिश होती है कि वादी को इतना परेशान किया जाय कि वह वाद को छोडकर चला जाये । ऐसा सुनियोजित ढंग से होता है पहले इंस्पेक्टर मालिक से बात करता है , रकम तय होती है और उसे भगाने का काम चालू हो जाता है।इसकाम में अडे रहने पर कुछ राशि उसे मिलती है लेकिन वह गुलाम भारत के कानून के अनुसार इतनी नही होती है कि उसका कोई काम उससे हो सके या उसे मद्द मिल सके। इसके अलावा एक और काम है जो यह विभाग करता है वह है बर्खास्त कर्मचारी केा वापस रखाने का , तीन चार साल लटकाने के बाद उसे यह आगे की कोर्ट में भेज देता है जहां नये सिरे से लड़ना पडता है जिसमें काफी समय निकल जाता हैं।
लेबर को देने के लिये सरकारों के पास कुछ नही है , इसका पता इसी से चलता है कि जो जगह सुनवाई के लिये निर्धारित की गयी है वो आबोहवा से इतनी दूर है कि कोई वहां तक पहुंचे उसके लिये वाद के दौरान हजारों तो खर्च हो जाते है साथ में पूरे दिन का समय भी निकल जाता है यानि एक दिहाडी हर तारीख पर चली जाती है। इसके बाद अधिकारियों की यह कोशिश होती है कि मजदूर केा इतना परेशान करो कि वह भाग जाय और अगर नही भाग रहा है तो कम्पनी को ले देकर भगा दो या क्षेत्राधिकार से बाहर का बहाना बनाकर टाल दो। फिर भी बात नही बनी तो तब आदेश दो जब दोनों में से कोई एक न रहे।यह है इस देश के मेहनत कश लोगों के लिये बना कानून , जिसमें लेबर के लिये कुछ नही है। अब जनता को सरकार से और कोर्ट से पूछना चाहिये कि अगर इस काम को इसी तरह से लेबर विभाग को करना है तो इस विभाग के लिये अरबों खर्च करने की जरूरत क्या हैं। मजदूरों के नाम पर लाखों पगार उठाने वाले इस विभाग के अधिकारियों को दामाद बनाकर मलाई कब तक वह खिलाते रहेंगे।आखिर मजदूरों के हक की कमाई पर डाका कब तक ।
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