कामुकता के बीहड़ों में प्रेम की तलाश !

ध्रुव गुप्त

राजाओं, बादशाहों, सामंतों और नवाबों की ज़िंदगी में प्रेम की तलाश हम सामान्य लोगों की फंतासी के सिवा कुछ भी नहीं। अकूत दौलत और सत्ता के साथ विकृत कामुकता की तलाश में भटकते ये प्रेत आज इक्कीसवी सदी में भी अगर हमारी रूमानी कल्पनाओं का हिस्सा बने हुए हैं तो इसके पीछे शायद हमारे भीतर मौजूद सामंती सोच की गहरी जड़ें ही हैं । राजतंत्र का वह युग ही ऐसा था जब राजाओं और बादशाहों की हैसियत उनके साम्राज्य के विस्तार से ही नहीं, उनके रनिवास और हरम के आकार से भी नापी जाती थी। हमारे इन इतिहास-पुरुषों के रंगमहल में झांकिए तो वहां दर्ज़नों से लेकर हज़ारों रानियों और बेगमों की भीड़ मिल जाएगी। तब किसी स्त्री की सुंदरता की चर्चा इन कामुक राजाओं, बादशाहों को उनके राज्यों पर हमला कर उन्हें लूट लाने की पर्याप्त वज़ह दे देती थी। वह ऐसा युग था जब युद्ध में विजय के बाद पराजित राज्यों का धन ही नहीं, स्त्रियां भी लूटी और विजेताओं द्वारा उनकी हैसियत के मुताबिक़ बांट ली जाती थी। हमारा मध्य युग भी ऐसा समय था जब विदेशों से आए सुल्तानों के मन में भारतीय स्त्रियों को लेकर बेहिसाब कामुक जिज्ञासा थी। कूटनीति और प्रलोभन से भी औरतें हासिल की गईं और उससे काम न बना तो आक्रमण से भी। उनकी कामुकता से बचने के लिए हज़ारों स्त्रियों के जौहर अर्थात आक्रांताओं के हाथो में पड़ने के बजाय सामूहिक रूप से आग में कूदकर जान देने के लोमहर्षक आख्यान भी मिलते हैं। इस काल में प्रेम का क्या हश्र हुआ करता था, इसे रज़िया सुल्तान, ज़हांआरा और जेबुन्निसा के जीवन में देखा जा सकता है। वह हम हैं कि विकृत कामुकता के जंगल में भी कोमल प्रेम कहानियों के सूत्र खोज लेते हैं। इसी मानसिकता के तहत लोगों ने चन्द्रगुप्त मौर्य-हेलना और अकबर-जोधा की कूटनीतिक शादियों पर भी प्रेम आरोपित किया। फिल्मकार संजय लीला भंसाली अब अल्लाउद्दीन खिलजी और पद्मावती की प्रेम कहानी लेकर आए है। इतिहास तो पद्मावती का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करता ! साहित्य उसे कवि मलिक मोहम्मद जायसी के महाकाव्य का काल्पनिक पात्र मानता है। जायसी ने सिंघल द्वीप की पदमावती को गरिमा और सौंदर्य तथा अल्लाउद्दिन को वासना के प्रतीक के तौर पर चित्रित किया है ! लोक में प्रचलित इतिहास यह है कि चितोड़ की रानी पद्मावती ने खुद को खिलजी से बचाने के लिए हजारों अन्य महिलाओं के साथ जौहर कर लिया था। अब इस बेहद उलझे हुए आख्यान में भंसाली प्रेम की ज़मीन कहां खोजते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा। क्या है कि दर्शकों को आम लोगों की सीधी-सरल प्रेम कथाओं में मज़ा भी कहां आता है ? उन्हें विराट फलक पर बनी काल्पनिक प्रेम कथाओं में ही अपनी फंतासी को विस्तार दिखता है। जहां हमने इतनी विकृतियों को प्रेम-कथा के तौर पर पढ़ा, देखा और स्वीकार किया है, ऐतिहासिक और साहित्यिक तथ्यों को विकृत करने के लिए कुख्यात भंसाली की अल्लाउद्दीन की कामुकता को गौरवान्वित करने वाली इस फिल्म को भी देख लेंगे। भंसाली का वैचारिक विरोध तो सही है, लेकिन फिल्म की शूटिंग के दौरान राजस्थान में उनके साथ करणी सेना द्वारा जो हिंसक सलूक हुआ, उसे कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। (भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी ध्रुव गुप्त दशकों से कविता, कहानी और ग़ज़ल लेखन में सक्रिय हैं।’निराला सम्मान’ और बिहार उर्दू अकादमी सम्मान से सम्मानित श्री गुप्त अब भी रचनात्मक रूप से बेहद सक्रिय हैं। यह आलेख उनके फेसबुक टाइमलाइन से साभार लिया गया है। )






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