जाति की चौखट पर मत टांगो कर्पूरी ठाकुर को!

राॅकेट साइंस पर भी बोलते थे और शास्त्रीय संगीत पर भी

शिवानंद तिवारी

कर्पूरी जी की जयंती पर भारी मारामारी है। हर रंग की राजनीति के बीच हम ही कर्पूरी जी की राजनीति के असली वारिस हैं – यह साबित करने के लिए घमासान मचा हुआ है। मुख्यधारा की तमाम पार्टियां उनकी जयंती मनाकर उनको अपना साबित करने की कोशिश कर रही हैं। इस मारामारी और घमासान के पीछे एक ही मक़सद है। कमज़ोर जातियों को अपनी ओर आकर्षित कर अपने पीछे उनको गोलबंद करना। दूसरी ओर इन तमाम धूम-धड़ाकों से दूर छोटी-छोटी और कमज़ोर जातियों के लोग भी जहां -तहां इकट्ठा होकर कर्पूरी जी के चित्र पर फूल माला अर्पित कर उनके प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित करेंगे। यह जमात कर्पूरी जी की राजनीति की विरासत की दावेदारी के लिए उनकी जयंती नहीं मनाती है। कर्पूरी जी उनके लिए वोट हासिल करने के माध्यम नहीं हैं। ये कर्पूरी जी पर गर्व करने वाले लोग हैं। उनको इस बात का फ़ख्र होता है कि उंगली पर गिनी जा सकने वाली जाति में पैदा होने वाला नाटे क़द का यह विलक्षण आदमी कैसे राजनीति के शीर्ष पर पहुंच गया! उनका दिल कचोटता है। हम जो कर्पूरी जी की जैसी छोटी और कमज़ोर जाति में पैदा होने वाले लोग हैं, आज की राजनीति में कहां है!

यह एक मौजूं सवाल है। हमारे सामने आज जो राजनीतिक परिदृश्य है, उसके देखते हुए क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि कर्पूरी ठाकुर जैसी जाति में पैदा होने वाला व्यक्ति उनकी या उनके आस-पास की ऊंचाई तक पहुंच सकता है! फिर यह सवाल उठता है कि कर्पूरी जी ने कैसे वह मुकाम हासिल कर लिया! इस सवाल का जवाब हमें उनके राजनीतिक जीवन के सफ़र में तलाश करने की कोशिश करनी होगी।

कर्पूरी जी का जन्म ग़ुलाम भारत में हुआ था। जब वे जवान हो रहे थे, उस समय आज़ादी की लड़ाई परवान पर थी। संवेदनशील और युवा कर्पूरी इस लड़ाई से अपने आपको अलग नहीं रख पाये। पढ़ाई छोड़कर आजादी के उस संग्राम में शामिल हो गये। फलस्वरूप जेल यात्रा करनी पड़ी। जेल के भीतर भी चुपचाप जेल नहीं काटा। बल्कि वहां के भ्रष्टाचार और अन्याय के विरुद्ध लंबा उपवास किया। इसी दरम्यान वे कांग्रेस की भीतर समाजवादियों के साथ जुड़ गये।

आज़ादी के बाद कर्पूरी जी कांग्रेस के साथ नहीं गये। बल्कि समाजवादियों के ही साथ रहे। समतावादी समाज की स्थापना का सपना देखने वाले उस जमात में सिर्फ़ पिछड़े ही नहीं थे। बल्कि समाज के नवनिर्माण का साझा सपना देखने वालों की उस जमात में अगड़े-पिछड़े सब शामिल थे। शीर्ष पर तो अगड़ों की तादाद ही ज़्यादा थी। आज़ादी के बाद दो-तीन दशक तक समाजवादियों की गाथा संघर्ष की गाथा है। मार खाना, जेल जाना, उपवास करना प्राय: उस समय का नियम था। मजदूर संगठनों से भी कर्पूरी जी जुड़ाव था। डाक-तार विभाग के कर्मचारियों की हड़ताल में जेल गये। गोमिया ऑर्डिनेन्स फ़ैक्टरी (गिरडीह) में हड़ताल करवाया। वहां भूख-हड़ताल किया। 1965 में गांधी मैदान में मेरे सामने कर्पूरी जी, तिवारीजी, कम्युनिस्ट पार्टी के चंद्रशेखर सिंह, रामअवतार शास्त्री सहित कई नेताओं को गांधी मैदान में बुरी तरह पुलिस से पिटवाया गया। कर्पूरी जी के हाथ की हड्डी दो जगहों पर टूट गयी थी। उस समय बिहार में केबी सहाय की सरकार थी। हिंदी पट्टी में अपने संघर्ष के ज़रिये समाजवादियों ने समाज के शोषित और वंचित तबक़ों को जगाया। कर्पूरी जी उस संघर्ष के अगुआ नेता थे।

इन सबके अलावा कर्पूरी जी विलक्षण नैसर्गिक प्रतिभा के भी धनी थे। यहां उसका दो उदाहरण मैं देना चाहूंगा। पहला उदाहरण, जिसके विषय में उमेश्वर बाबू (उमेश्वर प्रसाद सिंह, बिहार सेवा के तत्कालीन पदाधिकारी जो कर्पूरी जी के आप्त सचिव हुआ करते थे) ने मुझे बताया था। कर्पूरी जी के मुख्यमंत्रीत्व काल में बीआईटी मेसरा, रांची में राॅकेट साइंस से जुड़े वैज्ञानिकों का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। मुख्यमंत्री के तौर पर कर्पूरी जी को उसका उद्घाटन करना था। सम्मेलन में जाने के लिए पटना से चलने के पहले ब्रिटानिका इनसाइक्लोपीडिया का राॅकेट साइंस वाला खंड ले लेने के लिए उमेश्वर बाबू को उन्होंने कह दिया था। सरकारी जहाज में बैठने के बाद उमेश्वर बाबू से ब्रिटानिका इनसाइक्लोपीडिया का वह खंड लेकर 40-50 मिनट की उस हवाई यात्रा के दरम्यान राॅकेट साइंस के विषय में जितना जानना था, उन्होंने जान लिया। उमेश्वर बाबू ने बताया कि कर्पूरी जी का उस सम्मेलन में जो भाषण हुआ, उसने सम्मेलन में शरीक राॅकेट साइंस के सभी वैज्ञानिकों को चकित कर दिया। कोई राजनेता राॅकेट साइंस जैसे दुरूह तकनीकी विषय पर इतनी जानकारी के साथ बोल सकता है, इसकी कल्पना उन लोगों को नहीं थी।

कर्पूरी जी की चकित करने वाली प्रतिभा की दूसरी घटना का गवाह मैं स्वयं हूं। भारतीय शास्त्रीय संगीत में उनकी गहरी रुचि थी। उन दिनों पटना के दशहरा पूजा के दरम्यान होने वाले संगीत समारोहों की देश भर में धूम थी। शहर में जगह-जगह देश भर के प्रतिष्ठित गायक, वादक और नर्तकों का जुटान होता था। इन समारोहों में कहीं न कहीं कर्पूरी जी संगीत का आनंद लेते बैठे ज़रूर दिखाई दे जाते थे। एक मर्तबा पटना काॅलेजिएट स्कूल के मैदान में स्व रामप्रसाद यादव की भारतमाता मंडली द्वारा आयोजित समारोह का अंतिम कार्यक्रम हो रहा था। मंच पर बिस्मिल्लाह खां साहब और उस्ताद अब्दुल हलीम जाफ़र खान साहब का संयुक्त कार्यक्रम था। अद्भुत था वह कार्यक्रम। समापन के बाद जब हमलोग चलने लगे, तब मेरी नज़र कर्पूरी जी पर पड़ी। वे भी चलने लगे थे। अचानक रामप्रसाद जी ने कार्यक्रम समापन पर धन्यवाद ज्ञापन के लिए कर्पूरी जी को आमंत्रित कर दिया। कर्पूरी जी ने धन्यवाद ज्ञापन भाषण में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के गंगा-जमुनी चरित्र पर चंद मिनटों में जो कुछ कहा, उसकी गूंज आज तक मुझसे अलग नहीं हुई है। उसके बाद तो दोनो कलाकारों ने कर्पूरी जी को पकड़ कर एक तरह से उठा लिया! बिस्मिल्लाह खां साहब ने कहा कि मैं इतने दिनों से पटना आ रहा हूं। अब तक आप कहां छिपे थे गुदड़ी के लाल!

आज हम सब लोगों ने कर्पूरी जी को अतिपिछड़ा के चौखट पर टांग दिया है। यह ठीक है कि सबकी तरह कर्पूरी जी की भी जाति थी। ऐसी जाति जो अतिपिछड़ों में भी पिछड़ी है। लेकिन कर्पूरी जी ने जो मुकाम हासिल किया है, उसका आधार उनकी जाति में देखना उनको छोटा बनाना होगा। कर्पूरी जी ने संघर्ष किया था। देश को आज़ाद कराने का संघर्ष। आज़ादी के बाद देश में समाजवादी समाज बनाने का संघर्ष। संघर्ष की आंच मे तप कर निखरे थे कर्पूरी जी। समाजवादी आंदोलन की ताक़त ने उनको उस ऊंचाई पर पहुंचने का आधार प्रदान किया था, जिसके वे हक़दार थे। समाजवादी आंदोलन की वह धारा आज सूख गयी है। इसलिए जब तक वह धारा पुनर्जीवित नहीं होगी, तब तक कमज़ोर समाज से तेजस्वी नेतृत्व उभरने की संभावना मुझे नहीं दिखाई दे रही है।

शिवानंद तिवारी। वरिष्ठ राजनेता और चिंतक। लंबे समय तक राज्यसभा सांसद रहे। जेडीयू के राष्ट्रीय महासचिव और प्रवक्ता भी रहे। जेडीयू में आने से पहले राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता थे। जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में काफी सक्रिय हिस्सेदारी थी। इन दिनों सक्रिय राजनीति से अलग होकर पटना में रिहाइश।

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