अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश क्यों ? 

नीतिश पाण्डेय.
हमारा देश निष्पक्ष चुनाव एवं लोगों की आवाजाही के मामलों में बहुत हद तक प्रजातांत्रिक लगता है, परंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में अभी भी बहुत पीछे है। पुराने हो चुके उपनिवेशवादी कानूनों को पकड़े रखना इसका पहला कारण है। भारतीय दंड संहिता में अनेक ऐसी धाराएं हैं, जो कला, सिनेमा और पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाने के लिए प्रयोग में लाई जाती हैं। इनमें 124ए राजद्रोह से संबंधित एक ऐसा खंड है, जो सरकार एवं न्यायालयों को अभिव्यक्ति की सवतंत्रता को प्रतिबंधित करने की खुली छूट देता है।
इसका खतरा हमारी जर्जर हो चुकी न्याय व्यवस्था से है। ऐसा लगता है कि हमारी निचली अदालतें किसी भी समुदाय द्वारा किसी फिल्म, पुस्तक या कलाकृति पर उंगली उठाते ही तुरंत उसे प्रतिबंधित करने के लिए आतुर रहती हैं। अब तो हमारी कलाओं, पुस्तकों या फिल्मों की जिन्दगी संवेदनशीलता या भावनाओं को ठेस पहुँचाए जाने की शिकायत करने वालों के हाथों की बंधक हो गई है। अगला  खतरा हमें अपनी पुलिस फोर्स से है। कभी भी जब न्यायालय लेखकों या कलाकरों का पक्ष लेते हैं, तो पुलिस वाले गुंडों की मदद से उन्हें सताते हैं।
हमारे नेताओं की कमजोरी पांचवा बड़ा खतरा है। हमारे लेखकों, फिल्मकारों या कलाकारों को कट्टरपंथियों और समाज के ठेकेदारों से बचाने के लिए नेता कभी आगे नहीं आए। उल्टा उन्होंने उन कट्टरपंथियों का ही साथ दिया। कांग्रेस ने सलमान रशदी के सैटेनिक वर्सेस पर प्रतिबंध लगाया था और वह भी आयतुल्ला खुमैनी के फतवा जारी करने से पहले। बंगाल के शिक्षित एवं साहित्य-प्रेमी मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने तस्लीमा नसरीन की पुस्तक पर प्रतिबंध ही नहीं लगाया था, बल्कि उन्हें बंगाल से भी निष्कासित कर दिया था। इसी प्रकार  गुजरात में नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में हुसैन दोशी गुहा के साथ असामाजिक तत्वों ने अभद्रता की थी। वस्तुतः सभी नेता वोटों की गिनती को ध्यान में रखकर काम करते हैं। वे आने वाले चुनावों के लिए किसी जाति या धर्म के लोगों को नाराज करके अपने वोट नहीं गंवाना चाहते।
हमारी मीडिया का सरकारी संस्थाओं पर निर्भर होना भी एक बड़ा संकट है। अधिकतर क्षेत्रीय प्रेस तो पूरी तरह से राजनैतिक संरक्षण पर चलती हैं। इनके नेता किसी भी समय मीडिया को कुछ भी छापने या न छापने पर मजबूर कर सकते हैं। स्वतंत्र संवाददातओं या खबरों को अपनी मर्जी से तोड़-मरोड़ सकते हैं। निजी क्षेत्रों में यही काम शक्ति की जगह पैसे से करवाया जाता है।
भारतीय मीडिया को अपने संचालन के लिए व्यावसायिक विज्ञापनों पर निर्भर रहना पड़ता है। आमतौर पर अंगे्रजी अखबार एवं टेलीविजन चैनल तो पूरी तरह से इन पर ही निर्भर हैं। इसके कारण प्राणघातक उत्पाद बनाने वाली कंपनियों के विज्ञापन भी इन अखबारों एवं चैनलों पर इसलिए नहीं रोके जाते, क्योंकि ये उनके वित्तीय आधार हैं।
अंतिम बिंदु  कुछ लेखक या कलाकार अपने कैरियर के लिए समझौते करते रहते हैं और राजनौतिक दलों के हाथ की कठपुतली बन जाते हैं। अधिकांश लेखक एवं साहित्यकारों के मन में समाज एवं राजनीति के बारे में कुछ ठोस विचार होते हैं। इसी कारण तो वे लिखते हैं, कलाकृति या फिल्म बनाते हैं। अतः कोई भी सृजनात्मक व्यक्ति इतना मूर्ख नहीं हो सकता कि वह अपनी अंतर्रात्मा को किसी भी राजनैतिक दल के हाथों गिरवी रख दे। (नीतीश पाण्डे गोपालगंज के हैं इन दिनों दिल्ली में अधिवक्ता हैं)






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