‘मेरिट’ का प्रश्न बनाम ‘थर्ड डिवीजन’ का जन्म
- डॉ रतनलाल
इस देश में जब-जब आरक्षण, हिस्सेदारी या वंचित जमात के समुचित प्रतिनिधित्व की बात आती है, तब-तब ‘मेरिट’ का हुडदंग खड़ा हो जाता है। इस विषय पर लगातार विद्वानों ने लिखा है, मीडिया में यह डिबेट का मुद्दा भी बना। लेकिन भारत में तथाकथित ‘मेरिटवादी’ इस मुद्दे को तर्क और इतिहास से ज्यादा आस्था से देखते हैं। ‘आस्था’ अर्थात् बुद्धि ताक पर रखकर बात करना। आइए जरा ‘मेरिट’ की अवधारणा को देखें।
विज्ञान कहता है सबका ब्रेन एक समान होता है। फिर ऐसा क्यों है कि कुछ लोग बचपन से ही बहुत कुशाग्र बुद्धि, तेज़तर्रार माने जाते हैं ? भारत में तो कुछ लोग इसे ईश्वरीय चमत्कार से भी जोड़ते हैं। खैर, ऐसे ईश्वरीय चमत्कार वाले लोगों का क्या कहना ! एक ऐसा पक्ष है जो मानता है कि भारतीय समाज की बुनियाद ही ‘आरक्षण’ पर टिकी हुई है और उसकी जड़ें वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति के मिथक से जुडी हुई है. इसी अवधारणा का थोड़ा सरलीकरण करें. काबिलियत न तो जन्मजात होती है और न ईश्वर निर्मित. किसी व्यक्ति की योग्यता इस बात पर निर्भर करती है कि वह सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक संसाधनों के कितना दूर है या कितना पास है – Merit is socially,economically, culturally, politically constructed or deconstructed.
इसी के साथ एक महत्वपूर्ण मुद्दा जुड़ा हुआ है – भाषा का प्रश्न. कई बार तो भाषा पर नियंत्रण कई अन्य संसाधनों पर नियंत्रण से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है. उदहारण के तौर पर देखिए, प्राचीन भारत में सबसे ज्यादा काबिल और मेरिट वाले कौन थे ? वे लोग, जिन्हें संस्कृत, पाली, प्राकृत या उस समय चल रहे अन्य भाषाओँ का ज्ञान था. आपने निर्धन और ‘ज्ञानी’ ब्राह्मण की कहानियां तो स्कूल की किताबों में पढ़ी ही होंगी. कोई भी व्यक्ति तब तक राजा नहीं बन सकता था, जब तक किसी ब्राह्मण द्वारा उचित मंत्रोचार द्वारा उसका राज्याभिषेक न कर दिया जाए. अर्थात् गैर-धार्मिक प्रक्षेत्र (secular domain), राज्य क्षत्रिय के नियंत्रण में, लेकिन उसकी स्वीकृति ब्राह्मण के मंत्रोचार और यज्ञ के द्वारा. और इस वैचारिक नियंत्रण का आधार था – भाषा पर नियंत्रण. इसी भाषाई वर्चस्व के खेल के कारण शूद्रों को शिक्षा के क्षेत्र से बाहर रखा गया. आज भी बहुत सारे अन्धविश्वासी मंत्री, नेता, जज, अधिकारी इत्यादि मिल जायेंगे जो इस तरह के यज्ञ का आयोजन करते हैं और इसमें दलित-पिछड़े भी कम नहीं हैं.
इसी तरह सल्तनत काल से लेकर 19वीं सदी के अंतिम दशकों तक कौन लोग ज्ञानी और काबिल समझे जाते थे ? वैसे लोग और संस्थाएं, जिनका फारसी, अरबी, और उर्दू पर नियंत्रण था. भाषा राज-काज की भी होती है, जिसमें रोजगार के साधन बढ़ जाते हैं. फारसी और उर्दू राज-काज की भाषा भी थी, इसलिए इसे जानने वालों को आसानी से नौकरी मिल जाती थी. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हिंदी भाषा आन्दोलन और इसके केंद्र नागरी प्रचारिणी सभा (बनारस) से हमसब परिचित ही हैं और कैसे भाषा हिन्दू बनाम मुस्लिम भाषा में बंट गई. यहाँ याद रखने की जरूरत है कि उस समय हिंदी के नाम पर आरक्षण मांगने वाले सवर्णों की भी कमी नहीं थी. चूंकि अदालती भाषा फारसी और उर्दू थी, इसलिए हिंदी/नागरी पढ़ने वाले रोजगार के साधन से वंचित रह जाते थे.
ज्ञान और काबिलियत को हमलोग अमूमन अंकों से जोड़कर देखने के आदि हो गए हैं. कबीर और रविदास तो किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी में गए नहीं तो फिर उन्हें किस श्रेणी में रखा जाय ? बहरहाल, जरा अंक और काबिलियत का खेल व उसका इतिहास देखिए. अंग्रेजी हमारी भाषा तो है नहीं. लार्ड मैकाले ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा की शुरुआत की थी. दलित चिन्तक चन्द्रभान प्रसाद बड़े धूम-धाम से मैकाले की जयंती मानते हैं और अंग्रेजी देवी की पूजा करते हैं. उनका मानना है कि अंग्रेजी शिक्षा के बगैर दलितों की मुक्ति संभव नहीं है. मेरी सहमति है चंद्रभान जी की विचारों से. औपनिवेशिक शासन काल में सभी बड़े अधिकारी (ICS) ब्रिटेन से आते थे, और छोटे-मोटे बाबूओं, चपरासी, क्लर्क के लिए अंग्रेजों ने तक़रीबन हर जिला मुख्यालयों में एक सरकारी स्कूल की स्थापना की थी. सनद रहे, ICS परीक्षा में भेदभाव के लिए भारत के ‘सवर्णों’ ने अंग्रेजों पर भयानक दोषारोपण किए थे.
बाबूगिरी करने के लिए जो लोग सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते थे वे तो निश्चित रूप से यहाँ के सवर्ण ही थे. अब जरा उनकी मार्क्स और मेरिट देखिए. ‘द इंडियन यूनिवर्सिटी कमीशन रिपोर्ट’ (1902) के 12वें पेज पर दसवीं कक्षा के रिजल्ट की समीक्षा कुछ इस तरह से की गई है, “हमें यह बताया गया कि यदि इंग्लिश में पास मार्क्स 33 के बजाए 40 प्रतिशत रहे होते, तो सिर्फ कलकत्ता में 1400 छात्र और फेल हो गए होते.” जाहिर है 1901 से पहले इंग्लिश में पास मार्क्स चालीस प्रतिशत थे, जिसे घटाकर 1901 में तैंतीस प्रतिशत कर दिया गया. इतिहास को दो कदम और पीछे लेकर चलें. सन 1854 के प्रसिद्द वुड्स डिस्पैच के बाद जब भारत में आधुनिक शिक्षा की शुरुआत हुई, तब सिर्फ फर्स्ट और सेकंड दो ही श्रेणी होती थी और न्यूनतम पास मार्क्स चालीस प्रतिशत.
तैंतीस प्रतिशत पास मार्क्स और थर्ड डिवीज़न इस देश के ब्राह्मणों की देन है. इस बात पर ‘मेरिटवादियों’ को जरूर गर्व करना चाहिए. इस आविष्कार की कहानी देखिए: 1857 के आसपास मद्रास में पहला डिग्री कॉलेज खुला, तब एक संकट खड़ा हो गया. पढ़ाने के लिए पर्याप्त छात्र नहीं मिल रहे थे, तब मद्रास के ब्राह्मणों ने ब्रिटिश हुकूमत से मांग की कि इंटरमीडिएट पास करने के लिए पास मार्क्स घटाकर तैंतीस कर दिया जाय और एक नई थर्ड डिवीज़न शुरू कर दी जाय. उनका तर्क था कि इंग्लिश एजुकेशन सिस्टम भारत के लिए नया है और इसे समझने में उन्हें वक़्त लगेगा. ब्राह्मणों की बात मान ली गई और तब से सिस्टम चला आ रहा है. अब देखते हैं कितना समय लगा. ‘प्रोग्रेस ऑफ़ एजुकेशन इन इंडिया’, 1927-32 के रिपोर्ट के अनुसार 1927-32 के दौरान मेडिकल के फाइनल एग्जाम में 47%, इंजीनियरिंग में 34% छात्र फेल हो जाते थे.
अब जरा सोचने की बात है, जो सवर्ण इस समय शिक्षा ले रहे होंगे, जाहिर है वे हर तरीके से सशक्त रहे होंगे. लेकिन उन्होंने इस देश को क्या आविष्कार दिया – तैंतीस प्रतिशत और थर्ड डिवीज़न ! अब प्रश्न उठता है कि क्या इस देश के दलितों, आदिवासियों और अन्य वंचित जमात ने अपने लिए कोई और डिवीज़न या पास मार्क्स माँगा ? यकीकन नहीं. सिर्फ एंट्री लेवल पर प्रवेश की मांग. लेकिन क्या स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालय में उन्हें अपनी मौलिक प्रतिभा को निखारने, विकसित करने का वह मनोवैज्ञानिक माहौल मिलता है, जो किसी सवर्ण को मिलता है ? हर कदम पर भेदभाव, तिरष्कार, उपहास – कुल मिलाकर हर कदम पर सांस्कृतिक/मनोवैज्ञानिक बलात्कार से कम नहीं ! इसलिए मेरिटवादियों को अपने इतिहास और व्यवहार पर जरूर एक बार गंभीरता से सोचना चाहिए.
प्रयोगशाला से लेकर अंकों के मूल्यांकन और इंटरव्यू की ‘ईमानदारी’ से तो हम सब परिचित ही हैं. यदि एक छात्र सर्व-सुविधा सम्पन्न, अंग्रेज़ीदा (जिसमें प्रचुर मात्रा में अध्ययन सामग्री है), दूसरा सर्व-सुविधाविहीन क्षेत्रीय भाषा (जिसमें न के बराबर अध्ययन सामग्री), फिर भी यदि दोनों के अंक समान हों तो कौन ज्यादा काबिल ? यदि दिल्ली विवि के हिन्दू कॉलेज में SC/ST का कट ऑफ 95% और समान विषय में सामान्य के लिए कट ऑफ 90%, तब कौन ज्यादा काबिल ? इन प्रश्नों का उत्तर पूर्वाग्रहों से नहीं वैज्ञानिकता और तर्क से ढूंढिए, सही उत्तर मिल जायेगा. फिर काबिलियत इस बात से भी तय होता है कि आपका इंटरव्यू कौन ले रहा है और कैसे ले रहा है. फ़र्ज़ कीजिए, एक ही बोर्ड में एक छात्र से Neapl की स्पेलिंग पूछी जाय और दूसरे छात्र से Czechoslovakia की. प्रथम दृष्टान्त, दोनों प्रश्न एक ही तरह के हैं, सिर्फ देश का नाम पूछा गया है. लेकिन क्या दोनों एक ही सवाल है ? यक़ीनन नहीं. यह भी हो सकता है कोई Neapl की गलत स्पेलिंग बताकर भी पास हो जाय और कोई Czechoslovakia की सही स्पेलिंग बताकर भी फेल. इस तरह बनाई जाती है भारत में ‘मेरिट’ !
ध्यान देने की जरुरत है हर स्तर मूल्यांकन की विधि में बेईमानी है. शिक्षा केन्द्रों, खासकर उच्च शिक्षा केन्द्रों में दलित-आदिवासी और पिछड़ों पर लगातार जो सांस्थानिक और सुनियोजित हमले हो रहे हैं, उसे भी समझने की जरुरत है. सभी विषम परिस्थितियों के बावजूद अब दलित, आदिवासी और पिछड़ी जमात से एक आत्म-विश्वासी, विचारधारा से लैस, अंग्रेजी पढ़ने-लिखने और बोलने वाले उच्च शिक्षण संस्थानों में आ रहे हैं. परंपरागत ‘मेरिटवादियों’ को लगता है कि उनके ‘निजी’ क्षेत्र में अतिक्रमण हो रहा है. सदियों से वे शिक्षा के केन्द्रों को अपना खानदानी जायदाद समझते रहे हैं, परन्तु संतानों के प्रजातंत्रीकरण से उनकी बेचैनी और बौखलाहट बढ़ गई है. इसीलिए तरह-तरह से हमले हो रहे हैं – रोहित की ‘आत्महत्या’ इसी श्रृंखला की कड़ी थी ! (नोट: ब्रिटिश एजुकेशन सिस्टम के आंकड़ें 7 जून, 2006 के नवभारत टाइम्स में छपी एक खबर से ली गई है, जो फेसबुक पर मिली. लेखक और एडिशन ज्ञात नहीं है, फिर भी उनका आभार).
-डॉ रतनलाल बिहार के हैं। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित हिंदू कॉलेज के इतिहास विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।
Related News
इसलिए कहा जाता है भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपियर
स्व. भिखारी ठाकुर की जयंती पर विशेष सबसे कठिन जाति अपमाना / ध्रुव गुप्त लोकभाषाRead More
पारिवारिक सुख-समृद्धि और मनोवांछित फल के लिए ‘कार्तिकी छठ’
त्योहारों के देश भारत में कई ऐसे पर्व हैं, जिन्हें कठिन माना जाता है, यहांRead More
Comments are Closed