पर्यावरण संरक्षण में भगवान बुद्ध
पर्यावरण को बचाने के लिए भगवान बुद्ध ने जो सम्यक आजीविका का मार्ग बताया है, उस पर चलकर हम प्रकृति को बचाने का प्रयास कर सकते हैं। यह एक ही मार्ग हमें हमारी प्रकृति को बचा सकता है और वह है- सम्यक आजीविका। प्रकृति को बचाने के लिए हमें अपना आचरण बहुत ही संयमित रखना होगा। हमें अपनी आवश्यकताएं कम करनी पडेगी। कम से कम चीजों से काम चलाने की आदत डालनी पड़ेगी। साथ ही हम जो प्रकृति का दोहन कर रहे हैं जैसे खनिज तत्व, पेट्रोल, जल, पेड, वन, अन्य प्राकृतिक संसाधने इनके विकल्प खोंजने होंगे। इसके लिए हमें अपने व्यवहार में सादगी, संयम, मैत्री, करुणा, अहिंसा आदि सदाचारों का अवलंबन करना होगा।
डॉ. प्रतिभा गौतम ताकसांडे
मानव जैसे-जैसे विकसित हो रहा है तो वह आज अकेला पड़ता जा रहा है। लेकिन आज प्रकृति में मौजूद अन्य दूसरे जीव व वनस्पति धीरे-धीरे मानव से दूर होते जा रहे हैं। लेकिन पिछली एक सदी को देखिए तो हमारे विकास की वैज्ञानिक सोच ने मनुष्य को लगभग खारिज ही कर दिया है और खारिज होने का एक अंतहीन सिलसिला सा चल निकला है जो कहीं रूकता दिखाई नहीं देता। मनुष्य ने पहले जानवरों को खारिज किया, फिर जीव-जन्तुओं और पौधों को भी खारिज कर दिया। आज हम जिस जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित है उसके मूल में भी यही बात है कि स्नो-लाईन धीरे-धीरे उपर खिसक रही है। जिसके परिणाम स्वरूप ग्लेशियर पिघल तो रहे है लेकिन दोबारा से उनके जमने की प्रक्रिया थम रही है। यानी कल अगर हिमालय के ग्लेशियर 7000 से 10000 फीट पर जमते थे, तो आज यह उंचाई 15-17 हजार फीट के बीच जो ग्लेशियर जमते थे वे अब नहीं जमेंगे। इसका पर्यावरण पर यह प्रभाव होगा कि ग्लेशियरों के भरोसे बहने वाली नदियाँ सुखेंगी, वनस्पतियों के गुण-धर्म में बदलाव आएगा और हरियाली वाले आज के बहुत से इलाके आने वाले दिनों में रेगिस्तान में परिवर्तित हो जाएंगे।
यदि हम इतिहास के पन्ने पलट कर देखें, तो पता चलेगा कि भारत में बौद्ध मत के संस्थापक भगवान बुद्ध, जैन मत के संस्थापक भगवान महावीर के साथ साथ चीन और जोर्डन के विद्वानों ने भी मानव कल्याण के सिद्धांतो की स्थापना की। वास्तव में प्राचीन भारतीय मान्यताओं में बौद्ध धर्म प्रारंभ से अंत तक वृक्षों, जंगलों, मानव एवं पशुधन के कल्याण की वकालत करता रहा है। बौद्ध धर्मावलंम्बियों द्वारा संपूर्ण संसार के स्तर पर वनों की स्थापना प्रमाणित करती है कि बौद्ध धर्म पर्यावरण में प्रत्एक प्रकार के जीव, वनस्पतियों को रहने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। क्योंकि बौद्ध मत के अतिरिक्त अन्य मतों का पर्यावरण संरक्षण में अधिक योगदान न ही प्राप्त होता और न ही ऐतिहासिक प्रमाण। अत: बौद्ध धर्म की धार्मिक मान्यताएँ ही कालांतर में प्रचलित मान्यताएँ बन गई।
भगवान बुद्ध के जन्म से परिनिर्वाण काल तक उनकी गतिविधियों को देखते हुए भगवान बुद्ध को पर्यावरण की रक्षा का प्रथम पथ प्रदर्शक तथा उपदेशक कहा जाय, तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी। भगवान बुद्ध के समान प्रकृति प्रेमी, पर्यावरण रक्षक विरले ही हुए है। भगवान बुद्ध का जन्म, बोधी प्राप्ति, प्रथम उपदेश देने तथा महापरिनिर्वाण की घटना अक्षरश: यह सिद्ध करते है कि वे पर्यावरण रक्षण के महान समर्थक, उघाटक व प्रणेता थे। वे हमेशा भिक्खुओं को कहते थे -भिक्खु ध्यान करो, अरण्य में जाकर एकांत में वृक्षों के नीचे पालथी मारकर, शरीर को सीधा कर बैठ जाओ और आते जाते श्वास पर मन केन्द्रित करके विपश्यना पथ पर बढ़ते चले जाओ। भगवान बुद्ध की जीवन पद्धति यह सिद्ध करती है कि पर्यावरण की रक्षा के बिना मानव कल्याण की बात सोचना निरर्थक था। मगध देश में चारिका करते हुए वहाँ के सुन्दर खेतों में अच्छी तरह बँधी हुई क्यारियों को देखकर भगवान बुद्ध बहुत प्रसन्नचित्त होते हैं, और आनंद को उसी तरह चीवर बनाने के लिए कहते हैं।
बौद्ध धम्म में शांतिमय वातावरण पर बहुत अधिक बल दिया गया है। जब भगवान बुद्ध धम्मोपदेश करते थे, तो उनके उपदेश सुनने वाले बहुत बड़ी संख्या में उपस्थित होते थे। उनके अनुशासन की यह विषेशता थी कि बड़ी संख्या में उपस्थित लोगों के बावजूद भी वहाँ के वातावरण में घोर शांति व्यस्त रहती थी। इतनी शांति कि सुई के गिरने तक भी आवाज सुन सके। भगवान बुद्ध ने अपने भिक्खु संघ के निवास करने के लिए संघारामों का निर्माण नगरों से दूर करवाया था। इसका कारण यहीं था कि नगरों में व्यस्त अशांति के कारण साधकों को ध्यान लगाने में बहुत विघ्न उत्पन्न होता था, इसलिए भगवान बुद्ध नगरों से दूर वनों, जंगलों में विचरते थे। यज्ञ एवं हवन में अष्वमेध, नरमेध, सम्मापास (मेध), वाजपेय (मेध), निरर्गल (सर्वमेध) महायज्ञ को करने से महाफल नही होता है। जहाँ भेड़, बकरियाँ, गावों तथा नाना प्रकार के जीव मारे जाते हैं। यज्ञ के बारे में भगवान बुद्ध का उपदेश पशु-प्राणियों और पर्यावरण संरक्षण के पक्ष में है।
बौद्धों का मिलींद प्रश्न है, इसमें महाराजा मिलिन्द और आचार्य नागसेन के मध्य हुए उत्तरों का ब्यौरा उपलब्ध है। इसके अंत में एक बहुत ही ज्ञानवर्धक अध्याय है। जिसे पढ़कर अतीव आश्चर्य होता है कि आज से 2500 वर्ष पूर्व बौद्ध विद्वानों ने पशु-पक्षी, वन-वृक्ष और प्रकृति की इतनी सूक्ष्म विवेचना की थी, प्रत्एक के गुणावगुणों की व्याख्या की गई है। मिलिंद प्रश्न में 105 पशु-पक्षियों अथवा वृक्ष वनस्पतियों के गुणावगुणों का रोचक वर्णन प्रस्तुत किया गया है इससे सिद्ध होता है कि इसके प्रति बौद्धों का चिंतन कितना विशाल था। महायानी बौद्धों के महान ग्रन्थ सद्धम्मपुण्डरीक में बौद्ध धम्म में पुण्डरीक के फुल को बुद्ध के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार किया गया है। थेरागाथा में बौद्धभिक्खुओं को अरण्य, नदी, गुहा आदि प्राकृतिक धरोहरों में ध्यानमग्न दिखाया है। थेरगाथा में भिक्खुओं के उद्गार और सुरम्य प्राकृतिक वर्णनों की अधिकता देखने को मिलती है।
वर्तमान दौर में भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, के नाम पर जो विकास की आंधी चली है यह मानव को खतरनाक मोड पर ले जा रही है। आज का विकास प्रकृति के दोहन और शोषण पर टिका है। जिसमें गरीब, आदिवासी को प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किए जाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। भूमंडलीकरण के द्वारा उपजी भोगवादी सभ्यता ने हम सभी को बाजार में खडा कर दिया है। प्रकृति को भी नकदी में बदला जा रहा है। हमे यह सोचना पडेगा कि प्रकृति सभी के लिए है, और हमेशा के लिए है, कुछ समय के लिए नही है। इसलिए हमे प्रकृति को बचाना होगा। भगवान बुद्ध ने अपने आचरण से प्रकृति संरक्षण का कड़ा सन्देश दिया है। पर्यावरण को बचाने के लिए भगवान बुद्ध ने जो सम्यक आजीविका का मार्ग बताया है, उस पर चलकर हम प्रकृति को बचाने का प्रयास कर सकते हैं। यह एक ही मार्ग हमें हमारी प्रकृति को बचा सकता है और वह है ह्यसम्यक आजीविकाह्ण। प्रकृति को बचाने के लिए हमें अपना आचरण बहुत ही संयमित रखना होगा। हमें अपनी आवश्यकताएं कम करनी पडेगी। कम से कम चीजों से काम चलाने की आदत डालनी पडेगी। साथ ही हम जो प्रकृति का दोहन कर रहे हैं जैसे खनिज तत्व, पेट्रोल, जल, पेड, वन, अन्य प्राकृतिक संसाधने इनके विकल्प खोंजने होंगे। इसके लिए हमें अपने व्यवहार में सादगी, संयम, मैत्री, करूणा, अहिंसा आदि सदाचारों का अवलंबन करना होगा। मानव को सदाचार से जीवन जीने की कला सीखनी होगी।
नई पीढ़ी स्वयं को केवल अपने तक ही सीमीत न रखे, भावी पीढ़ी को आने वाले संकटों के बारे में बताए और अपनी मानवीय सभ्यता को ही नहीं, बल्कि अपनी सम्पूर्ण सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने में अपना
योगदान दे। हम पाते है कि बौद्ध साहित्य में पर्यावरण के सभी संसाधन उपलब्ध हैं। मानव के अस्तित्व की रक्षा और प्रगति हेतु क्रियाशील प्राकृतिक वातावरण के विभिन्न तत्वों के बीच समुचित सम्बन्ध जरुरी है। इस धरातल पर मानव और अन्य सभी प्राणियों का अस्तित्व बना रहे, इसके लिए उसका प्रकृति के साथ समन्वय होना चाहिए। यह भगवान बुद्ध द्वारा बताए हुए मार्ग पर चलकर ही संभव होगा। उनका यह मार्ग सारी दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग से बचा सकता है, पृथ्वी, मानव, पशु-पक्षी, पेड-पौधों को बचा सकता है। भगवान बुद्ध का चिंतन पर्यावरण को सुरक्षित रखने में हमारा साथ देगा, और यह सम्पूर्ण विश्व के लिए एक उदाहरण सिद्ध हो सकता है, इस लिए आज जरूरत है सारे विश्व को भगवान बुद्ध के पर्यावरण संरक्षण संबंधी विचारों से अवगत कराने की। (डॉ. प्रतिभा गौतम ताकसांडे, पुस्तकालयाध्यक्ष, प्रियदर्शिनी महिला महाविद्यालय, वर्धा)
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