( यह आलेख २००९ में एक शोध के सिलसिले में किये गये केस स्टडी का एक हिस्सा है :दो किस्तों में प्रकाशित , अंतिम क़िस्त ) “यद्यपि गया का रेड लाइट एरिया शहर के केन्द्र में टावर चैक के समीप बसा है। इसकी मौजूदगी आज भी है और कल भी थी, लेकिन ‘कल’ के इतिहास को व्यक्त करता कोई दस्तावेज नहीं है। तमाम दूसरे स्थानों, क्षेत्र अथवा राज्यों की तरह मगध और गया का इतिहास भी राजा-रजवाड़ों की सामारिक गतिविधियों से भरा है या फिर आजादी के पूर्व और बाद तक के सिलवटों से भरा है इतिहास। यौनकर्मियों का इतिहास! इतिहास नहीं; स्मृतियों, अफवाहों और गप्पों से टूट-बिखरकर इतिहास लायक जो कुछ भी है-समझा जा सकता है वही इतिहास हो सकता है इनका।”
पहली क़िस्त को पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें : ( इतिहास का अंधकूप बनाम बंद गलियों का रूह -चुह : गया में यौनकर्म और यौनकर्मी : पहली क़िस्त )
इनसे मिलते हुए जो सवाल थे मेरे मन में वे क्रमशः इस प्रकार थेः-
1. फुर्सत के वक्त
क.अंतराल
ख.दिवस-भाग
2. फुर्सत के क्षणों में क्या करती हैं ?
3. समारोहों में भागीदारी
क. रूचि
ख. किस समारोह से विशेष लगाव है
4.सबसे तीव्र इच्छा, जिसे करने का मन करता हो?
5. क्या ईश्वर में आस्था रखती है?
6. क्या देवालय गयी हैं?
7. यदि नहीं तो क्या जाने की इच्छा होती है?
८. आपस में एक-दूसरे से किन-किन अवसरों पर मिलती हैं?
9.एक-दूसरे को किस प्रकार संबोधित करती हैं? आदि।
अधिकांश मामलों में ये स्त्रियाँ आस्थावान हैं-ईश्वर आपसी साहचर्य, परिवार और निजी संबंधों के प्रति आस्थावान हैं-काम, जो वे कर रही हैं, वह उनका चुनाव भी है और मजबूरी भी, कुछ हद तक विकल्पहीनता एक कारण है। थोड़ा अफसोस है, परंतु कुंठा नहीं, अपराध बोध नहीं। अवकाश इन्हें भी नहीं है, तो इनका सवाल है कि क्या घर की महिलाओं को है! वे भी सब करती है, जो हम कर रहे हैं, रेखा ऐसा मानती है। इन्हें न तो अपने यौनकर्मी होने पर अपराध महसूस होता है और न स्त्री होने का अफसोस ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजौ’ से इनका बहुत इतफाक नहीं है।
गया का मंगलागौरी मंदिर , कहते हैं यहाँ सती का स्तन कट कर गिरा था |
मंटो उद्धरणीय हैं, (अवकाश का संदर्भ) ‘‘मेरे पड़ोस में कोई औरत हर रोज अपने खाविंद से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए जर्रा बराबर हमदर्दी पैदा नहीं होती। लेकिन जब मेरे पड़ोस से कोई और अपने खाविंद से लड़कर और खुदकुशी की धमकी देकर फिल्म देखने चली जाती है और मैं खाविंद को दो घंटे सख्त परेशानी की हालत में देखता हूं तो मुझे दोनों से एक अजीब व गरीब किस्म की हमदर्दी पैदा हो जाती है।’’ ।
यौनकर्मियों को अवकाश है ही नहीं-न वीकेण्ड का कोई संदर्भ और न काम के घंटों का कोई निर्धारण!
नागरिक भूमिका :(नागरिक अधिकार एवं भागीदारी तथा राजनीतिक जागरूकता)
नागरिक के रूप में यौनकर्मियों ने अपनी भूमिका बनायी है। नगर बंधुओं के भवन नगरों के राजनीतिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र हुआ करते थे। लखनऊ की तवायफों ने नवाबों को तहजीब सिखलाये और स्वतंत्रता संग्रामों में बागियों को शरणगाह भी उपलब्ध करवाये। बिहार के लोक गायक महेंद्र मिश्र और उनकी राजनीतिक गतिविधियों की खैरख्वाह मुजफ्फरपुर की वेश्याएं भी मानी जाती है। अनामिका ने अपने उपन्यास ‘तिनके-तिनके पास’ में मुजफरपुर (बिहार) के कोठों की राजनीतिक सक्रियता का उल्लेख किया है, ‘‘जीवन का रस और मजा तो संघर्ष की धार में है। यह उसकी मां ने उसे घुट्टियों में पिलाया था और मां की नानी, ढेलाबाईको उसकी नानी अफसाना बेगम ने , जो 1857 के गदर में अपने आशिक पीरजी घसियारे की नृशंस हत्या के बाद दिल्ली से बचती-बचती कानपुर आयी थीं और कानपुर से मुजफ्फरपुर…मुजफ्फरपुर में क्रांतिकारियों की शरणस्थली उनका कोठा रहा। एक अर्से तक क्रांतिकारी वेश्याओं का एक अखिल भारतीय मुखपत्र भी वहां से निकालती रहीं… पंडिता रमा बाई ने जब पुणे में ‘शारदा सदन’ खोला-वेश्याओं के गुरू जनकवि महेंद्र मिश्र की पहल पर उनकी नवासी, ढेलाबाई वहां ठुमरी-शिक्षिका भी नियुक्त हुई।’’
यौनकर्मियों के नागरिक भूमिका की वर्तमान स्थिति को मैंने उनके अधिकारों और उनकी जागरूकता, भागीदार आदि के खांचे में देखने का प्रयास किया है। मेरे दायरे में उनका वोट करना, उनकी पसंद की पार्टी और पसंदगी का आधार, टैक्स, बी.पी.एल. सूची, राशन कार्ड आदि थे। साथ ही यौनकर्मियों को लायसेंस दिये जाने के आंदोलनों (? ) आदि के प्रति उनकी जागरूकता भी जानना शोध के उद्देश्य में था।
मातृदेवी |
गया से यौनकर्मियों के सदस्यों के बीच से एक जन प्रतिनिधि मुन्नी देवी 2005 में म्युनिसिपल काउंसिल में वार्ड सदस्य चुनी गयी। यद्यपि यौन कर्मियों के बीच उनके रिश्ते आज भी कायम हैं, परंतु वह वर्षों पहले एक दबंग बाहुबली की पत्नी हो चुकी थीं, इसलिए इस राजनीतिक प्रतिनिधित्व को पूरी तरह रेडलाइट एरिया के खाते में नहीं डाला जा सकता। खानगी से जुड़ी स्त्रियाँ चूंकि लायसेंस धारक नहीं है, अतः बहुसंख्य स्थितियों में वे चुनावों में वोट नहीं डालतीं। कोठों पर लड़कियां आती जाती भी रहतीं हैं। इसलिए अधिकांश का वोटर लिस्ट में नाम भी होने का सवाल नहीं है। इनके पास न तो राशनकार्ड है और नहीं बी. पी. एल सूची में इनका नाम, यद्यपि इस एरिया को स्लम के तौर पर रखा जाता है।
लाइसेंस धारी नर्तकियां वोट डालती हैं। भाजपा और कांग्रेस जैसे राजनीतिक पार्टियां ही इनकी पसंदीदा पार्टियां हैं, यद्यपि स्थानीय कम्युनिस्ट नेता (मुस्लिम) की भी इनके बीच पैठ है। वे इनके मददगार भी साबित होते हैं। वोटों को स्थानीय विधायक मुन्नी देवी तथा दूसरे अन्य कांग्रेसी एवं कम्युनिस्ट नेता प्रभावित करते हैं।
इनमें से कई लड़कियों को यौनकर्म के लिए उठ रहे लायसेंस की मांग का पता नहीं है। परंतु कुछ इस आंदोलन से वाकिफ भी हैं। यद्यपि कोई भी लड़की मुझे ऐसी नहीं मिली जो ऐसे किसी आंदोलन में भागीदार हो। छोटे शहरों के रेडलाइट में रहनेवाली स्त्रियों को अपने इन मुद्दों का बहुत पता नहीं है। पूरी तरह समझाने पर वे लायसेंस दिये जाने के पक्ष में ही अपना बयान देती हैं।
राजनीतिक पार्टियों के बड़े मुद्दों की भी इन्हें बहुत जानकारी नहीं है। यद्यपि बड़े राजनेताओं के नामों से वे वाकीफ हैं, कुछ एक को छोड़कर पूरी उदासीनता के साथ। 2002-2004 के बीच गया के एक जिलाधिकारी की पत्नी ममता महरोत्रा, समाजसेवी रेणुका पालित आदि ने मिलकर इनके बच्चों के शिक्षण का कार्यक्रम चलाया था, परंतु कुछ तो ममता महारोत्रा के पटना डी.ए.वी. में शिक्षिका और इंचार्ज हो जाने के कारण और कुछ उचित मैकेनिज्म के अभाव में यह सिलसिला बहुत दिनों तक नहीं चल पाया।
स्पष्टतः इन यौनकर्मियों को न तो पूरी तरह नागरिक अधिकार प्राप्त हैं और न ही उनकी नागरिक भूमिका सक्रिय रूप से बन पाती है। ऐसी स्थिति में वे राष्ट्र के सबसे उपेक्षित और अलक्षित समूह हैं। इनके बीच कार्यरत गैर सरकारी सामाजिक संस्थान बिना किसी विशेष हस्तक्षेप के अधिकांशतः कंडोम उपलब्ध कराने की भूमिका भर ही निभा पाते हैं, एड्स और अन्य संक्रामक बीमारियों की जानकारी और उनसे बचाव की ट्रेनिंग देने के अलावा।
आंतरिक आवाजें: आत्मकथ्य और आह्वान
यौन-बाजार में काम करने वाली स्त्रियां इस बाजार के उपभोक्ताओं को अथवा इससे बाहर रहने वाले लोगों की दया या उपेक्षा की पात्र प्रतीत होती हैं। साहित्यकारों की अपनी दृष्टि है, सुधारकों की अपनी। फिल्मकार कुछ और कहते हैं, नीति नियंता कुछ और। शरत्चंद का देवदास चंद्रमुखी को, जो कि नर्तकी है, गणिका है, को पतिता समझता है, वहीं आश्रय पाता है और चंद्रमुखी बिना किसी सेल्फ (स्व) के उसके प्रति न्यौछावर है, बलिदानी भूमिका में . फिल्मों में वेश्याएं नायक के प्रति उदात्त भाव से भरी, उस पर न्यौछावर तथा हरदम बलिदान को तत्पर होती हैं या उद्धारक के प्रति प्रस्तुत। अमृतलाल नागर के ‘ये कोठे वालियाँ’ में उल्लिखित स्त्रियां गलीज जिन्दगी जी रही हैं, पतित हैं और पारिवारिक स्नेह, पुरुष-प्रेम के लिए उत्कंठ रहती हैं। लेखक स्वयं भी उनके प्रति दयार्द्र हैं। लेकिन अनामिका की ‘तिनके-तिनके पास’ की नायिका एक कालगर्ल है, सुशिक्षित है, नृतत्वशास्त्र की शिक्षिका रही है, साहित्य, दर्शन और राजनीति की समझ रखती है. आत्मग्लानि से मुक्त है वैसे ही, जैसे मंटो की कहानियों में ‘काली शलवार’ की नायिका या ऐसी ही उनकी अन्य कहानियों की नायिका, जो ‘ठंडे गोश्त’ में तब्दील होकर भी अपने ‘स्वत्व’ को जीवित रखती है।
यौन कर्मियों के लिए समाज का मानस बनाने में शब्द, भाषा और साहित्य की बड़ी भूमिका है परंतु स्वयं यौनकर्मियों का आंदोलन और उनकी आवाजें ऐसी किसी भी ‘निर्मिति’ के खिलाफ हैं, या अपने प्रति दया या उद्धार अथवा घृणा के भाव को नकारती हैं।आंदोलनों ने विभिन्न माध्यमों से , आपसी संवादों से स्वयं इस पेशे से जुड़ी स्त्रिायों को अपराध-भाव से मुक्त किया है। यही कारण है कि पढ़ी-लिखी लड़कियाँ या काॅलेज में पढ़ाती स्त्रियाँ इस पेशे का चुनाव करती हैं, घोषणा भी करती हैं, किसी भी प्रकार की कुण्ठा से रहित। बल्कि प्रायः प्रयासरत भी हैं कि उन्हें अनैतिक , पाप-लिप्त अथवा असामान्य न समझा जाए।
जेनेट, जो कि नृतत्वशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं तथा साथ ही काल-गर्ल का पार्ट टाइम काम भी करती रही हैं, लिखती हैं , ‘ सुनो! काॅल गर्ल्स मूल्यों का आदर करती हैं, उनके भी मूल्य होते हैं। हम भी अपने धर्म और नैतिकताओं से प्रेरित होकर वैसे ही निर्णय लेते हैं, ‘रिपब्लिकन’ हो सकती हैं या ‘डेमोक्रेट’ हो सकती हैं या समाजवादी अथवा उदारवादी। हममें से कुछ जानवरों से मुहब्बत करती हैं। हम भी विश्वास हासिल करती हैं और हम रहस्यों को गुप्त रखना भी जानती हैं। हम बेटियाँ हैं, बहनें हैं, माँ अथवा पत्नियाँ हैं। सच्चाई है कि पुरुषों को हमारी जरूरत है और वे इस जरूरत से मुक्त भी होना चाहते हैं। वे हमें दोषी ठहराते हैं . यही कारण है कि मुस्लिम महिलाएं पुरुषों से परदा करती हैं। यही कारण है कि ‘वेश्याएँ’ अनैतिक होती हैं, क्योंकि उनका काम हर इंसान के भीतर अवस्थित उस ‘अनैतिक’ को संतुष्ट करना है अतः अपनी निर्मितियों पूर्वग्रहों को खत्म करो। थोड़ी देर के लिए ही सही, अपने अपराधबोध, पूर्वग्रहों तथा अपने मूल्यांकनों को परे रख दो, तभी हमारी कहानी तुम सुन सकते हो, समझ सकते हो।’
किसी अपराध बोध से मुक्ति की स्थिति यह है कि 2008 में 22 वर्ष की स्त्री -अध्ययन की एक छात्रा, नेटेल डायलन (छद्म नाम) ने खुलेआम अपने ‘कौमार्य की बोली लगवायी। वह कैलिफोर्निया की रहने वाली है। उसने स्त्री -अध्ययन में स्नातक किया है तथा ‘विवाह और परिवार चिकित्सा’ में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए अपने ‘कौमार्य’ नीलाम करने की घोषणा की। उसकी बहन भी अपनी पढ़ाई के लिए ‘चकलाघर’ में काम करती है। इस नीलामी के साथ उसने घोषणा की, ‘‘मैंने अपने नाम को अपनी सुरक्षा के लिहाज से गुप्त रखा है, वह किसी नैतिक बोध की शिकार नहीं है तथा अपने निर्णय से खुद को शक्ति संपन्न महसूस कर रही है। मैं नहीं समझती कि मेरे कौमार्य की नीलामी मेरी सारी समस्याओं का हल है, परंतु इससे थोड़ी आर्थिक स्थिरता तो आयेगी ही। हम पूंजीवादी समाज में रहते हैं, तो क्यों नहीं कौमार्य का मैं पूंजीकरण करूं।’ किसी ग्लानिबोध से मुक्त यह 21वीं सदी के ‘कार्ल-गर्ल’ का आत्मविश्वास बोल रहा है।
बारबरा मेरा नाम की एक काल-गर्ल अपने लेख में समय के इस हिस्से में यौन बाजार में कार्यरत स्त्रियों का मनोभाव व्यक्त करती है। वह काम के शुरुआत की झिझक, अनुभवहीनता से प्रेरित होकर काम की पूरी संलग्नता तक का विस्तृत विवरा प्रस्तुत करती हैं उसकी टिप्पणी गौरतलब है.’
कुछ ऐसी महान आत्माएं, जो इस पेशे से जुड़ी स्त्रियों के प्रति दयाद्र होती हैं, उन्हें मुक्त कराना चाहती हैं, वे बड़ी ही दयनीय होती हैं सबसे निकृष्ट! वे क्षणिक भावुकता से भरे लोग हैं। वे समझते हैं कि हम इस पेशे से मुक्त होना चाहते हैं, बचना चाहते हैं। यदि कोई (यौनकर्मी) उनके इस मुक्ति अभियान में शामिल होने से इनकार कर देती है, तो उनके दिमाग पर हथौड़े जैसा प्रहार होता है। वे समझते हैं कि वे हमें इस अवांछित और असहनीय कार्य से मुक्त कराकर अपने प्रति कृतज्ञता हासिल कर लेंगे और फिर हमारा सिर उनके कदमों में होगा। लेकिन जैसे ही उन्हें पता चलता है कि जिस अहिल्या के वे राम होना चाहते हैं, वह अपने पेशे में खुश हैं तो उनकी दुनिया ही बिखर जाती है। उनके प्रति हमें पूरी सतर्कता बरतनी चाहिए और प्लेग की तरह उन्हें दूर रखना चाहिए। मुझे उस वक्त नफरत होती है, जब वे दयार्द्र हो कहती हैं , ‘ तुम्हारी जैसी अच्छी लड़की ऐसा काम क्यों कर रही है?’
जेनेट एंजल अपने अनुभव व्यक्त करती है और आह्वान करती है , ‘ अस्तित्व को निरस्त करने या हम पर कोई निर्णय देने की तत्परता मत दिखाओ। हम तुम्हारी माँ हो सकती हैं, तुम्हारी बहन, तुम्हारी दोस्त, तुम्हारी बेटी। हाँ तुम्हारी प्रोफेसर भी।’
‘‘लोग इस संदर्भ में सवालों का बौछार कर देते हैं तुमने ऐसा किया? तुम बचकानी हरकत कर रही हो? कैसे लोग इस सेवा का उपयोग करते हैं? कैसे लड़कियाँ इस धंधे में आती हैं? जेनेट ने अपनी आत्मकथा लिखा है, अपना अनुभव तथा अपने पुरुष मित्र के धोखे से शुरू होकर अपने प्रथम अभिसार (!) के सुरुचिपूर्ण उल्लेख के साथ, अपने मित्र की लम्पटता पर लानत भेजते हुए अपने प्राध्यापकीय जीवन, अपने आनंद और फुर्सत के वक्त और अपने पेशे का तन्मयचित्राण के साथ। पेशे का प्रथम अनुभव सचमुच के प्रथम अभिसार (स्व-चयनित सुहागरात) जैसा ही था, इस नृतत्वशास्त्राी यौनकर्मी के लिए। धक्का उन्हें तब लगता है जब उनका मित्र, उनका महाराज उनसे यौन-उपहार चाहता है, इस भाव में कि वह तो काल-गर्ल है, उसे क्या फर्क पड़ता है। वह बिखर जाती है रिश्ता तोड़ लेती है।
बारबरा इस पेशे के प्रति पाॅपुलर मानस से खिन्न हैं, वह लिखती हैं, ‘हम सबसे ज्यादा मीडिया से नाराज हैं। यदि कोई हमें फिल्मों में चित्रित करता है, तो ऐसे जैसे कि हम कोई जीती जागती आपदा हों तथा सभी दुर्गुणों से ग्रस्त हों। लड़कियाँ वैसी नहीं होतीं। यदि मेरे पास कोई एक विकल्प हो कुछ करने का तो मैं सबसे पहले उनके उपर आरोपित धब्बे से मुक्त होना चाहूंगी। जरूरी है कि कानून बदले, परंतु यह काफी नहीं है ‘आरोपित धब्बे’ को धोने के लिए। ऐसा सिर्फ लोगों की चेतना से ही संभव है। उदाहरण के लिए यदि मैं माँ हूँ तो तुम्हें मेरी बच्ची से ज्यादा सुपोषित-सुसंरक्षित ,स्नेह प्राप्त बच्ची नहीं मिलेगी। मुझे पता है कि मैं उसे खराब कर सकती हूँ, लेकिन जब वह मेरे साथ नहीं है, तब उसे मैं सबसे ज्यादा देखभाल करती हूँ। उसे अच्छे, खूब अच्छे स्कूल में भेजती हूँ। उसे किसी चीज की कभी कमी नहीं होने देती। उसका प्यारा घर है वह हर खतरों से मुक्त है फिर कौन कह सकता है कि मैं एक अच्छी माँ नहीं हूँ, यदि मैं ऐसा नहीं करती हूँ, सिर्फ अपना पेट भर लेती हूँ, तब तो मुझसे बुरी कोई माँ नहीं हो सकती (बारबरा, 1983)।
यौनकर्मियों के अनुभव, अंतर्संवादों और आह्वानों का सारा प्रसंग भारत के संदर्भ में वैसा ही नहीं है, जैसा कि कैलीफोर्निया, आमर्सटरडम , जर्मनी में कार्यरत उनकी सहकर्मियों की। भारतीय मानस दुनिया के दूसरे पितृसत्तात्मक मानस की तुलना में ज्यादा संश्लिष्ट है। गरीबी के कारण जो लड़कियाँ इस पेशे में आती हैं, वे सबकुछ वैसा ही अनुभव नहीं कर सकतीं जैसा कि आस्ट्रेलिया में उनका कोई सहकर्मी अनुभव कर रहा हो। पूरी संवेदना के साथ, पक्षधरता के साथ, यौनकर्मियों के साथ सहानुभूति की जगह साख्य भाव में लिखित अनामिका का उपन्यास ‘तिनका-तिनके पास’ परिवेशगत सीमाओं में बांटा जाता है, कथा की नायिका वही है, काल-गर्ल, नृतत्वशास्त्र की प्राध्यापिका जेनेट एंजेल का भारतीय संस्करण, अनामिका खुलासा करती हैं कि ‘जेनेट’ उन्हें बंग्लादेश में मिली थीं, उन्होंने उन्हें अपने डायरी के अंश दिये थे, जिसे वे शीघ्र ही अपनी आत्मकथा में ढालने वाली थीं, लेकिन अनामिका उसी डायरी के साथ जब ‘तिनका-तिनके पास’ में प्रस्तुत होती हैं तो कुछ इस तरह!
‘उन दिनों की अपनी डायरी पढ़कर छुट्टी करती हूँ!’ विश्वायन के बाद के एक कालगर्ल की डायरी! अंतरराष्ट्रीय नेक्सस पर औरत की दुर्गति का किस्सा… एक पढ़ी-लिखी औरत की दुर्गति का…अनामिका परिवेशगत प्रस्थान लेती है, अथवा इस पेशे के प्रति अपनी वैचारिक अवस्था से। जेनेट अपनी आत्मकथा में कहीं पश्चाताप नहीं करती, कहीं दुगर्ति का भाव नहीं देती हैं। परिवेश की सीमा यह भी है कि अनामिका की नायिका का प्रथम अभिसार ठीक उतना विस्तृत और बारीक वर्णनों से युक्त नहीं है, जितना की उसका अपना वर्णन। लेखिका की नायिका ‘बाल-यौन उत्पीड़न’ की शिकार भी है। प्रथम अभिसार के बाद उसकी अपनी माँ का रुआँसा चेहरा सामने है, जब उसके ‘रिश्ते’ के चाचा ने उसे कुछ ज्यादा ही मसल दिया था, विदा लेते वक्त! वह अपने पिता के आवेग को भी झेलती है।
मेरा शोध अनुभव भी यही कहता है, छोटे शहरों (गया) में काम करने वाली बारबरा मिकुल्सकी की सहकर्मी ठीक वैसा ही अनुभव नहीं करती जैसा कि वह करती हैं , उसके कुछ सहकर्मी यौनजन्य बीमारियों के प्रति सजगता अभियान में लगी हैं, कम पढ़ी-लिखी हैं, हाँ अच्छी माँ हैं। उसके पूर्व की पीढि़यों ने भी ‘फर्स्ट क्लास अफसर’ और प्राध्यापक पैदा किए हैं।
गया के चकलाघरों में कार्यरत स्त्रियां अपराधबोध में तो नहीं है परंतु वह कहती हैं कि ‘अपनी जगहों पर, (जहाँ से वे आयी हैं, प्रायः सिलीगुड़ी या पश्चिम बंगाल से) वे ‘खराब’ औरतें नहीं हैं ,यानी वे अच्छी लड़कियाँ हैं वहां , क्योंकि वे वहां छुट्टी पर होती हैं. वैसे बारबरा भी एक कालगर्ल की माँ वाली भूमिका में अपने बच्चे के प्रति ‘इस खराबी’ से मुक्त रखने की बात करती हैं। यद्यपि भारत में गणिकाओं की पीढि़यां भी समान पेशे का चुनाव करती रही हैं या लायी जाती रही हैं। गया में कार्यरत एक लड़की कहती है कि हम हैं तो कई माँ-बहनों की इज्जत बची है। अभी रेड हुआ था, हमारा व्यवसाय बंद था , तो बगल के मानपुर पुल पर बलात्कार हुआ।
मुम्बई की ‘आश्रय तिरस्कृत नारी संघ’ यौनकर्मियों की ऐसी ही सामाजिक भूमिका का पक्ष रखता है, इसके प्रतिनिधि आई. एच. गिलहड़ा के अनुसार ‘ वेश्यावृत्ति एक अनिवार्य बुराई है, जो परिवार को सुरक्षित रखती है तथा स्त्रियों को बलात्कार से बचाती है। कुछ ऐसा ही विचार दिल्ली के समाजसेवी खैराती राम भोला का है,
‘‘यदि वेश्याएं अस्वस्थ होती हैं, तो बच्चों को प्रभावित करेंगी. जो उनके पास स्फूर्त होने जाते हैं , वे सेक्स के भूखे होते हैं . वेश्याएं न हों तो अविवाहित युवा किसी पर हमला बोल सकते हैं। मेरी दृष्टि में वो वेश्याएं माँ जैसी हैं, उनका आदर होना चाहिए।’
स्त्रीवादी विचारक तथा पेशे से जुड़े कुछ लोग पुरुषों के अनियंत्रित उद्दाम यौन-उत्कंठा को पितृसत्तात्मक समझ मानते हैं। परंतु यदि यह समझ किसी यौनकर्मी के द्वारा व्यक्त अथवा उसके लिए काम कर रहे संगठन की है, तो वह इस दृष्टि से कि यह समझ इस व्यवस्था से जुड़ी स्त्रियों को थोड़ा सम्मान, थोड़ी स्वीकृति दिला सके। पेशे से जुड़ी स्त्रिायों के अनुभवों का एक मार्मिक प्रसंग, जिसे जेनेट कम से कम मार्मिक समझती हैं तथा जिससे यह तय होता है कि स्त्रियाँ अपने ग्राहकों के प्रति मशीनी भाव के अतिरिक्त लगाव भी महसूस करती हैं, उल्लेख्य है। जेनेट लिखती है,
‘‘मेरा ग्राहक दुबला-पतला था, पीली त्वचा इस कदर कि पारदर्शिता का आभास देती हो। वह उदास और निर्दोष मुस्कान बिखेरता रहा, बहुत बात नहीं की। संगीत बैकग्राउंड में था, कोई नया ‘सिम्फाॅनी’। उसने मुझे शेरी (वाइन) परोसी और हम शयन-कक्ष में दाखिल हुए। उसने मुझे अंतर्वस्त्रों को छोड़कर सबकुछ उतारने का आग्रह किया। मैं प्रायः दूसरी अन्य रातों की तरह ब्रा और पैंटी में थी, जिसके ऊपर पारदर्शी कैमिसोल था।
‘क्या तुम्हारे पास मेक-अप बैग है’, उसने बहुत ही आस और निर्दोष चेहरे के साथ पूछा। ‘मैं दरअसल तुम्हें मेकअप करते हुए देखना चाहता हूँ।’
‘सिर्फ मेक-अप! थोड़ी विस्मय में थी। ‘हाँ, और मुझसे बात करो।’
यह कई मायने रखता था। मैं समझ गयी कि ऐसा करते हुए मुझे अश्लील बातें करनी है, जो मैंने पहले भी कुछ ग्राहकों के साथ की थी। मैं बिस्तर तक गयी और अपने मेकअप के सामान उठाये।
‘तुम क्या बात करना चाहोगे?’
अब तक वह बिस्तर के पास ‘लुइस क्वीज’ चेअर पर बैठा था। ‘तुम कहो कि तुम्हारे डैडी के साथ बाहर जाने के लिए तैयार हो रही हूँ उसने कहा, उसकी आवाज ‘इको साउंड’ की तरह ध्वनित हुई ,कहीं दूर बाहर से आती हुई।’
‘मुझसे कहो कि आया जल्द ही आती होगी। कहो कि डैडी तुम्हें डिनर के लिए कहाँ ले जा रहे हैं? उसने कहा। मैं तो जम सी गयी. सच कहूँ, ईमानदारी से, मुझे रोने की तीव्र इच्छा हुई। मैंने वही किया जो वह चाहता था, मैं कर भी क्या सकती थी? मैं बोलती रही और अपने आईने में देखती रही, कुछ इस तरह कि वह हस्तमैथुन करता हुआ न दिखे, जब मैं उसकी माँ की भूमिका कर रही हूँ।’
‘‘मैं तुम्हें वहाँ पहुँचकर काॅल करूंगी। और जाने के पहले तुमसे विशेष ‘किस’ भी करूँगी।’’
मैं किसी तरह अपने आँसू उमड़ने से रोक सकी। उसने मुझे खूब पैसे दिये, सत्तर डाॅलर टिप के तौर पर, मेरे अपने रेट के अलावा।दूसरी लड़कियों ने इससे खूब मजा किया होता। एक आसान से काॅल के तौर पर और बाद में जी भरकर हँसी होतीं। मैं घर आयी भीतर से खोखली महसूस करती हुई, क्या हुआ होगा उसके बचपन में उसकी यौनिकता पर प्रहार करते हुए। आखिर उसने क्यों किसी मनोचिकित्सक के पास अपने दर्द की दवा ढूँढने की जगह कालगर्ल का चुनाव किया था… आखिर क्यों?
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