बिहार जीतने के लिए व्याकुल मोदी और अमित शाह की जोड़ी को बीच चुनाव में रणनीति बदलने पर मजबूर होना पड़ा. यह लालू की जातीय पकड़ और नीतीश सरकार के जमीनी कामों का नतीजा रहा. बिहार को बदल देने के मोदी के नारे की तुलना में नीतीश के विकास कार्य सुदूर गांवों तक ज़्यादा चर्चा में रहे. भाजपा के तमाम नेता लालू की जातीय जोड़-तोड़ की जवाबी कुंजी खोजने में लगे रहे. सन 2014 के अंत में मुलायम सिंह ने पुराने जनता परिवार के घटक दलों की एकता की पहल इसीलिए की थी कि लोकसभा चुनावों के बाद भाजपा-विरोधी सेकुलर राजनीति के अगुआ की जगह खाली हो गई थी.
अब तक कांग्रेस इस भूमिका में थी जिसे 2014 में भाजपा के हाथों अब तक की सबसे बुरी पराजय झेलनी पड़ी. लालू-नीतीश समेत बाकी नेताओं ने मुलायम को यह दर्ज़ा दे भी दिया था. वे सर्वसम्मति से एकीकृत दल के अध्यक्ष बना दिए गए थे, अंतत: जिसका नाम भी तय नहीं हो पाया. कारण चाहे जो रहे हों, मुलायम ऐन चुनाव के मौके पर पैंतरा बदल गए. महागठबंधन से अलग चुनाव लड़ने की उनकी घोषणा ने सभी को चौंकाया.
यही नहीं, उन्होंने लालू-नीतीश के बागियों को मिला कर तीसरा मोर्चा बनाया. तभी से उनको भाजपा की बजाय महागठबंधन-विरोधी भूमिका में ज़्यादा देखा गया. कहना होगा कि मुलायम सिंह ने पैंतरे बदल कर बहुत बड़ा दांव खेला. फिलहाल तो वे इस दांव से खुद ही चित होते दिखते हैं. चुनाव परिणाम जो भी आए, क्या उसके बाद मुलायम सिंह भाजपा-विरोधी राजनीति के केंद्र में कहीं रह पाएंगे? बिहार की जनता का फैसला तीन तरह का हो सकता है. भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को बहुमत मिले या महागठबंधन को या फिर किसी को भी बहुमत न मिले यानी त्रिशंकु जनादेश.
अगर एनडीए सरकार बनाने लायक जनादेश पा गई तो लालू-नीतीश का सबसे पहला हमला मुलायम सिंह पर होना है. अभी जो मुलायम भाजपा के साथ मिलकर बिहार में कई साल सरकार चलाने के लिए नीतीश को साम्प्रदायिक ठहरा रहे हैं, तब वही मुलायम बिहार में एनडीए की जीत का मार्ग प्रशस्त करने के अपराधी ठहराए जाएंगे. साम्प्रदायिक शक्तियों की मदद कर एनडीए को बिहार की सत्ता में आने देने का आरोप सीधे मुलायम सिंह पर लगेगा, वोट उन्हें चाहे जितने कम मिलें. मुलायम का तीसरा मोर्चा भाजपा विरोधी वोटों में ही सेंध लगा रहा है. यदि महागठबंधन सरकार बनाने लायक जनादेश पा गया तो भी मुलायम की किरकिरी होनी है. उस हालत में लालू-नीतीश की जोड़ी निश्चय ही भाजपा विरोधी केंद्रीय राजनीति की चैंपियन मानी जाएगी और मुलायम हाशिए पर चले जाएंगे.
लालू अपने समधी को भले हल्के में छोड़ दें, मगर नीतीश ताने मारने से नहीं चूकेंगे कि मुलायम भाजपा का साथ देकर भी सेकुलर महागठबंधन को सत्ता में आने से नहीं रोक सके. नीतीश गरज कर कहेंगे कि आज अगर साम्प्रदायिक शक्तियों को हराने की ताक़त किसी में है तो वह हममें है, बिहार में है. और, अगर स्पष्ट जनादेश नहीं आया तो भी महागठबंधन के नेता पानी पी-पीकर सपा मुखिया को कोसेंगे कि इस स्थिति के लिए वे ही जिम्मेदार हैं, क्योंकि मुलायम साथ आ जाते तो महागठबंधन एनडीए को हरा कर राज्य में सरकार बना लेता.
तीनों ही स्थितियों में मुलायम की भूमिका पर सवाल उठने ही हैं. यह सवाल मुलायम के राजनीतिक मर्म पर चोट करने वाले होंगे. 2017 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव होने हैं और मुलायम के सामने मुख्य चुनौती भाजपा ही पेश करने वाली है. वर्तमान में मुलायम की सारी पेशबंदियां भी इसी मुक़ाबले के लिए तैयार होने की हैं. राज्य मंत्रिपरिषद का ताजा पुनर्गठन हो या अमर सिंह से गलबहियां, मुलायम की नज़र में यूपी का मुकाबला ही बड़ा है.
मुलायम ने इस पर भी गौर किया ही होगा. शायद अपने तरकश में जवाबी तीर भी रखे हों. वे कुश्ती के अखाड़े से ज़्यादा राजनीति में अचानक कोई नया दांव चलने के लिए ख्यात हैं. फिलहाल तो लालू-नीतीश की जोड़ी भाजपा विरोधी राजनीति की धुरी हैं, जिसकी इस देश में बड़ी सम्भावना रही है. पहले यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश को आशीर्वाद देने वाली ममता बनर्जीं यूं ही नीतीश के साथ नहीं आ गईं. उनके राज्य में भी विधानसभा चुनाव जो आ रहे हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं) from (बीबीसी हिंदी डॉट)
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