राजनीति में पप्पू यादव का सफ़र किसी फ़िल्मी कहानी की तरह है. उठा-पटक, विवाद और ग़ुमनामी के दौर से निकल कर वापसी की कहानी. लेकिन बिहार के चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल से बाहर होने के बाद, उनका जन अधिकार पार्टी बनाने का फ़ैसला क्या एक बार फिर उन्हें राजनीति से ग़ायब कर देगा? या फिर, क्या वे मोल-भाव करने की स्थिति में आ जाएँगे? पप्पू यादव के सामने यह एक बड़ा सवाल है. पटना में उनके घर पर हुई एक मुलाक़ात में पप्पू यादव से बातचीत करने और उनकी मन:स्थिति भाँपने का मौक़ा मिला. अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं से हमेशा घिरे रहने वाले पप्पू यादव थके से नज़र आए, शायद अपनी पार्टी के अकेले स्टार प्रचारक होने का दबाव वे झेल रहे हैं.
लेकिन चुनाव प्रचार की थकान से ज़्यादा मुझे वे परेशान नज़र आए, चिंतित नज़र आए. चुनावी नतीजों को लेकर उनकी बेसब्री साफ़ दिख रही थी. पप्पू यादव कहते हैं कि उनकी पार्टी का भविष्य तो राज्य की जनता तय करेगी, युवक करेंगे और किसान करेंगे. वे कहते हैं, “मैंने कोशिश की है एक नई व्यवस्था लाने की. बिहार को जाति व्यवस्था से निकालने की. समय कम था. आचार संहिता आने के बाद चुनाव चिन्ह मिला. लगातार संघर्ष में हूँ. बचपन से ही व्यवस्था के ख़िलाफ़ हूँ. मैं कितना उम्मीदों पर खरा उतर पाया हूँ, ये तो आठ को ही पता चलेगा.” लेकिन बात इतनी आसान नहीं है. राष्ट्रीय जनता दल सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव पर परिवारवाद का आरोप लगाते हुए उन्होंने उनके नेतृत्व को भी चुनौती दी थी.
पप्पू यादव ने राज्य में महागठबंधन के ख़िलाफ़ एक प्रभावी मोर्चा बनाने की कोशिश में जीतनराम मांझी से एकजुटता दिखाई, लेकिन मांझी एनडीए की ओर चले गए. हालाँकि जीतनराम मांझी के सामने जब मैंने पप्पू यादव का ज़िक्र किया, तो कहने लगे- ‘पप्पू से अच्छे संबंध हैं. छवि तो लोग बना देते हैं.’ पप्पू यादव के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने एनडीए का दामन भी थामने की कोशिश की थी, हालांकि पप्पू यादव इससे इनकार करते हैं. वो कहते हैं कि वे जीतनराम मांझी के साथ मिलकर काम करना चाहते थे, लेकिन मांझी के साथ वाले लोगों को एनडीए ज़्यादा पसंद आई. पप्पू यादव कहते हैं, “लोगों को ऐसा लगा कि पप्पू यादव जीतनराम मांझी के साथ हैं और मांझी एनडीए के साथ हैं. तो पप्पू एनडीए में जा सकते हैं.”
लेकिन बातचीत के क्रम में ऐसा लगा कि जीतनराम मांझी से समझौता न होने की टीस पप्पू के मन में ज़रूर है. पप्पू बिहार के राजनीतिक समीकरण में तीसरे मोर्चे के साथ हैं, जिसमें समाजवादी पार्टी तो है, लेकिन शरद पवार और तारिक अनवर की एनसीपी आख़िरी क्षण में अलग हो गई. उन्हें ऐसा लगा कि मुलायम सिंह यादव के बयान भाजपा के समर्थन वाले हैं, इसीलिए एनसीपी को अपने वोट बैंक की चिंता हो गई. लेकिन इसने पप्पू यादव की मुहिम को और भोथरा किया. पप्पू यादव शरद पवार पर जम कर बरसते हैं और कहते हैं कि वे महाराष्ट्र में तो भाजपा सरकार को समर्थन देने को तैयार बैठे हैं और यहाँ मुलायम सिंह पर सवाल उठा रहे हैं. युवकों, मुसलमानों, दलितों और पिछड़ों की बात करते-करते पप्पू नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार और लालू यादव पर सबसे ज़्यादा चोट करते हैं.
वे नीतीश कुमार को सबसे बड़ा भाजपाई कहते हैं, नरेंद्र मोदी पर झूठ बोलने का आरोप लगाते है और लालू प्रसाद यादव को सबको पैर से रौंदने का आरोप लगाते हैं. दरअसल लालू और नीतीश के साथ पप्पू के अनुभव अच्छे नहीं हैं. उनकी वो टीस उनकी बातों में दिखती है. नरेंद्र मोदी पर हमला, उनकी अपना वोट बैंक को बचाने की कोशिश और मांझी को उनसे दूर ले जाने की पीड़ा को भी दिखाता है. दरअसल बिहार में अब दो प्रमुख गठबंधनों के अलावा जनता किसी मोर्चे या पार्टी की कम ही बात करती है. कुछ इलाक़ों, उम्मीदवारों के व्यक्तिगत प्रभाव को छोड़ दिया जाए, तो यही स्थिति हर जगह है.
समाचार एजेंसी पीटीआई के पटना ब्यूरो प्रमुख संजय कुमार सिन्हा कहते हैं, “कोसी में उनका प्रभाव क्षेत्र है. लेकिन शुरू में उनकी रैलियों में हर जगह भीड़ हुई. लेकिन धीरे-धीरे महागठबंधन और एनडीए में लड़ाई आमने-सामने की हो गई है और तीसरा मोर्चा लुप्त होता दिख रहा है.” हालाँकि वे मानते हैं कि कोसी क्षेत्र में पप्पू के व्यक्तिगत प्रभाव के कारण उनकी पार्टी को कुछ सीटें मिल सकती हैं, लेकिन चुनाव बाद स्थितियों में ये पप्पू यादव की कोई अहम भूमिका तय करेगी, इसमें उन्हें शक है. आदर्श राजनीति की बात करते-करते पप्पू यादव भी समर्थन देने के मुद्दे पर एक नया विकल्प उछाल देते हैं. कहते हैं- ‘अगर ऐसी स्थिति आई तो हम समर्थन लेंगे, देंगे नहीं.’
वैसे पप्पू यादव को भी ये पता है कि ऐसी स्थिति के आसार बहुत कम हैं, इसलिए तो वे कहते हैं- ‘हम तो धरती पर हैं गिरेंगे तो चोट नहीं लगेगी, लेकिन जो पाँच मंजिले पर हैं, वे गिरेंगे तो बचेंगे ही नहीं.’ इस चुनाव में पप्पू का निशाना नंबर वन लालू यादव नज़र आते हैं. उनके बेटों का वे बार-बार ज़िक्र करते हैं. कहते हैं कि बेटों के कारण ही लालू यादव ने उन्हें पार्टी से निकाला. लेकिन पप्पू की ये निजी लड़ाई इस चुनाव में उन्हें कितना आगे तक ले जाएगी, ये कहना कठिन है. इतना तो तय है कि पप्पू यादव के दिमाग़ में यही रणनीति चल रही है कि कैसे ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीती जाएँ, पार्टी को स्थापित किया जाए और चुनाव बाद की स्थितियों में अपना पलड़ा भारी रखा जाए.
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