लालू को जो 'ढंग से' जानते हैं, वे ये भी जानते हैं

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हालांकि कई लोगों ने सोशल मीडिया पर यह दावा किया है कि इसका नतीजा ‘जंगल राज की वापसी’ के रूप में सामने आएगा। अरुण ने कहा, ‘पूरे चुनाव के दौरान ‘जंगल राज’ का हौव्वा बनाकर रखा गया और यह बेहद दुखद है कि जनता द्वारा जनादेश दिए जाने के बाद भी, लालू पर प्रहार जारी हैं। टिप्पणियां अच्छी, बुरी या भद्दी हो सकती हैं लेकिन लोग इस व्यक्ति को नजरअंदाज कतई नहीं कर सकते।’

पटना। जातिगत-जटिलताओं में उलझे बिहार में 1990 के दशक में सत्ता में आने वाले और घोटाले के दाग दामन पर लगने के बाद राज्य में अपनी सत्ता खो बैठने वाले लालू प्रसाद यादव के बोलने के अलग अंदाज की भले ही नकल उतारी जाती हो लेकिन उन्हें करीब से देखने वाले लोगों का मानना है कि राजनीतिक मोर्चे पर लालू की दमदार वापसी यह दिखाती है कि वह जन भावनाओं पर कितनी मजबूत पकड़ रखते हैं।
‘लालू को अच्छा कहें या बुरा, पर उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते’
पंजाब के एक जाने माने निजी स्कूल के प्राचार्य अरुण 1970 के दशक के दौरान पटना विश्वविद्यालय में लालू के जूनियर रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘जब मैंने टीवी पर नतीजे देखे तो मुझे खुशी हुई। यह खुशी किसी पार्टी विशेष के लिए नहीं थी, बिहार के लिए थी।’ हालिया विधानसभा और संसदीय चुनावों में राजनीतिक हाशिए पर धकेल दिए गए लालू ने महागठबंधन की इस दमदार जीत के साथ बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में ‘किंगमेकर’ के रूप में वापसी की है। हालांकि कई लोगों ने सोशल मीडिया पर यह दावा किया है कि इसका नतीजा ‘जंगल राज की वापसी’ के रूप में सामने आएगा। अरुण ने कहा, ‘पूरे चुनाव के दौरान ‘जंगल राज’ का हौव्वा बनाकर रखा गया और यह बेहद दुखद है कि जनता द्वारा जनादेश दिए जाने के बाद भी, लालू पर प्रहार जारी हैं। टिप्पणियां अच्छी, बुरी या भद्दी हो सकती हैं लेकिन लोग इस व्यक्ति को नजरअंदाज कतई नहीं कर सकते।’
‘लालू ने एक राजनेता बनने का बड़ा अवसर गंवा दिया’
पटना में रहने वाले पूर्व रॉ अधिकारी ज्योति कुमार सिन्हा (71) ने जब वर्ष 1990 में लालू के सत्ता में आने की खबर सुनी, तब वह खुद पेरिस में थे। उन्होंने भारी उत्साह के साथ इस खबर का स्वागत किया लेकिन समय बीतने के साथ उनका मोह अब इस नेता से भंग हो गया है। सिन्हा ने बताया, ‘यह अविश्वसनीय था और लालू के सत्ता में आने से देशभर में एक जोश पैदा हो गया था। यह लोकतंत्र का जादू था और सामाजिक सशक्तीकरण की ओर बढ़ने की शुरुआत थी। मुख्यमंत्री के रूप में लालू का पहला कार्यकाल अच्छा था।’ सिन्हा यह बात मानते हैं कि लालू कुछ हद तक ‘सशक्तीकरण की भावना’ लेकर आए लेकिन उन्होंने आरोप लगाया कि ‘लालू ने एक राजनेता बनने का बड़ा अवसर गंवा दिया और इसकी बजाय वह किसी अन्य साधारण नेता की तरह होकर रह गए।’ जेपी की ‘संपूर्ण क्रांति’ से उभर कर आए लोगों में से एक रहे लालू के राजनीतिक सफर की शुरुआत जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले छात्र आंदोलन से हुई, जो कि अंतत: पूरे देश में फैल गया था। इस देशव्यापी आंदोलन का नतीजा इंदिरा गांधी की सरकार गिर जाने के रूप में सामने आया था।
लालू यादव की उतारी जाती है नकल…
बोलने के अपने एक अलग अंदाज के कारण अक्सर प्रेस द्वारा बिहार के इस पूर्व मुख्यमंत्री को निशाना बनाया जाता रहा है। कितने ही टीवी शो प्रस्तोता उनके बोलने के अंदाज की नकल उतारते हुए नजर आते हैं। अरुण ने कहा, ‘बिहार के अंदर और बाहर कई लोग उनके बारे में जो कुछ भी सोचते हों, मुझे नहीं लगता कि लालू के तौर-तरीके किसी भी तरह से बिहार की छवि खराब करते हैं।’ उन्होंने कहा, ‘लालू छात्र राजनीति के दिनों में भी बोलने के दौरान अपने विशेष देहाती अंदाज का इस्तेमाल करते थे। धीरे-धीरे उनका यह अंदाज उनकी खासियत बन गया।’ अरुण ने कहा, ‘वह उस तरह से बोलते हैं क्योंकि वह अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों से बात कर रहे होते हैं… वे वंचित, गंवई और ठेठ तबके से बात कर रहे होते हैं। एक ऐसा वंचित समुदाय, जोकि उनमें अपना नेता देखता है।’ वर्ष 1948 में उत्तरी बिहार के फुलवरिया में जन्मे लालू वर्ष 1954 में पटना आ गए थे। उन्होंने वर्ष 1966 में पटना विश्वविद्यालय के तहत आने वाले बी एन कॉलेज में दाखिला लिया और इस दौरान वह छात्र राजनीति से भी जुड़ गए । 1967-69 तक वह पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ (पीयूएसयू) के महासचिव थे।
‘निचली जाति के लोगों तक सामाजिक सशक्तिकरण लाए’
गुड़गांव में कार्यरत आईटी पेशेवर राम कुमार ने कहा, ‘लालू निचली जाति के लोगों तक सामाजिक सशक्तिकरण लेकर आए। वह हाशिए पर जीने वालों और निचले तबकों की आवाज बनकर उभरे ..इस बात को कम करके नहीं देखा जा सकता।’ उन्होंने कहा, ‘मैं मुजफ्फरपुर के एक गांव से आता हूं और ऊंची जाति का हूं। मेरे बचपन के दिनों में, मैं देखा करता था कि निचली जाति के लोग जमीन पर और ऊंची जाति के लोग कुर्सियों पर बैठा करते थे। लालू जब मुख्यमंत्री बनकर आए तो यह चीज गायब होना शुरू हो गई। अब आप गांव जाते हैं तो यह बदलाव आपको दिखाई देता है।’उन्होंने कहा, ‘लालू का कद बढ़ने को ऊंची जाति के कई लोग एक खतरे के रूप में देखते थे क्योंकि वह उनकी जाति से नहीं आते थे। इससे समाज में टकराव पैदा हुआ और वह कुछ हद तक अभी भी मौजूद है।’ किशनगंज (1996), सीवान (1997), सासाराम (1998) और दरभंगा (2001-2003) में जिला मजिस्ट्रेट के रूप में कार्यरत रहे पटना निवासी राम बहादुर प्रसाद ने कहा, ‘1990 के दशक में विकास की कमी का दोष सिर्फ लालू को देना गलत होगा। केंद्र से पर्याप्त धन ही नहीं मिल रहा था।’ प्रसाद ने कहा, ‘जहां तक ‘जंगलराज’ का मुद्दा है तो यह सच है कि 90 के दशक के बीच में लालू के जेल जाने पर कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ गई थी लेकिन लोग आज उस दौर का हौव्वा बनाकर डर नहीं पैदा कर सकते। चीजें बदल गई हैं।’ अरुण को भी लगता है कि बिहार के दुर्भाग्य के लिए अकेले लालू को दोष नहीं दिया जा सकता। उन्होंने दावा किया, ‘लालू को विरासत में एक खस्ताहाल व्यवस्था मिली थी क्योंकि बिहार का पतन तो 1960 के दशक के मध्य में संयुक्त मोर्चा सरकार के दौरान ही शुरू हो गया था। शिक्षा, स्वास्थ्य और कई अन्य क्षेत्र पहले से ही बदहाल स्थिति में थे। यह कह सकते हैं कि 1990 के दशक में लालू के दौर में इस गिरावट में तेजी आई। यहां तक कि चारा घोटाला भी जगन्नाथ मिश्रा के शासनकाल में हुआ।’
‘बुरी ही नहीं, अच्छी चीजें भी की हैं लालू ने’
उन्होंने कहा, ‘अगर लालू ने बुरी चीजें की हैं तो उन्होंने अच्छी चीजें भी की हैं, जैसे कि रेलमंत्री के रूप में उनका काम… उसे किसी मीडिया ने चुनावों में अपनी रिपोर्ट में शामिल नहीं किया। आपको लालू जैसे व्यक्तित्व का आकलन करने में इन चीजों को ध्यान में रखना होगा कि वह बेहद साधारण पृष्ठभूमि से उठकर और दृढ़ प्रतिबद्धताओं के साथ यहां तक पहुंचे हैं।’ आप चाहे उन्हें पसंद करें या नापसंद, लालू एक ऐसे व्यक्ति हैं, जो यहां जमे रहने के लिए हैं। अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता का एक तरह से प्रमाण पेश करते हुए अपने चिरपरिचित मजाकिया लहजे में लालू ने एक बार कहा था, ‘जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू।’






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