सत्ता से दूर होकर संशय में बिहार के राजपूत
भव्य इतिहास की टीस और स्वर्णिम भविष्य की कल्पना करते हुए राजपूत वर्तमान में किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए हैं। राजतंत्र में राज करने वाली राजपूत जाति लोकतंत्र में नकारात्मकता से जड़-सी हो गई है। भाजपा के स्वाभाविक पैरोकार रहे राजपूतों की मांग है कि उपयुक्त समय आने पर उन्हें समुचित सम्मान मिले।
अनंत अमित
पहले कहा गया कि 2014 के लोकसभा चुनाव में जाति के दंश से बिहार मुक्त होता हुआ सा लगा था, लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर जाति का तिलिस्म टूटता हुआ सा नहीं दिख रहा है। टिकट बंटवारे में जिस प्रकार से जाति का को आधार बनाया गया और उसके बाद चुनाव प्रचार में विकास के बजाय जाति अहम हो गया, अब तो यही कहा जा सकता है कि जाति के बिना नहीं है कोई माय-बाप।
भाजपा की बात की जाए, तो भाजपा ने अब तक घोषित 153 उम्मीदवारों में से 74 सवर्णों को टिकट दिया है। इनमें सबसे ज्यादा 39 राजपूत, 19 भूमिहार, 13 ब्राह्मण और 2 कायस्थ हैं। यादव वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए एनडीए ने 22 यादवों को भी टिकट दिया है। प्रतिकार स्वरूप महागठबंधन ने भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए 34 सवर्ण उम्मीदवार उतारे हैं। दलित-महादलित वोट बैंक पर दोनों गठबंधनों की नजर है। महागठबंधन ने 24 महादलितों को टिकट दिया है भाजपा ने 12 को।
वैसे, तो भाजपा और राजपूत का पुराना साथ रहा है। बिहार भाजपा में तो यह रीढ़ साबित हुआ है। आपसी बातचीत में कई राजपूत नेता कहते हैं कि हमारे समाज ने हमेशा से भाजपा को बिना किसी स्वार्थ के समर्थन दिया है, जबकि आज तक हमें कुछ खास नहीं मिला है। असल में क्षत्रिय कट्टर राष्ट्रवादी होने की वजह से हमेशा भाजपा का समर्थन करता रहा है। लोकसभा चुनाव में केंद्र में मोदी सरकार को लाने में क्षत्रिय समाज का सबसे अहम योगदान हैं। इसलिए मोदी सरकार से क्षत्रियों की अपेक्षाए होना अवश्यम्भावी है। बता दें कि इस समय देश में लगभग 40 राजपूत सांसद हैं, जिनमें भाजपा से 38 हैं और दो उड़ीसा में बीजू जनता दल से हैं। यह सिद्ध करता है कि देश भर में राजपूतों ने मोदी के नाम पर भाजपा को ही एकतरफा समर्थन किया था। यह सही है कि नरेंद्र मोदी अपने मंत्रिमंडल में 8 राजपूतो को मंत्री बनाया है, जो पिछली सरकारों से बहुत बेहतर है।
बिहार में सत्ता का इतिहास बताता है कि पारंपरिक रूप से एक-दूसरे के विरोधी भूमिहार और राजपूतों ने सत्ता को साझा किया। श्रीकृष्ण सिंह के साथ अनुग्रह नारायण सिन्हा (राजपूत) बिहार के पहले उपमुख्यमंत्री बने थे। लेकिन श्रीकृष्ण सिंह का सूर्य अस्त होने के बाद राजपूतों ने गद्दी पर दावा ठोंका। केवल 17 दिनों के लिए। उसके बाद दीप नारायण सिंह बिहार के दूसरे मुख्यमंत्री बने। भूमिहार और राजपूतों के बाद बारी ब्राह्म्णों की आई। विभिन्न जातियों में राजनीतिक अंतर्द्वद्व के चलते मुख्यमंत्री के रूप हरिहर प्रसाद सिंह ने शपथ ली। वे 22 फरवरी 1969 से लेकर 22 जून 1969 तक मुख्यमंत्री रहे। बाद में सत्ता के उठापटक के खेल में बाजी पिछड़ों ने मारी। ब्राह्म्ण गुट, राजपूत गुट और यादव गुट सब एक-दूसरे से कुश्ती खेल रहे थे। परिणाम यह हुआ कि इंदिरा गांधी ने पैराशूट सीएम के रूप में अब्दुल गफूर को उतार दिया। लेकिन सत्ता के शिखर को लेकर ब्राह्म्णों और राजपूतों में आपसी संघर्ष दिखता रहा। यही वह दौर था, जब पहले चंद्रशेखर सिंह (राजपूत) के बाद बिंदेश्वरी दूबे (ब्राह्म्ण) और भागवत झा आजाद बिहार के मुख्यमंत्री बने। सवर्णों का युग समाप्त होने के पहले सत्एंद्र नारायण सिंह(राजपूत) ने मुख्यमंत्री पद पर कब्जा जमाकर अपने पिता व पहले उपमुख्यमंत्री रहे अनुग्रह नारायण सिन्हा के अधूरे सपने को पूरा करने में सफलता हासिल की।
वर्तमान में जब बिहार की बात आती है, तो राज्य स्तर पर भाजपा द्वारा राजपूतों को नजरअंदाज किया जाता है।बिहार में 8 प्रतिशत राजपूत आबादी है, जो पारंपरिक रूप से भाजपा के साथ है। भाजपा में राधामोहन सिंह और राजीव प्रताप रूडी जैसे नेता हैं, जिनमें छत्तीस का आंकड़ा बताया जाता है। कुछ लालू प्रसाद को भी समर्थन करते हैं। जैसे, रघुवंश प्रसाद सिंह, प्रभुनाथ सिंह। लालू के सामने इनकी हैसियत कितनी है, यह कहने की जरूरत नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है कि राजनीति में राजपूत पिछड़े क्यों? इसकी सबसे बड़ी वजह हैं कि राजनीतिक राजपूतों में एकता नहीं होती। इतिहास उठाकर देखें, राजपूत एक-दो मौके छोड़कर कभी एक होकर नहीं लड़े। मान सिंह गजब के योद्धा थे, पर एकता ना होने की वजह से और अपमान से खिन्न होकर मुगलों के साथ जा मिले। इतिहास उठा कर देखिए, मुगल शासन के लिए सारे बड़े युद्ध राजपूत सेनापतियों और सैनिकों ने लड़े और विजई हुए। सोचिए, अगर सारे राजपूत एक होकर राजपुताना के लिए मुगलों के खिलाफ लड़ते, तो आज इतिहास क्या होता? यही आज वर्तमान में भी हो रहा हैं। चंद राजपूत नेता जो राजनीती में सफलता के शिखर पर बैठे हैं, वे भी अपने लोगों की बेहतरी के लिए कार्य नहीं कर रहे हैं।
Related News
इसलिए कहा जाता है भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपियर
स्व. भिखारी ठाकुर की जयंती पर विशेष सबसे कठिन जाति अपमाना / ध्रुव गुप्त लोकभाषाRead More
पारिवारिक सुख-समृद्धि और मनोवांछित फल के लिए ‘कार्तिकी छठ’
त्योहारों के देश भारत में कई ऐसे पर्व हैं, जिन्हें कठिन माना जाता है, यहांRead More
Comments are Closed