साख का सवाल बन गया है बिहार चुनाव?
अरविंद मोहन
बिहार चुनावी मोड में आ गया है. मुख्य चुनाव आयुक्त के सितंबर-अक्तूबर में चुनाव की संभावना जताने से पहले वह भूकंप की चर्चा और चिंता कर रहा था. राजनीतिक रूप से सबसे सचेत और सामाजिक समूहों की गोलबंदी में आगे बिहार का तेजी से चुनाव के रंग में रंगना स्वाभाविक है. 1857 के विद्रोह के बाद से राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों का केंद्र रहे बिहार का अपना तो काफी कुछ दांव पर है. इस बार देश की राजनीति का आगे का रास्ता भी काफी कुछ बिहार चुनाव के नतीजों पर निर्भर करेगा. तेज और बेहतर विकास का सवाल, 25 साल से जारी पिछड़ापन और सेक्युलर सरकार का सवाल, नीतीश कुमार बनाम बड़े मोदी या छोटे मोदी या फिर किसी और नेता का सवाल, लालू-नीतीश जैसों के राजनीतिक भविष्य का सवाल भी इस चुनाव से जुड़ा है. अगर लालूजी जहर पीने की बात खुलकर करते हैं तो लोकसभा चुनाव के बाद नीतीश ने, खुद लालू यादव ने या राज्य सरकार के गिरने से लेकर जदयू के बिखरने जैसे कई बड़े दावे करके पिटे सुशील मोदी समेत अन्य भाजपा नेताओं ने क्या-क्या जहर पीया है यह हिसाब भी लगाना चाहिए. अब बिहार चुनाव के बाद कौन-कौन जहर का घूंट पीएगा. यह कहने का अभी कोई मतलब नहीं है. लेकिन लालू-नीतीश की जोड़ी अगर मिलकर नहीं लड़ी या उसने हिंदुओं का ध्रुवीकरण कराने वाला कोई गलत कदम उठाया तो इस बार इन दोनों का राजनीतिक नेतृत्व दांव पर है. संभव है दूसरा पक्ष इन्हें ज़्यादा मुसलमानपरस्त बताने और हिंदुओं को गोलबंद करने का प्रयास भी करे. हालांकि बिहार की राजनीति में सांप्रदायिकता का खेल कम ही चला है. इस बार मुसलमान समाज इसी गठबंधन के पीछे होगा.
भाजपा की दुविधा
दूसरी ओर अगर भाजपा ने किसी अगड़े को नेता प्रोजेक्ट करने का इशारा भी किया तो पिछड़ा गोलबंदी में देर नहीं लगेगी. भले ही उसके पास दलित और पिछड़ा समर्थन दिखता है. लेकिन इन समाजों के सारे नेता सहयोगी दलों के हैं या पार्टी में हाशिए पर रहे हैं. अगर बिहार में लालू-नीतीश की जोड़ी जमती है तो कल को देश भर में अपना अहँ छोड़कर जहर पीने यानी भाजपा विरोधी गठबंधन करने वाले नेताओं की लाइन लग जाएगी.उत्तर प्रदेश में मायावती और मुलायम मिलें न मिलें. लेकिन इन दोनों में कांग्रेस से गठजोड़ करने के लिए उसी तरह की होड़ लगेगी जैसी बिहार में जदयू और राजद ने लगाई थी. वैसे गैर कांग्रेसवाद की तरह गैर भाजपावाद या सेक्युलरवाद की राजनीति अब भी परिभाषित नहीं है, लेकिन यह प्रवृत्ति तेज हो जाएगी.
मोदी की साख
बिहार चुनाव का इससे बड़ा मतलब देश, भाजपा और नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी की आगे की राजनीति के लिए है. अगर दिल्ली में पिटने के बाद मोदी को बिहार से बड़ी जीत मिलती है तो अभी अरुण शौरी से लेकर आडवाणी तक की आलोचना वाला क्रम एकदम रुक जाएगा. फिर कोई वसुंधरा जैसा भी बागी तेवर नहीं अपना सकेगा. सरकार, संगठन और देश की राजनीति में मोदी-शाह की डुगडुगी बजेगी. शायद मई 2014 से भी ज़्यादा जोर से.
और अगर बिहार ने उल्टा परिणाम दिया तो यह क्रम उलटेगा. मोदी की तो नहीं. लेकिन अमित शाह की गद्दी मुश्किल में पड़ेगी. मोदी की आलोचना के स्वर तेज होंगे. नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने का मतलब यह कि हार-जीत भी उनके ही नाम होगी. लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन को विधानसभा की 184 सीटों पर बढ़Þत मिली थी. लेकिन भाजपा तो राज्य की 100 सीटों पर भी ढंग के उम्मीदवार नहीं दे पाती थी. माना जाता है कि पिछली बार तो भाजपा के कई उम्मीदवार नीतीश ने तय किए थे. मोदी के जादू ने ही उसे इस स्थिति तक पहुंचाया है, तो वह उनके नाम पर ही चुनाव लड़े यह उचित है.लेकिन जब उनके नाम पर चुनाव लड़ेंगे तो परिणाम भी उनके भविष्य से जुड़ेंगे. जाहिर है तब बिहार का चुनाव प्रादेशिक कैसे रह जाएगा. (अरविंद मोहन वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम से)
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