दुनिया को युद्ध नहीं बुद्ध चाहिये

dr surjeet kumar singh wardhaबुद्ध पूर्णिमा पर विशेष

डॉ. सुरजीत कुमार सिंह

आज हमारी सम्पूर्ण मानव सभ्यता को यह विचार करने की आवश्यकता है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को कैसी दुनिया छोड़कर जा रहे हैं? जिस तरह की विविधता भरी मनोरम, सुरम्य और सुंदर प्राकृतिक संसाधनों से भरी दुनिया हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए छोड़ी थी, आज वह वैसी बिल्कुल नहीं रह गयी है. हमने पिछली एक-दो शताब्दी से प्राकृतिक संसाधनों का इतनी निर्ममता से दोहन किया है कि आज हमारी इस खूबसूरत दुनिया की हालत बहुत चिंताजनक है. हम सब और हमारी सरकारों इतनी स्वार्थी और स्वकेंद्रित हो गयीं हैं कि हमने अपने खुद के लिए और उद्योगपतियों व पूंजीपतियों के उपभोग और विलासितापूर्ण जीवन जीने के लिए प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट की छूट दे दी है. इससे हमारी पूरी दुनिया पर संकट पैदा हो गया है और समस्त जीव-जगत का जीवन संकट में पड़ गया है. आज पूरी दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों की जो खुली लूट शुरू हुयी है, उससे लोगों और सरकारों में भीषण लड़ाईयां शुरू हुईं हैं. प्राकृतिक आवासीय वातावरण बिगड़ने से वान्य प्राणियों का मानव बस्तियों की ओर पलायन और संघर्ष शुरू हुआ है. इसके कारण हमारे वान्य जीव कई बार संघर्ष में लोगों के द्वारा अपनी जान भी गवां रहे हैं. प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के कारण जलवायु परिवर्तन भी बड़े पैमाने पर हुआ है. इससे पृथ्वी का तापमान भी बढ़ रहा है, जिसके कारण हिमनद और गिलेशियर लगातार पिघल रहे हैं. इस कारण समुद्र का जल स्तर प्रतिवर्ष एक सेंटीमीटर की दर से बढ़ रहा है, अगर बढ़ते तापमान का यही हाल रहा तो आगे आने वाले सौ वर्षों में समुद्र का जल स्तर एक मीटर बढ़ जाएगा. जिसके कारण दुनिया भर में समुद्र के किनारे के बसे तटीय शहर डूब जायेंगे, जैसा कि किरीबाती दीप के साथ हुआ है.

हमारी पृथ्वी के बढ़ते तापमान के कारण अब मौसम भी स्थिर नहीं रह गया है. बहुत सारी प्रजातियाँ जो बढ़ते तापमान के कारण नष्ट हो गयीं हैं, इनमें सैकड़ों की संख्या में जीव-जंतुओं, कीड़ों-मकोड़ों, समुद्री जीवों और तितलियों का जीवन संकटग्रस्त अवस्था में है. बढ़ते औद्योगिकीकरण और अनेक प्रकार की विकिरण के कारण मधुमक्खियाँ, तितलियाँ, उल्लू, चमगादड़ और अन्य छोटी चिड़ियाँ अपना रास्ता भूल रहीं हैं. इन मधुमक्खियों, तितलियों, उल्लू, चमगादड़ और अन्य छोटी चिड़ियों के रास्ता भटकने और असमय मरने के कारण पेड़-पौधों में परागकण नहीं हो पायेगा इससे फसलों का बीज नहीं बनेगा और हमारे सामने खाद्यान्न संकट पैदा हो जायेगा. यदि यही हाल रहा तो हमारी कृषि ऊपज पर इसका बहुत गंभीर परिणाम पड़ेगा. इसका समाधान हम सबको मिलकर निकालना होगा और हमारी सरकारें अगर आज सक्रिय नहीं हुईं तो हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को एक बढ़ते तापमान वाली गर्म होती पृथ्वी और तरह-तरह के सुंदर रंगीन वान्य जीव-जंतुओं से विहीन दुनिया छोड़कर जायेंगे. जिसमें पीने का पानी भी दूषित होगा और सांस लेने वाली स्वच्छ आबो-हवा तो भयंकर रूप से दूषित होगी. यह सब संकट हमारी बढ़ती तृष्णाओं का ही परिणाम है. भगवान बुद्ध ने जब अपना पहला उपदेश धम्मचक्रप्रवर्तन के रूप में सारनाथ में दिया था, तो उनकी चिंता के केंद्र में मानवीय लालच-इच्छायें-तृष्णायें ही थीं. इसीलिए उन्होंने हमारी बढ़ती तृष्णाओं को अपने दूसरे आर्यसत्य में स्थान दिया था. लालच चाहे वह प्राकृतिक संसाधनों की जो खुली लूट के रूप में हो जो हमारी बढ़ती तृष्णाओं का ही परिणाम है. इसलिए हम अपनी उपभोग और विलासितापूर्ण जीवन जीने की आवश्यकताओं को कम करें, तभी हम अपनी इस खूबसूरत दुनिया को अपनी आने वाली पीढ़ियों को दें पायेंगे.buddha580

हम यदि प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट की बात करते हुये इस पर निष्पक्षता से विचार करें तो यह आज कई तरह की मानवीय संघर्ष की समस्याएं भी पैदा कर रही है. इस संघर्ष के कारण दुनिया के कुछ हिस्सों में अशांति, भय और आतंक का माहौल उत्पन्न हुआ है। सबसे बड़ी समस्या लोगों के द्वारा अपने-अपने में देशों निर्वाचित सरकारों की ओर से है, जो उद्योगपतियों व पूंजीपतियों के लिए प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट की छूट देती हैं. इससे वहाँ मानवीय संघर्ष पैदा होता है और उस देश या हिस्सों में व्याप्त गरीबी, भूखमरी, अशिक्षा, बुनियादी स्वास्थ्यगत सुविधाओं का अभाव और बढ़ता भ्रष्टाचार हिंसात्मक रूप में हमारे सामने आता है. आज अगर हम निष्पक्षता से विवेचना करें तो पायेंगे कि जिन देशों में यह समस्याएं हैं, वहाँ मानवीय संघर्ष हिंसा और अशान्ति के रूप में हमारे सामने हैं. यह संघर्ष आतंकवाद और अन्य तरह की हिंसात्मक गतिविधियों के रूप में हमारे सामने आता है. जो हमारी सम्पूर्ण मानव सभ्यता के लिए बहुत ही त्रासदपूर्ण है. इसमें कुछ लोग अपने-अपने हित व दबाब समूह बनाकर और भोले-भाले लोगों को बहकाकर आपस में खून-खराबा करने पर अमादा रहते हैं. इससे बड़ी मानवीय त्रासदी और क्या होगी कि मानव ही मानव के खून का प्यासा है? आतंकवाद चाहे वह किसी भी रूप में हो एक सभ्य समाज के लिए खतरा ही है. आज हम दुनिया के कई देशों और हिस्सों में देखते हैं कि आतंकवाद बढ़ता ही जा रहा है, यदि इस पर धार्मिक-कट्टरता का आवरण चढ़ा दिया जाए तो यह और भी अधिक क्रूर हो जाता है. जिसमें बेगुनाह लोगों की हत्या करने, उनके सिर कलम करने जैसी क्रूरता शामिल है और महिलाओं की नीलामी करना, उनके साथ दुराचार करना यह धार्मिक आतंकी अपने शौर्य की पराकाष्ठा समझते हैं.

आज इस तरह के भयाभय वातावरण में जरूरत है, भगवान बुद्ध के शांति, शील और सदाचार पर आधारित मैत्रीपूर्ण उपदेशों की। जिस प्रकार पूरी दुनिया में आज युद्ध, हिंसा, अराजकता, नफरत और असहिष्‍णुता का माहौल व्‍याप्‍त है और यह बढ़ता ही जा रहा है. ऐसे में आवश्यकता बौद्ध-धम्‍म-दर्शन की मैत्री, करुणा, प्रज्ञा और शील की. जो समस्त जीव-जगत और सभी प्राणियों के प्रति व्‍यापक कल्‍याण की भावना रखती है, जिसमें युद्ध, हिंसा, नफरत और अराजकता के लिए कोई स्थान नहीं है। इसलिए भगवान बुद्ध के समस्त उपदेश और उनकी पैतालीस वर्षों की चारिका सम्पूर्ण जैव जगत, प्राणी जगत, मनुष्‍यता एवं समाज के लिए उच्‍च मानवीय मूल्‍यों, सदाचार, नैतिकता एवं विश्‍व-बंधुत्‍व की कल्याणकारी भावना को स्‍थापित करती है।

यह बात ठीक है कि बढ़ती गरीबी, भूखमरी, अशिक्षा, बुनियादी स्वास्थ्यगत सुविधाओं का अभाव, भ्रष्टाचार और धर्मान्धता इन सब बुराईयों की जननी है. यह बहुत ही शर्म और चिंता की बात है कि आज २१वीं सदी में करोड़ों लोगों को दुनिया भर के विभिन्न देशों और हिस्सों में भूखे पेट सोना पड़ता है. हमारी सरकारें आज भी लोगों को भरपेट भोजन उपलब्ध नहीं करवा पायीं हैं. इसलिए भगवान बुद्ध ने धम्‍मपद के सुखवग्‍ग में कहा कि “जिघच्‍छापरमा रोगा संखारा परमा दुखा”। अर्थात भूख सबसे बड़ा रोग है और व्‍यक्ति के संस्‍कार सबसे बड़े दुख उत्पन्‍न करने वाले हैं। आज हम देखते हैं कि हमारे समाज में कई तरह की समस्याएं होने के वावजूद हम उन सभी बुराइयों से नहीं लड़ते हैं, बल्कि आपस में ही खून-खराबा करने पर आमादा रहते हैं. जब तक हम अपने अंदर की बुराईयों, कमजोरियों और आसक्तियों से नहीं लड़ेंगे, तब तक हम उन सामाजिक बुराईयों से नहीं लड़ पायेंगे. इसलिए भगवान बुद्ध कहते हैं कि “पस्‍स चित्‍तकतं बिम्‍बं अरूकायं समुस्सितं। आतुरं बहुसंकप्‍पं यस्‍स नत्थि धुवं ठिति”।। अर्थात इस शरीर को देखो जो विचित्र व्रणों से युक्‍त है, फूला हुआ है, पीडि़त हुआ है और यह नाना संकल्‍पों से युक्‍त है, इसकी स्थिति अनियत है। अत: हमें चाहिए कि हम पहले अपने अंदर की समस्त आसक्तियों को दूर करें और अपने अंदर अच्छे कर्मों की समृद्धि पैदा करें.bhagwan buddh

जब हम आंतरिक तौर से मजबूत होंगे तब ही हम समाज में व्याप्त बाहर की बुराईयों से लड़ पायेंगे. क्योंकि बाहर बहुत सारी असमानताएं हैं. इसलिए तथागत बुद्ध धम्मपद के जरावग्ग में कहते हैं कि “को नु हासो किमानन्‍दो निच्‍चं पज्जलिते सति। अन्‍धकारेन ओनद्धा पदीपंन गवेस्‍सथ”।। अर्थात जब नित्‍य ही आग जल रही है, तो कैसी हँसी, कैसा आनन्‍द? अंधकार से घिरे तुम दीपक को क्‍यों नहीं ढूंढ़ते हो? इसलिए हमें अपने जीवन के सत्य को खोजना चाहिए, न कि दूसरे लोगों को कष्ट देना चाहिए. तथागत बुद्ध धम्‍मपद के दण्‍डवग्‍ग में कहते हैं कि “सब्‍बे तसन्ति तण्‍डस्‍स सब्‍बे भायन्ति मच्‍चुनो। अत्‍तानं उपमं कत्‍वा न हनेय्य न घातये”।। अर्थात सभी दण्‍ड से डरते हैं, सभी मृत्‍यु से भय खाते हैं, इसलिए अपने समान जानकर किसी दूसरे को न मारें और न मारने की प्रेरणा दें। क्योंकि “सब्‍बे तसन्ति दण्‍डस्‍स सब्‍बेसं जीवितं पियं। अत्‍तानं उपमं कत्‍वा न हनेय्य न घातये”।। अर्थात सभी लोग दण्‍ड से डरते हैं, सभी को जीवन प्रिय है, इसलिए सभी को अपने समान जानकर न मारें, न मारने की प्रेरणा दें। बौद्ध ग्रन्थ विनयपिटक में मनुष्‍य हत्‍या के सम्बन्ध में स्पष्ट कड़े नियम बताये गए हैं. इसमें गौतम बुद्ध कहते हैं कि “जो भिक्षु जान बूझकर मनुष्‍य को मारे या आत्‍महत्‍या के लिये प्रेरित करे, या कोई शस्‍त्र खोज़कर लाये, या व्यक्ति के मरने की तारीफ करे, मरने के लिये प्रेरित करे। अनेक प्रकार से मरने की तारीफ करें। या मरने के लिए प्रेरित करे तो वह भिक्षु पाराजिक का दोषी होता है अर्थात वह भिक्षु संघ में रहने के योग्य नहीं रहता है”। इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव हत्या और हिंसा के सम्बन्ध में तथागत बुद्ध का स्पष्ट मत था कि वह हत्यारा हिंसक व्यक्ति एक सभ्य मानव समाज में रहने के लायक नहीं रहता है. इसलिए धम्मपद के बुद्ध वग्ग में कहा गया है कि “सब्ब पापस्स अकरण कुस्लस्स उपसपम्दा, सचित्त परियोदापनं एतं बुद्धानं सासनं” अर्थात सभी तरह के पापों का न करना, पुण्य कर्मों का संचय करना और अपने चित्त को परिशुद्ध रखना, यही बुद्धों की शिक्षा है. अत: हम कह सकते हैं कि भगवान बुद्ध के विचारों की आज के समय में बुहत अधिक आवश्यकता है इसलिए आज दुनिया को युद्ध की नहीं बुद्ध की जरुरत है.

(लेखक वर्धा के महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में डॉ. भदंत आनंद कौसल्यायन बौद्ध अध्ययन केंद्र, प्रभारी निदेशक और बौद्ध अध्ययन की प्रतिष्ठित अन्तर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका संगायन के संपादक हैं.)

 






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