बाढ़ की तैयारी, तूफान का सामना

shekhpuraअनिल के गुप्ता
प्राकृतिक आपदा को इंसान रोक नहीं सकता, किंतु उसके प्रभाव को सीमित कर सकता है। इसी बुनियाद के इर्द-गिर्द आपदा प्रबंधन का समूचा ढांचा खड़ा है। इस मामले में हमारी तैयारी पहले से काफी अच्छी हुई है, परंतु काम अब भी टुकड़ों-टुकड़ों में ही किया जाता है। जैसे, साल 2008 में कोसी में बाढ़ आई, तब से वर्षों तक बिहार में बाढ़ से निपटने की तैयारियां चलती रहीं। गुजरात में 2001 में भूकंप आने के बाद वहां भूकंप रोधी तकनीक पर जोर रहा। उत्तराखंड में साल 2013 में आई बाढ़ से पहले तक, चमोली भूकंप को ध्यान में रखकर आपदा प्रबंधन नीति अपनाई जाती रही, जबकि अंतरराष्ट्रीय आपदा प्रबंधन में जोर इस बात पर होता है कि आपदा के तरह-तरह के खतरों का आकलन करके सबके लिए इंतजाम एक साथ हों। यानी एक तरह की आपदा के प्रभाव को कम करने के दौरान हम दूसरी तरह की आपदाओं से भी निपटने के नुस्खे अपनाएं। आंधी-तूफान से बिहार के बड़े हिस्से में मची तबाही को भी इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए।
कई वर्षों से बिहार में आपदा प्रबंधन के तहत बाढ़ की विनाशलीला को रोकने पर जोर दिया जाता रहा। इस तरफ, राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, कई गैर-सरकारी संगठन और स्थानीय लोगों ने मिल-जुलकर काफी सराहनीय काम किए हैं। लेकिन बाढ़ के खिलाफ छिड़ी लड़ाई ने इस राज्य को दूसरी आपदाओं के मोर्चे पर कमजोर ही किया है। इसके अलावा, समय की कमी के कारण राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण अभी प्रारंभिक योजना तक ही है, इसलिए इसकी नीतियों में अन्य आपदाओं से जुड़ी चुनौतियों को जोड़ा जाना बाकी है। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में इस नीति का पालन हो रहा है कि मकान ऊंची जगहों पर बनाए जाएं, लेकिन ए घर एयरोडायनेमिक मॉडलण के हों, इस तरफ ध्यान नहीं है, जबकि पुराने समय में इसी तरह के घर बनते थे। कभी खुले-खुले, हवादार घर मैदानी इलाकों की पहचान होते थे, अमूमन ए दो हिस्सों में बंटे होते थे, लेकिन अब ऐसे घर कम ही बनते हैं। यह स्थिति हमें सीख देती है कि पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक तकनीक के मिश्रण से ही कुदरती आपदाओं से निपटा जा सकता है।
योजनाओं का कागजों तक सिमट जाना, दरअसल उनका दम तोड़ देना होता है। इसलिए इनके बारे में प्रशासनिक स्तर से स्थानीय स्तर तक जानकारी होनी चाहिए। अक्सर छोटे क्षेत्रों में यह दिखता है कि नीतियों की रूपरेखा एक कलेक्टर द्वारा पास होती है, लेकिन नए या दूसरे कलेक्टर को इसकी सूचना नहीं होती। यही वह जगह है, जहां पहुंचकर अच्छी-अच्छी योजनाएं बेकार हो जाती हैं। गांधी जी ने कहा था कि अपना विकास स्थानीय होना चाहिए। उसी तर्ज पर आपदा प्रबंधन पंचायती राज तक ले जाना होगा। इसमें ऊपर से नीचे तक, सबकी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। हर एक नागरिक को यह मालूम होना चाहिए कि मेरी खेती, मेरे परिवार और मकान के ऊपर कैसे-कैसे कुदरती संकट हैं। मौसम विभाग की सूचना उस तक पहुंचनी चाहिए। यह सूचना कहां से मिलती है, कैसे मिल सकती है और इसके क्या लाभ हैं, इन सबके बारे में कई सारे लोगों को जानकारी नहीं होती है। ज्यादातर लोग रेडियो या टेलीविजन को मनोरंजन का माध्यम भर मानते हैं। कलेक्टर द्वारा जानकारी आम लोगों तक पहुंचते-पहुंचते देर हो जाती है, ग्रामीण स्तर पर बचाव या राहत-प्रबंधन की कोई तैयारी हो नहीं पाती।
आपदा के दौरान जानमाल के नुकसान के मूल्यांकन के साथ पर्यावरणीय विभीषिका के प्रभाव क्षेत्र का भी अध्ययन जरूरी है। इससे बेहद प्रभावित, प्रभावित व अल्प-प्रभावित क्षेत्रों का नक्शा खींचने में आसानी रहता है। जैसे, जब चक्रवाती तूफान हुदहुद आया, तो सबने यह देखा कि यह कहां टकरा रहा है। पूर्वी भारतीय तट को खाली कराने का काम हुआ, वहां बचाव व राहत की तैयारी की गई। लेकिन राजस्थान के मरुस्थल और छत्तीसगढ़ तक इसके प्रभाव-क्षेत्र रहे। वहां पड़ने वाले असर के बारे में नहीं सोचा गया। अगर एक बार इस तरह का कोई काम हो, तो एक उदाहरण पेश होगा कि सुदूर प्रभाव-क्षेत्र तक आपदा प्रबंधन नीति लागू की जानी चाहिए।
आपदा को लेकर ह्यरीएक्टिवह्ण की जगह ह्यप्रो-एक्टिवह्ण होना जरूरी है। हमारे पास इस मूल्यांकन की कोई व्यवस्था नहीं कि प्राकृतिक आपदा के खतरे के खिलाफ हमारी तैयारियां कैसी हैं, खास तौर पर इलाकाई स्तर पर। अत: आकलन और मानदंड, दोनों आवश्यक हैं। दिल्ली में कुछ साल पहले आंधी-तूफान आने से हालात बिगड़ गए थे। सोचना होगा, जैसा तूफान बिहार में आया, वैसा यहां आए, तो कितना बड़ा असर पड़ेगा! इसी तरह, बिहार में आया तूफान वैज्ञानिक रूप से बहुत बड़ी घटना नहीं है। दरअसल, तैयारी और जन-चेतना, दोनों न होने के कारण बड़ा नुकसान हुआ।
हर बार की तरह, स्थानीय नुकसान में जानमाल के नुकसान को देखा जा रहा है, जबकि आर्थिक नुकसान में पर्यावरणीय क्षति को शामिल किया जाना चाहिए। पूर्णिया, मधेपुरा, मधुबनी, दरभंगा और सीतामढ़ी की मिट्टी काफी उपजाऊ है। तूफान में काफी फसलें भी तबाह हुई हैं। आम-लीची के बागान भी उजड़े हैं। इस नुकसान के आकलन से बचाव की व्यापक तैयारी होगी। जैसे, खेतिहर क्षेत्रों में हवा के दबाव को कम करने के रास्ते निकाले जाएंगे। गांव वहीं बसेंगे, जहां प्राकृतिक आपदा के असर कम से कमतर होंगे। पहले बिहार में खेतों की मेड़ों पर पेड़ लगाए जाते थे, जो तेज हवा को अपने ऊपर झेलकर फसलों को बचाने का काम करते थे। इसी तरह, गांव के बाहर काफी सारे तनेदार पेड़, ज्यादा टहनियों वाले पत्तेदार पेड़ लगाए जाते थे, ताकि वे हवा का तेज दबाव झेल लें। गाछी, बागानों के बाद लोग बसते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है।
जलवायु परिवर्तन के नजरिए से भी इस पूरे मसले को देखना होगा, तभी अधिक से अधिक जानमाल की रक्षा हो पाएगी। लेकिन अब तक अपने यहां जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। इसी तरह, पुरानी घटनाओं से भी हम सीख नहीं लेते। हम आपदा के दो-तीन साल तक चेते रहते हैं, उसके बाद हर स्तर पर पुरानी गलतियों को दोहराने लगते हैं। इसलिए प्राकृतिक आपदा की बड़ी घटनाएं स्कूली पाठ्यक्रमों में शामिल की जानी चाहिए। भोपाल त्रासदी, भुज भूकंप, कोसी की बाढ़, उत्तराखंड त्रासदी जैसे विषय स्कूली पाठ्यक्रमों में होंगे, तो बाल मन में ही यह बात पैठ जाएगी कि हम कुदरत के बनाए कायदे तोड़ते हैं, तो नतीजे हमारे अनुकूल नहीं रहेंगे। (लेखक अनिल गुप्ता नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ डिजास्टर मैनेजमेंट में एसोशिएट प्रोफेसर हैं)






Related News

  • क्या बिना शारीरिक दण्ड के शिक्षा संभव नहीं भारत में!
  • मधु जी को जैसा देखा जाना
  • भाजपा में क्यों नहीं है इकोसिस्टम!
  • क्राइम कन्ट्रोल का बिहार मॉडल !
  • चैत्र शुक्ल नवरात्रि के बारे में जानिए ये बातें
  • ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाही
  • कन्यादान को लेकर बहुत संवेदनशील समाज औऱ साधु !
  • स्वरा भास्कर की शादी के बहाने समझे समाज की मानसिकता
  • Comments are Closed

    Share
    Social Media Auto Publish Powered By : XYZScripts.com