चंपारण आंदोलन के सौ साल : तब-अब का बिहार कैसी

किसानों की दुर्दशा बिहार में ही नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी है। 1991 में नई आर्थिक नीति की शुरुआत के बाद से किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति भी तेज हो गई है। इसका संबंध महज कर्ज से नहीं है, क्योंकि पूंजीवाद के आगमन के पहले भी किसान कर्ज में डूबे रहते थे। चमक-दमक की इस राजनीति के पीछे बिहार की जमीनी हकीकत दबे जा रही है। बिहार सरकार आसानी से कृषि क्ष़ेत्र में अपनी विफलता छिपा लेती है। बिहार की तीन-चौथाई आबादी कृषि पर निर्भर है।

सत्येन्द्र प्रसाद सिंह, युवा पत्रकार
विडंबना है कि जब महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने के अवसर पर बिहार में कार्यक्रम की शुरुआत हो रही थी, तब अपनी मांगों को लेकर पूर्वी चंपारण के मजदूर-किसान आंदोलन कर रहे थे। चूंकि गांधी दमनकारी ब्रिटिश नीति से त्रस्त नील की खेती करने वाले किसानों की दुर्दशा की जानकारी हासिल करने चंपारण गए थे, इसलिए चंपारण सत्याग्रह के बहाने वर्तमान भारत में किसानों की दशा पर र्चचा होना लाजिमी है। बिहार की नीतीश सरकार इस दिशा में पहल करके पूरे देश का ध्यान खींचने में सफल रही है। लेकिन क्या नीतीश कुमार की गांधी में सच्ची आस्था है? क्या गांधी जी के किसान प्रेम की तरह ही नीतीश का किसान प्रेम है? अगर नहीं, तो कैसे माना जाए कि वे गांधी की आड़ में अपनी छवि चमकाने की राजनीति नहीं कर रहे हैं?चंपारण सत्याग्रह के बाद ही गांधी जी का राष्ट्रीय पटल पर प्रादुर्भाव हुआ जिससे राष्ट्रीय आंदोलन को नया आयाम मिला। चंपारण सत्याग्रह गांधी के किसान प्रेम का प्रतीक है, इस नाते पूरे देश में गांधी जी पर परिर्चचा चल रही है। वे भी गांधी जी के प्रति प्राय: प्रेम प्रकट कर रहे हैं, जो उन्हें बुर्जुआ वर्ग का प्रतिनिधि घोषित करते थे। इसका कारण है कि देश की परिस्थितियां बदल गई हैं, अन्यथा गांधी जी तो वही हैं। कहने का मतलब अब गांधी सबके हैं, इसलिए गांधीवाद की व्याख्या भी अपने हिसाब से है। नीतीश सरकार पर भी यह बात लागू होती है। नीतीश विकास के जिस मॉडल का अनुसरण करते हैं, वह मनमोहन सिंह या नरेन्द्र मोदी का मॉडल है। यह मॉडल पूंजीवादी है, न कि समाजवादी या गांधीवादी। पिछले कुछ वर्षो में भारतीय राजनीति में कुछ नेताओं ने सचेत भाव से छवि निर्माण के प्रयास किए हैं। ऐसा लगने लगा है कि नीतीश कुमार की राजनीति वर्तमान समय में इसी पैटर्न पर चल रही है। बिहार में शराबबंदी आंशिक तौर पर ही सफल है, लेकिन मानव श्रंखला बनाकर देश-दुनिया को यह संदेश दिया गया कि शराबबंदी वहां पूरी तरह सफल है। अभी पिछले साल दिसम्बर में उन्होंने गुरू गोविन्द सिंह जी की 350वीं जयंती के अवसर पर पटना में भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया था। देश-विदेश में सिखों के बीच इसकी खूब धूम रही। नि:संदेह नीतीश सरकार का यह सराहनीय कार्य था, लेकिन इसके पीछे की राजनीतिक मंशा को भी छिपाया नहीं जा सकता। उसी समय सिखों में र्चचा होने लगी थी कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री लायक हैं। हाल के चुनावों में विपक्ष के धराशायी होने के बाद ऐसे कई लोगों को नीतीश कुमार के रूप में नरेन्द्र मोदी का विकल्प भी दिखाई पड़ने लगा है। चमक-दमक की इस राजनीति के पीछे बिहार की जमीनी हकीकत दबे जा रही है। बिहार सरकार आसानी से कृषि क्ष़ेत्र में अपनी विफलता छिपा लेती है। बिहार की तीन-चौथाई आबादी कृषि पर निर्भर है। अगर बिहार के किसान खुशहाल नहीं हैं, तो फिर बिहार की उच्च वृद्धि दर का कोई खास महत्व नहीं है। बिहार से पलायन रुक नहीं रहा है। विकास संबंधी आंकड़ों की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़ा हो रहा है। बिहार के किसानों को धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल पाता। सरकार पहले धान खरीद के लिए अपना लक्ष्य तय करती थी, अब वह भी खत्म कर दिया। कारण यह था कि सरकार उसे पूरा नहीं कर पा रही थी। किसानों की फसल की खरीद ज्यादातर निजी क्षेत्र के अनाज व्यापारियों द्वारा की जा रही है। किसानों की आमदनी तभी बढ़ाई जा सकती है, जब उन्हें उपज का समुचित मूल्य मिले। इस बीच नीतीश सरकार ने किसानों द्वारा दिए जाने वाले भू-राजस्व को कई गुना बढ़ा दिया है। डीजल के बाद अब वे बिजली की महंगाई की मार झेलने को मजबूर हैं। किसानों की यह दुर्दशा बिहार में ही नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी है। 1991 में नई आर्थिक नीति की शुरुआत के बाद से किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति भी तेज हो गई है। इसका संबंध महज कर्ज से नहीं है, क्योंकि पूंजीवाद के आगमन के पहले भी किसान कर्ज में डूबे रहते थे। दरअसल, पूंजीवाद ने ग्रामीण सामाजिक जीवन के पूरे ताने-बाने को हिला कर रख दिया है। यह उन्हीं राज्यों में ज्यादा है, जहां विकास के पूंजीवादी मॉडल ने पैर जमा लिए हैं। कहा जा सकता है कि भारत को आजादी मिली, लेकिन किसानों की दुर्दशा का अंत नहीं हुआ। उनकी जमीन पर कॉरपोरेट घरानों की टकटकी लगी हुई है। राजे-रजवाड़ों का स्थान निजी कंपनियों ने ले लिया है। आजाद भारत के यही राजकुमार हैं। इन राजकुमारों से राहत दिलाने में ही गांधी के अहिंसक प्रतिरोध और विकास मॉडल के प्रति सच्चा सम्मान होगा। दुर्भाग्य की बात यह है कि अब बहुत कम लोगों को दलाल पूंजीवाद से परहेज रह गया है। भारतीय राजनीति में राजनीतिक फायदे के लिए गांधी जी के नाम का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है। हाल ही में जनता ऐसे प्रयोग का हश्र देख चुकी है। सच तो यह भी है कि गांधी जी का चंपारण प्रयोग ठीक उसी रूप में धरातल पर उतर नहीं पाया था, जैसा वे चाहते थे।






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