आज भ्रष्टाचार है मुकाबिल…

संजय स्वदेश
गुलाम भारत में अखबारों का चलन आजादी के आगाज के लिए हुआ था। तब एक छोटी सी खबर बड़े बड़ों की चूलें हिला देने के लिए काफी हुआ करती थीं। तभी तो अकबर इलाहाबादी कहते थे कि खीचों न कमानों को, न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो..। आजाद भारत में हालात बदल चुके हैं। जिन अखबारों ने भारत की आजादी में जंग ए सिपाही की तरह काम किया, आज वह विज्ञापन के आगे नतमस्तक हो चुके हैं। आजादी के पहले के गिने चुने अखबार ही आज अस्तित्व में हैं। आज के ज्यादातर अखबार कॉरपोरेट घरानों के हैं। अपने काले धंधे को छिपाने अथवा कमाने के लिए अखबार एक माध्मम बन चुका है।
देश के हालात बदले, तो मीडिया की भूमिका भी बदली। आजाद भारत जैसे-जैसे भ्रष्टाचार की गिरफ्त में फंसता गया, जनता की आस मीडिया से बढ़ती गई। आधुनिक युग में नई तकनीक से लैश मीडिया ने ढेरों घोटालों का पर्दाफाश किया। उस पर जनता का विश्वास भी बढ़ा, लेकिन भ्रष्टाचारियों ने धीरे-धीरे विज्ञापन अथवा दूसरी सुख सुविधाओं का लालच देकर पत्रकारों को भी अपने मोह जाल में घेर लिया। अखबारी घरानों के मालिक मालामाल होते गए। जिन्होंने समय  देख कर ईमान बदला, वे आज भी साधन संपन्न हैं। जो पिछड़ गए वे ठनठन गोपाल हैं। यही कारण है कि धीरे-धीरे समाचार पत्रों से सरोकारों की खबरें दूर होती गर्इं। खोजी खबरें कम होती गर्इं। अखबार के पन्ने विज्ञापन से भरे हुए हैं। दैनिक घटनाक्रम की खबरों की भले ही भरमार हों, लेकिन सरोकारों के समाचार दूर हो चले हैं। लिहाजा, भ्रष्टाचार का दानव मजबूत होता चला गया है। पाठक भी अब एक-एक शब्दों को चाटते नहीं हैं। अखबार के पन्नों पर नजर फिराया, पन्ना पलट दिया। अब यह खबरों पर निर्भर करता है कि किस खबर ने उसे पढ़ने के लिए मजबूर कर दिया। जैसे समय के साथ अखबारों के तेवर बदले, वैसे ही जनता की रुचि भी बदली है। दुनिया को हिला देने वाली खबरों की उम्र भी सप्ताह से ज्यादा नहीं होती। जिन घटनाओं में लाख-दो लाख लोग मारे गए, उसकी खबर पांच-छह दिन बाद कोई नहीं पढ़ता। यह चरित्र है हमारे समाज का। हम वही लिखते हैं जो पाठक पढ़ना चाहते हैं। इसका मतलब यह भी नहीं कि सत्ता और समाज पर से अखबार का प्रभाव खत्म हो चुका है। जिस दौर में मीडिया पर भ्रष्टाचार के दाग लगे, उसी दौर में ऐसे ढेरों मामलों के खुलासे भी हुए जिसमें कई दिग्गजों की चूलें तक हिल गर्इं। वे जेल गए। दूर होते सरोकारों की पत्रकारिता में इन्हीं कुछ उदाहरण से उम्मीद की किरण मीडिया की आस को मजबूती से जगाए हुए है। पत्रकार की जिम्मेदारी तो कवरेज तक सीमित है। सच को बताने के अलावा वे कुछ कर भी नहीं सकते। आज मीडिया का मुकाबला गोरे अंग्रेजों से नहीं है कि अखबार को तोप की तरह निकाला जाए। आज मुकाबला काले ईमान के भ्रष्टाचारियों से है। इसी मुकाबिल में ही शुरू हो रहा है बिहार कथा…






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