आपलोग 2019 की सोचिये, हम तो 2025 की बात सोच रहे हैं।’

पुष्य मित्र
2025 ? ‘जी हाँ, 2025 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सौ साल का हो जाएगा। हम चाहते हैं कि इस मौके पर पूरे राष्ट्र में हमारी सरकार हो और अखंड भारत भले मुमकिन न हो, मगर भारतवर्ष से अलग हुए तमाम मुल्क राजनीतिक रूप से हमारे आगे नतमस्तक हों। इसलिये हम 2019 की नहीं, 2025 की तैयारी कर रहे हैं।’
एक मित्र से कल आरएसएस और मौजूदा राजनीति पर दिलचस्प बातचीत हुई। आरएसएस के एक वरीय पदाधिकारी उनके परिचित थे, उन्होंने एक बातचीत में उन्हें यह बताया। यह जानकारी एक बार फिर यह प्रूव करती है कि एक संघटन के रूप में आरएसएस कैसे देश के तमाम संगठनों से कई कदम आगे है।
आप उसकी विचारधारा से असहमत हो सकते हैं, कह सकते हैं कि वह अलगाव और विखंडन की राजनीति करता है। मगर अपने लक्ष्य के प्रति उसके कार्यकर्ताओं की निष्ठा और उसे पाने के लिये वे जिस स्तर की मेहनत करते हैं, उसे दूसरे दलों के लोगों को भी सीखना चाहिये। इस व़क्त जब हम और आप अलग-अलग मुद्दों पर राय जाहिर करते हुए सोशल मीडिया के छोटे-छोटे ब्रांड बनने की कोशिश कर रहे हैं, आपको इल्म भी नहीं होगा कि बिहार के किशनगंज, बंगाल के मालदा, केरल, मेघालय, तमिलनाडु, लद्दाख जैसे इलाकों में उनके गुमनाम कार्यकर्ता किस तरह की कवायदों में जुटे होंगे।
न्यूनतम संसाधनों के साथ बिना कोई शिकायत किये वे कैसे जनमानस को प्रभावित कर रहे होंगे। आपको अचानक एक रोज पता चलेगा कि केरल और बंगाल में बीजेपी की हैसियत मुख्य विपक्षी दल की हो गयी। मगर इसके पीछे फटे मौजों और झोले में रखे दो जोड़ी कपड़ों के साथ दशकों के पहले उन इलाकों में पहुंचे कार्यकर्ताओं की कोशिशों के बारे में आप कभी जान नहीं पाएंगे। और न ही वह इसका क्रेडिट लेने की कोशिश करेगा।
कुछ साल पहले अर्जुन मुंडा से साक्षात्कार के सिलसिले में हमें झारखंड के मुख्यमंत्री कार्यालय जाना पड़ा था। वहां हमें एक ऐसे ही व्यक्ति मिले, जिनकी नियुक्ति मुख्यमंत्री के सलाहकार के रूप में आरएसएस की तरफ से की गई थी। दिखने में अति साधारण वह व्यक्ति उस पूरे माहौल में अकेला था जिसे मुख्यमंत्री से कुछ भी नहीं चाहिए था। बांकी लोग जो वहां थे, उनमें किसी को ठेका चाहिए था, किसी को नौकरी तो किसी को संगठन में कोई पद, कोई अपना या अपनी संस्था का नाम मशहूर करने के लिये एक आयोजन में मुख्यमंत्री को बतौर मुख्य अतिथि बनाने आया था, हम भी एक इंटरव्यू चाहते थे। मगर साधारण धोती-कुर्ता और चप्पल में बैठा वह व्यक्ति वहां कुछ लेने नहीं बल्कि मुख्यमंत्री को कुछ देने बैठा था। विचार, ज्ञान, सलाह। उसने हमसे अनौपचारिक बातचीत में यह समझने की कोशिश की कि हम साक्षात्कार में क्या बातचीत कर सकते हैं।
कभी सोचना चाहिये, ऐसे कार्यकर्ता कैसे तैयार होते हैं। जो मशीन के पुर्जे की तरह लगातार नि:स्वार्थ भाव से काम करते रहते हैं। ऐसे कई धोती और चप्पल वाले हैं, जो मोदी को भी निर्देश देते हैं। और उन्हें देखकर मोदी सर झुका देते हैं। भले वे साधारण ऑटो रिक्शा पर चढ़ कर पीएमओ पहुंचे हों। यह ठीक बात है कि इनका लक्ष्य कोई बहुत महान या उद्दात्त नहीं है। ये देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। हिंदुओं में भी पिछड़ों और दलितों के प्रति इनके मन की गहराईयों में बहुत सकारात्मक भाव नहीं है। ये बहुत क्रूरता से अपने विरोधियों को, असहमतियों को खत्म कर देना चाहते हैं। यह सब नकारात्मक है, मगर इनकी जो यह ताकत है, उससे सकारात्मक और क्या है?
और यह कोई नई बात नहीं है। सरदार पटेल ने भी इनके संगठन की अनुशासन प्रियता की सराहना की थी। आजाद भारत में जो दो बड़े आंदोलन हुए, जेपी मूवमेंट और अन्ना आंदोलन दोनों में इनके संगठन का बैक बोन की तरह इस्तेमाल हुआ। इसी के लोभ में जेपी इनके करीब आये। देश के वामदलों में भी जमीन पर जाकर काम करने की प्रवृत्ति रही है। आज भी किसी रैली में गरीबों को लाल झंडा उठाये शहर की सड़कों को रौंदते देखता हूँ तो चमत्कृत रह जाता हूँ। वह भी गुमनाम कार्यकर्ताओं की लंबी और धैर्यवान कोशिशों का नतीजा होती हैं।
मगर एक तो कभी इनकी संगठनात्मक क्षमता आरएसएस को चुनौती नहीं दे पाई और हाल के दिनों में उनकी जमीनी पकड़ कमजोर होती चली गयी। वजह यह हुई कि इनके कार्यकर्ता कभी महत्वाकांक्षाओं से मुक्त नहीं हो पाए और लंबे दौर में धैर्यवान होकर संघर्ष करने की आदत खत्म हो गयी। छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के युवाओं ने एक वक्त में सकारात्मक लक्ष्यों के लिये ऐसी निष्ठा का प्रदर्शन किया था। अभी भी कई लोग जुटे हैं, मगर कई लोग कैरियर की दौर में आगे निकल गए।
आज अपनी-अपनी फाइव-सिक्स फिगर नौकरी करते हुए। एसी कमरों में बैठे, सफारी कार से घूमते हुए। सैमसंग और एप्पल के फोन पर स्टेटस दागते हुए वामपंथी रोज संघ को उखाड़ फेंकने के दावे करते हैं। संघियों को टनों के हिसाब से गाली देते हैं। मगर उनके स्टेटस का विरोधी कभी संघी नहीं करता, इसके लिये मोदीभक्तों की अलग और स्वघोषित बिरादरी है। असली संघी तो झोला लेकर गांव-देहात में टहलता है, लोगों के मन टटोलता है, उनमें अपने विचार के बीज डालता है। वह दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों के पास भी जाता है। झारखंड के आदिवासियों के बीच भी जाता है। आप बताईये सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाली ताकत अपने ही समाज के बीच कितना मूव करती है?
यह समझ लीजिये कि ये जो फर्क है, वही एक संघी को 2025 के बारे में आत्मविश्वास के साथ सोचने की ताकत देता है और आप 2019 का गणित हल करते रहते हैं।  (पुष्य मित्र पत्रकार हैं, यह आलेख उनके फेसबुक टाइमलाइन से साभार)






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