लालूजी की पार्टी पर पढ़े-लिखों का पाला
संदर्भ- राजगीर का प्रशिक्षण शिविर
पुष्य मित्र
आप लालू जी की राजनीति के तौर तरीके, परिवारवाद, गुंडों को तरजीह देने की नीति और भ्रष्टाचार को सदाचार बना लेने की प्रवृत्ति से असहमत हो सकते हैं। मगर राजनीतिक संवाद का जो उनका अपना कौशल है, आपको उसका कायल होना ही पड़ता है। रैलियों, सभाओं, गांव-शहर के दौरों, यहां तक कि अपने आवास पर जुटी भीड़ के साथ वह जैसे सहज तारतम्य बिठा लेते हैं, वह न सिर्फ उनकी सबसे बड़ी पूंजी है बल्कि उनकी सफलता का सबसे बड़ा आधार भी है। उन्हें अपने वोटरों से जुड़ने के लिये कभी विज्ञापन पर पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ी। हालांकि पत्रकारों से हमेशा उनके आत्मीय संबंध रहे, इसके बावजूद कि पत्रकार लगातार उनकी गतिविधियों में नकारात्मकता तलाशते रहे। फिर भी उनकी पार्टी मीडिया मैनेजमेंट में न्यूनतम खर्च किया करती है। इन सबकी एक ही वजह है, लालू खुद मीडिया भी रहे हैं और मैसेज भी। वे परफेक्ट पोलिटिकल कम्यूनिकेटर हैं।
मगर इन दिनों इसी मोर्चे पर उनका और उनकी पार्टी का कॉन्फिडेंस गड़बड़ाया लग रहा है। राजगीर का प्रशिक्षण शिविर उसी लो कॉन्फिडेंस का उदाहरण है। बिहार की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने के बावजूद राजद थोड़ी परेशान है कि कहीं बहुत जल्द उनका जनाधार कमजोर न पड़ने लगे। पिछले तीन चार सालों में सोशल मीडिया के बढ़ते असर ने उन्हें भयभीत कर दिया है। अब तक मीडिया की नकारात्मक खबरों को हंसी में उड़ा देने वाले लालू को लगने लगा है कि फेसबुक-ट्विटर के ट्रोल और वाट्स एप के शेयरिंग में अगर उनकी पार्टी पीछे रह गयी तो 2019 के चुनाव में वे फिर से हाशिये पर चले जायेंगे।
संभवतः इसी वजह से उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को विचारों और सोशल मीडिया के तौर तरीकों से लैस करने के लिये राजगीर में तीन दिन का प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया है। अब तक रैली, रैला और महारैली के जरिये माहौल बनाने वाली लालू की पार्टी को पहली दफा कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने की सख्त जरूरत महसूस हो रही है। और इसके लिये बाहर से पुरुषोत्तम अग्रवाल, दिलीप मंडल, प्रो अरुण और दूसरे एक्सपर्ट बुलाये गये हैं। और इसकी कमान तेजस्वी और प्रो मनोज झा के हाथों में नजर आ रही है।
यह राजद के हिसाब से बड़ा बदलाव है। पार्टी अपना काम करने का तरीका बदल रही है। यहां भी प्रोफेसरों-पत्रकारों और विचारकों का बोलबाला बढ़ रहा है। पत्रकारों को महंगे होटल में ठहराया जा रहा है। उनका स्वागत सत्कार हो रहा है। अब खुले मैदान में रैली नहीं बंद कमरे में सभा चल रही है। यह समझ में आता है कि बूढ़े और अस्वस्थ हो रहे लालू को समझ में आ रहा हो कि उनके बाद क्या होगा? मौजूदा राजनीति के तरीकों को अपनाना ही होगा। मगर राजद जैसी पार्टी के लिये यह सब इतना सहज नहीं है।
कल के पहले सत्र में यह साफ नजर आ रहा था, जब प्रो मनोज झा सोशल मीडिया के खतरों से आगाह कर रहे थे या मंगनी लाल मंडल अम्बेडकरवाद समझा रहे थे राजद कार्यकर्ता बीच बीच में उठकर शेरे लालू जिंदाबाद करने लगते थे। इतना ही नहीं कोई बीच में उठकर कहता लालूजी सामान रखने की व्यवस्था नहीं हुई, कोई कहता पानी ठीक से नहीं बंट रहा। लालूजी उसकी व्यवस्था कराने लगते। मगर पास में बैठे तेजस्वी इन बातों पर नाक भौं सिकोड़ने लगते। एक बार उन्होंने कहा भी कि पानी बाहर रखा है, बाहर जाकर पी लीजिये, अंदर नहीं बटेगा।
कल एक बात साफ नजर आ रही थी कि अपने सोबर स्वभाव के बावजूद तेजस्वी में वह मास अपील नहीं है जो तेज प्रताप में है। तेज प्रताप देर से पहुंचे मगर उनके अंदर आने तक कार्यकर्ता लगातार उनकी जय जयकार करते रहे। वे हाथ जोड़े पूरी अदा से मंच पर चढ़े और कार्यकर्ता उन्हें देखकर उत्तेजित होने लगे। संवाद का जो लालू का रास्ता था, वही तेज प्रताप का भी लग रहा है। मगर तेजस्वी की राजनीति में नीतीश जी की छाप अधिक नजर आती है। जाहिर हैं, उन्हें विचारकों, पत्रकारों और सोशल मीडिया की अधिक जरूरत पड़ेगी। कभी कभी सोचता हूँ, क्या यह ठीक नहीं रहेगा कि पढ़े-लिखों पर इन्वेस्ट करने के बदले लालूजी तेज प्रताप पर इन्वेस्ट करें तो संवाद सस्ता ज्यादा बेहतर और प्रभावी होगा। लालूजी की पार्टी भी पोलिटिकल मैनेजरों के फेर में पढ़ जाए, यह सुनकर अच्छा नहीं लगता। (पुष्य मित्र पत्रकार हैं, यह आलेख उनके फेसबुक टाइमल लाइन से साभार लिया गया है)
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