चरवाहों के इस कुंभ मेले में दूध की सरिता !

पशुपालकों के तीर्थ स्थल पचरासी धाम में मेला शुरू

कुन्दन घोषईवाला.मधेपुरा :  जिला अंतर्गत चौसा प्रखंड के लौआलगान में स्थित पशुपालकों के तीर्थ स्थल पचरासी धाम में प्रत्येक वर्ष की भाँति इस वर्ष भी सिरवा-बिसवा पर्व के अवसर पर लगने वाला तीन दिवसीय भव्य मेला का आज 13अप्रैल से शुरुआत हो गया है।इस मेले में देश-विदेश से पहुँचने वाले लाखों श्रद्धालुओं द्वारा बाबा विशुराउत के समाधि पर कच्चा दूध से दुग्धाभिषेक किया जाता है।ज्यादा मात्रा में दूध चढ़ने की वजह से यहाँ दूध की नदी सी बह जाती है।मेले में आयोजित अंतर्राज्यीय कुश्ती दंगल, पतंगबाजी, दूध की नदी, चरवाहों द्वारा गाया जाने वाला भगैत, पशुओं से संबंधित बिकने वाली सामग्री, मेले में देश-विदेश से जुटने वाली भारी भीड़ आदि मेले का मुख्य आकर्षण का केंद्र बना रहता है।मेले में होने वाली किसी भी असुविधा और सुरक्षा आदि को मद्देनजर रखते हुए स्थानीय प्रशासन द्वारा सुरक्षा के पुक्ता इंतजामात किये गये हैं।

चरवाहों के लोकदेवता बाबा विशुराउत

गौरवपूर्ण इतिहास से भरे बिहार के मधेपुरा जिला मुख्यालय से करीब 64किलोमीटर दक्षिण चौसा प्रखंड अंतर्गत लौआलगान पश्चिमी पंचायत के छाड़न पर घघरी नदी के किनारे अवस्थित बाबा विशुराउत मंदिर अपनी प्राचीनतम गरिमापूर्ण लोकसंस्कृति का परिचायक है।इस ऐतिहासिक स्थल की महिमा व किवदंती को अनवरत पिछले 400वर्षों से सिर्फ और सिर्फ चरवाहों ने अपनी लोकगीतों व भगैतों के गायन के माध्यम से ही जिंदा रखा।

लाखों मुख से बार-बार गाये जाने वाले लोकगाथाओं व भगैत के अनुसार विशु राउत का जन्म भागलपुर जिले के सबौर(भिट्ठी) नामक स्थान में हुआ था। इनके पिता बालजीत गोप( जो मूलतः काशी के निवासी)थे। उसकी माता का नाम चम्पावती, बड़ी बहन का नाम भागवंती और छोटे भाई का नाम अवधा मन्हौन था। इनका जन्मकाल मुगल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला के (1719-1748)यानी 18वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में माना जाता है। इनका विवाह रूपवती नामक कन्या से (सिमरा, नवगछिया गाँव) बाल्यकाल (13वर्ष) में ही हो गया था। विशु मूलतः गाय चराने वाला चरवाहा ही था।14वर्ष की आयु में ही इनके पिता का निधन हो जाने की वजह से घर की सारी गृहस्थी की जिम्मेदारी इनके ही सर आ गयी।

गर्मी महीने में गंगा के दक्षिणी तटों पर अक्सर घास का अकाल पड़ जाया करता था। इस वजह से विशु राउत ने अपने सभी गाय-माल को लेकर गंगा पार कर कोसी क्षेत्र में चले आये।लौआलगान बहियार का यह क्षेत्र जहाँ विशु राउत ने अपना डेरा (बथान) डाला था,यह इलाका जंगलों से भरा हुआ था और यहाँ चारे की प्रचुरता थी। यहीं इनकी दोस्ती मोहन नाम के बधाली (जलकर यानी मछली व्यवसाय करने वाले) से हो गयी।

किवदंतियों के अनुसार, यहीं से ईश्वर(विधाता) के आदेशानुसार दोनों दोस्त विशु और मोहन को अपने-अपने अभिनय को जीना था।जिस अभिनय के लिये विधाता ने इनलोगों को इस धरतीरूपी नाटक मंच पर अवतरित किये थे। एक ऐसा अभिनय जो युग-युगांतर तक श्रद्धा व गम के साथ गा-गाकर याद किया जा सके। इस मानव समाज को एक ऐसा सबक देने का प्रयास जो तब से लेकर आजतक मित्रता में अपवाद माना जाने लगा।

लोकगीतों के अनुसार विशु राउत और मोहन के बीच हुए विवाद ही विशु राउत के मौत का कारण बना। कहते हैं पशुओं से असीम प्यार रखने वाले विशु राउत के मौत की खबर सुनते हीं उनके हजारों-हजार गाय-बछड़ों में शोक की लहर सी दौड़ पड़ी। सभी गायों ने बाबा विशु के पार्थिव शरीर को घेर लिया। कथा श्रुति के अनुसार सभी गायों के थन से दूध की धाराएं बहने लगी। देखते ही देखते दूध की धाराएं इतनी प्रबल हो गई कि विशुराउत का पार्थिव शरीर उसी दूध की धारा में तिरोहित हो कर घघरी नदी में जा समाया।

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