सही मायने में आज डॉ. भीमराव आम्बेडकर की जरुरत है

डॉ. सुरजीत कुमार सिंह, महाराष्ट्र के वर्धा में महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के डॉ. भदंत आनंद कौसल्यायन बौद्ध अध्ययन के प्रभारी निदेशक हैं और इसी विश्वविद्यालय में डॉ. आंबेडकर अध्ययन केंद्र के प्रभारी निदेशक रह चुके हैं. Email: surjeetdu@gmail.com

डॉ. सुरजीत कुमार सिंह

बोधिसत्त्व बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने महाराष्ट्र के नागपुर शहर में अशोक विजयदशमी के दिन 14 अक्टूबर, 1956 को अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धम्म की दीक्षा ली थी. यह दुनिया के इतिहास में एक प्रकार की शानदार रक्तहीन क्रान्ति ही थी, क्योंकि दुनिया में आज तक कभी कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है कि जहां आठ लाख लोग बिना किसी लोभ-लालच या भय के अपने नारकीय धर्म को त्यागकर किसी दूसरे धर्म में चले जाएँ. यह बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर के जुझारू एवं करिश्माई व्यक्तित्व का ही आकर्षण था कि उनकी एक अपील पर, उनके लाखों अनुयायी बौद्ध हो गए थे. जबकि वे लाखों लोग बौद्ध धम्म और उसके दर्शन को दूर-दूर तक जानते भी नहीं थे, गौतम बुद्ध कौन हैं, उनके माता-पिता कौन थे, वे कहाँ के रहने वाले थे? बौद्ध धम्म के धार्मिक ग्रन्थ कौन से हैं? बौद्ध धम्म में कौन-कौन से अनुष्ठान और पर्व मनाये जाते हैं? बौद्ध धम्म के तीर्थ-स्थल कौन से हैं? आदि बहुत सारे प्रश्न हो सकते हैं, जो एक साधारण जिज्ञासु व्यक्ति किसी दूसरे धर्म के बारे में स्वाभाविक तौर पर जानना चाहेगा. वह व्यक्ति तो और भी अधिक जागरूक व सजग होगा, जो अपना धर्म त्याग रहा है. प्रायः ऐसा देखा गया है कि लोग अपने नेत्तृत्वकर्ता से सवाल-जवाब भी करते रहें हैं और कई बार तो उस नेत्तृत्वकर्ता को बहुत ही अधिक संकट व अपमानजनक परिस्थितियों से गुजर पड़ा है. लेकिन यह केवल बाबा साहेब के प्रति उनके लाखों अनुयायियों अटूट विश्वास एवं निष्ठा ही थी, कि जैसा उन्होंने कहा और उनके लोगों ने वैसा ही माना.

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अपने नए बने बौद्ध धम्म अनुयायियों को केवल बौद्ध धम्म ग्रहण करवाकर ही नहीं छोड़ दिया, बल्कि उनकी समाजिक-धार्मिक और आध्यात्मिक जानकारी व प्रगति के लिए बौद्ध धम्म पर आधारित पुस्तकों की रचना भी की. जैसे: डॉ. आंबेडकर ने धर्मान्तरण के कई वर्ष पहले ही मद्रास के प्रो. पी. लक्ष्मी नरसू द्वारा सन 19011 में लिखित “दी एसेंस ऑफ़ बुद्धिज़्म” को सन 1948 में पुन: छपवाया था और इसकी प्रस्तावना भी लिखी थी. फिर उन्होंने धर्मान्तरण के पांच वर्ष पहले ही नवम्बर, 1951 में “बुद्ध उपासना पाठ (पालि भाषा में)” नामक 44 पृष्ठों की एक लघु पुस्तक लिखी व स्वयं प्रकाशित कराई थी. डॉ. आंबेडकर ने “बुद्ध पूजा पाठ (पालि-मराठी भाषा में)” जो फरवरी, 1956 में लिखी थी, उन्होंने “बौद्ध धम्म दीक्षा विधि (मराठी भाषा में)” 1956 में लिखी थी. इसके अलावा वे 1951 से “दी बुद्धा एंड हिज धम्मा” नामक विश्वविख्यात ग्रन्थ को लिखने में लगे थे, जिसकी प्रस्तावना लिखकर वे 06 दिसम्बर, 1956 को हमेशा के लिए चिर निद्रा में सो गए, पहले वे यह ग्रन्थ “दी बुद्धा एंड हिज गोस्पेल” के नाम से लिख रहे थे. बाबा साहेब चाहते थे कि उनके द्वारा लिखित “दी बुद्धा एंड हिज धम्मा” को उनकी दो अन्य लिखित कृतियों (1. बुद्ध और कार्ल मार्क्स, 2. प्राचीन भारत में क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति) के साथ समूह बनाकर पढ़ा जाना चाहिये. इसके अलावा डॉ. आंबेडकर ने महाबोधि पत्रिका के मई-जून, 1951 के अंक में “हिन्दू नारी का उत्थान और पतन” लेख लिखा था, जो बाद में इसी नाम से एक किताब के रूप में विख्यात हुआ. बहुत कम विद्वान् और लोग जानते हैं कि डॉ. भीमराव आंबेडकर ने “पालि शब्दकोश” भी लिखा है. बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के द्वारा धम्म दीक्षा के अवसर पर अगले दिन 15 अक्टूबर, 1956 को प्रात:काल 10 बजे नागपुर में अपने लाखों लोगों को दिया गया संबोधन आज “नागपुर का धर्मान्तर और हम बौद्ध क्यों बनें” के नाम से पुस्तक के रूप छपा है, जिसमें उनके द्वारा उस समय लोगों को कराई गयीं, महत्वपूर्ण 22 प्रतिज्ञाएँ भी दर्ज होती हैं, जो आज हर बौद्ध के लिए एक अनिवार्य शर्त बन गयीं हैं.

बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा 13 अक्टूबर, 1935 को येवला में की गयी अपनी घोषणा को 21 वर्ष बाद पूरा करने का सुनहरा अवसर 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में आया. जिसमें उन्होंने पाँच लाख लोगों के साथ बौद्ध धम्म की दीक्षा ग्रहण की. फिर 16 अक्टूबर, 1956 को चंद्रपुर जाकर पौने दो लाख लोगों को दीक्षा दिलवाई. इसके कुछ दिनों बाद 06 दिसम्बर, 1956 को दिल्ली में उनका परिनिर्वाण हो गया. वे बम्बई में 16 दिसम्बर, 1956 को एक विशाल बौद्ध धम्म दीक्षा का कार्यक्रम आयोजित कर रहे थे, लेकिन इसके पहले ही वे देहावसान को प्राप्त हो गए. उनका पार्थिव शरीर बम्बई लाया गया, जहाँ 07 दिसम्बर को बौद्ध परम्परा के अनुसार दादर में डॉ. भदंत आनन्द कौसल्यायन ने अंतिम संस्कार कराया. बाबा साहेब के अंतिम संस्कार के समय लगभग आठ लाख लोगों ने भदंत कौसल्यायन जी से बौद्ध धम्म की दीक्षा उसी समय ग्रहण की. इस दुनिया में बड़े-बड़े महापुरुष जन्म लिए हैं और अपनी सद्गति को प्राप्त हुए हैं. लेकिन दुनिया में आज तक ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिला है कि किसी भी महापुरुष या व्यक्ति के अंतिम संस्कार के समय उनके लाखों अनुयायियों ने सामूहिक तौर पर स्वेच्छा से अपना धर्म त्यागकर किसी दूसरे धर्म को ग्रहण किया हो.

बाबा साहेब डॉ. भीराव आंबेडकर के जाने के बाद बहुजनों के सामने आज ढेर सारी चुनौतियां हैं. बाबा साहेब जिस आरक्षण को सन 1932 में पूना पैक्ट के तहत दिलवाए थे, आज उस पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. सभी सरकारी नौकरियों को निजीकरण के नाम से आरक्षणविहीन बना दिया जा रहा है, इससे बहुजन समाज का प्रतिनिधित्व निजी क्षेत्र में न के बराबर है. क्योंकि वे लोग यह जानते हैं कि आज जो लोग सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक आन्दोलन चला रहें हैं, उसके लिए आर्थिक मजबूती इस आरक्षण से ही मिलती है. इसलिए इन लोगों ने आरक्षण को खत्म करने और सारे सरकारी स्कूलों व विश्वविद्यालयों में शिक्षा व्यवस्था को चौपट करने का अघोषित निर्णय लिया है. इसके कारण अगर समाज आज भी नहीं जगा तो आगे स्थिति और भी भयावह होने वाली है. जब व्यक्ति शिक्षित नहीं होगा तो फिर वह जातिवाद, वर्ण व्यवस्था, पाखंड और गैर-बराबरी से कैसे लड़ेगा? बहुजन समाज को आज जरुरत है अपने में से ही लेखक, चिन्तक, बुद्धिजीवी, कलाकार, संगीतज्ञ, चित्रकार, डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, शिक्षक व प्रोफेसर, वैज्ञानिक, सामाजिक व धार्मिक सेवी, व्यापारी व उद्योगपति, ईमानदार अधिकारी व नेता पैदा करने की. तब तक बहुजन समाज अपनी सर्वांगीण प्रगति नहीं कर पायेगा. इसलिए आज केवल भावनाओं में बहने की आवश्यकता नही है, जरुरत है बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर के मिशन को सही तरीके से समझने की. क्योंकि उनका कहना था कि “बिना सामाजिक क्रांति के राजनैतिक क्रांति अर्थहीन है” और अभी देश में सामाजिक बराबरी आई नहीं है. इसलिए आज समाज के हर क्षेत्र में कार्य करने की आवश्यकता है.

 

 






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