डॉ हेडगेवार ने बताई देशभक्ति की दस सूत्री कसौटी
1 अप्रैल जयंती पर विशेष : जीवन के हर कदम पर प्रेरणा देते हैं डाॅ हेडगेवार
धनंजय गिरि
पराधीनता और आन्तरिक विभेदों से ग्रस्त हिंदुओं को संगठित कर राष्ट्रीय स्वाभिमान से उनका साक्षात्कार कराने और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठन के माध्यम से राष्ट्र के परम वैभव की ध्येय-साधना का मार्ग दिखाने वाले हमारे प्रेरणास्रोत हैं डाॅ केशव बल्लीराम हेडगावार। उनकी जयंती पर उन्हें याद करना आत्मविभोर कर जाता है। उनके बालपन से लेकर अंत तक का जीवन समस्त देशवासियों को प्रेरणा देता है। उनका जन्म चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को जन्मदिन है। अंग्रेजी पंचांग के अनुसार तारीख थी 1 अप्रैल 1889। डॉ. हेडगेवार जब आठ वर्ष के थे, तब उन्होंने महारानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक के साठ वर्ष पूर्ण होने पर बांटी गई मिठाई को अस्वीकार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि जिन्होंने हमें गुलाम रखा, उनकी मिठाई हम क्यों खाये। उन्होंने इंग्लैंड के सप्तम राजा के राज्याभिषेक की खुशी में भारत में छोड़ी गई आतिशबाजी का पुरजोर विरोध किया था। ये सब चीजे उनकी राष्ट्रभक्ति को प्रदर्शित करती थी। उन्होंने राष्ट्र की एकता व अखंडता के लिए वर्ष 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी।
डॉ हेडगेवार ने देशभक्ति की दस सूत्री कसौटी बताई। देशभक्ति का अर्थ है- हम जिस भूमि एवं समाज में जन्में हैं, उस भूमि व समाज के लिए आत्मीयता एवं प्रेमय। जिस समाज में हमारा जन्म हुआ है, उसकी परंपरा एवं संस्कृति के प’ति लगाव एवं आदरय। समाज के जीवन-मूल्यों के प्रतिनिष्ठाय। समाज, राष्ट्र के लिए उत्कर्ष, विकास के लिए सर्वस्व समर्पण करने के निमित्त उत्सफूर्त करने की प्रेरणा शक्ति। व्यक्ति निरपेक्ष रहकर समष्टिनिष्ठ जीवन का पवित्र प’वाह। भौतिकताओं से दूर रहकर मातृभूमि और उसकी संतानों की निरूस्वार्थ सेवा। व्यक्तिगत आकांक्षाओं से अधिक राष्ट्र की आवश्यकताओं एवं अपेक्षाओं को महत्व। मातृभूमि के चरणों में अनन्य निरूस्वार्थ, कर्तव्य कठोर जीवन कुसुमों की मादक सुंगध भरना। समाज एवं राष्ट्र को ही सर्वस्व देवी-देवता मानकर उसी की आराधना करना और संपूर्ण समाज में एकात्म भाव का आविष्कार करना। यूनियन जैक को उतारने हेतु लंबी सुरंग, वंदेमातरम्, अनुशीलन समिति, गांधीवादी पथ एवं ‘स्वातंत्र्य’ का संपादन करते हुए डॉ. हेडगेवार ने यह निष्कर्ष निकाला कि देशभक्ति से ओत-प्रोत एक ऐसा संगठन होना चाहिए जो एक राष्ट्र, एक जन एवं एक संस्कृति के लिए पूर्ण से प्रतिबद्ध हो तथा उसके लिए 10 सूत्र जरूरी हो और विजयादशमी के दिन मोहिते के बाड़े में 10-12 बाल किशोर स्वयंसेवकों के साथ प्रथम शाखा की शुरूआत हुई।
बंग-भंग विरोधी आन्दोलन का दमन करने हेतु अंग्रेजों ने वन्देमातरम् के उद्घोष करने पर पाबन्दी लगा दी थी। 1907 में इस पाबन्दी की धज्जियां उड़ाने के लिए केशव ने प्रत्येक कक्षा में वन्देमातरम् का उद्घोष करवा कर विद्यालय निरीक्षक का श्स्वागतश् करवाने की योजना बनाई थी। इसके माध्यम से उन्होंने सबको अपनी निर्भयता, देशभक्ति तथा संगठन कुशलता से परिचित कराया। मुम्बई में चिकित्सा शिक्षा की सुविधा होते हुए भी, उन्होंने कोलकाता में यह शिक्षा प्राप्त करने का निर्णय लिया। इसका कारण था कोलकाता उन दिनों क्रान्तिकारी आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र था। उन्होंने शीघ्र ही क्रान्तिकारी आन्दोलन की शीर्ष संस्था श्अनुशीलन समितिश् में अपना स्थान बना लिया था। वे 1916 में डॉक्टर की उपाधि के साथ नागपुर वापस आए। घर की आर्थिक अवस्था ठीक न होते हुए भी उन्होंने अपना व्यवसाय शुरू नहीं किया। यही नहीं उन्होंने विवाह आदि करने का विचार भी त्याग दिया और पूर्ण शक्ति के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद गए।
1920 में नागपुर में होने वाले कांग्रेस के अधिवेशन की व्यवस्था की जिम्मेदारी डॉक्टर जी के पास थी। इस हेतु उन्होंने 1200 स्वयंसेवकों की भर्ती की थी। कांग्रेस की प्रस्ताव समिति के सामने उन्होंने दो प्रस्ताव रखे थे। भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता और विश्व को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त करना, यह कांग्रेस का लक्ष्य होना चाहिए। पूर्ण स्वतंत्रता का ऐतिहासिक प्रस्ताव कांग्रेस ने दिसंबर, 1929 में स्वीकार कर पारित किया और 26 जनवरी, 1930 को सम्पूर्ण देश में स्वतंत्रता दिवस मनाने का निर्णय किया। इसलिए डॉक्टर जी ने संघ की सभी शाखाओं पर 26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस का अभिनन्दन करने के लिए कार्यक्रम करने की सूचना दी थी। इससे डॉक्टर जी की दूरगामी एवं विश्वव्यापी दृष्टि का परिचय मिलता है। डॉक्टर जी का सार्वजनिक जीवन, राजनीतिक दृष्टिकोण, दर्शन एवं नीतियां तिलक-गांधी, हिंसा-अहिंसा, कांग्रेस-क्रांतिकारी इन संकीर्ण विकल्पों के आधार पर निर्धारित नहीं था। व्यक्ति अथवा विशिष्ट मार्ग से कहीं अधिक महत्वपूर्ण स्वातंत्र्य प्राप्ति का मूल ध्येय था। इसीलिए 1921 में प्रांतीय कांग्रेस की बैठक में लोकनायक अणे की अध्यक्षता में क्रांतिकारियों की निंदा का प्रस्ताव लेने का प्रयास हुआ। तब डॉक्टर जी ने ‘आपको उनका मार्ग पसंद न हो, पर उनकी देशभक्ति पर संदेह नहीं करना चाहिए- यह कह कर उस प्रस्ताव को नहीं आने दिया और राजनीति की तस्वीर बदल दी। वे कहते थे कि व्यक्तिगत मतभिन्नता होने पर भी साम्राज्य विरोधी आन्दोलन में सभी को साथ रहना चाहिए और इस आन्दोलन को कमजोर नहीं होने देना चाहिए। इस सोच के कारण ही वे खिलाफत आन्दोलन को गांधी जी के समर्थन देने की घोषणा का विरोध होने पर भी चुप रहे और गांधी जी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन में बेहिचक सहभागी हुए।
प्रखर ध्येयनिष्ठा, असीम आत्मीयता और अपने आचरण के उदाहरण से युवकों को जोड़कर उन्हें गढ़ने का कार्य शाखा के माध्यम से शुरू हुआ। शक्ति की उपासना, सामूहिकता, अनुशासन, देशभक्ति, राष्ट्रगौरव तथा सम्पूर्ण समाज के लिए आत्मीयता और समाज के लिए निरूस्वार्थ भाव से त्याग करने की प्रेरणा इन गुणों के निर्माण हेतु अनेक कार्यक्रमों की योजना शाखा नामक अमोघ तंत्र में विकसित होती गई। सारे भारत में प्रवास करते हुए अथक परिश्रम से केवल 15 वर्ष मंे ही आसेतु हिमालय सम्पूर्ण भारत में संघ कार्य का विस्तार करने में वे सफल हुए।
अपनी प्राचीन संस्कृति एवं परम्पराओं के प्रति अपार श्रद्धा तथा विश्वास रखते हुए भी आवश्यक सामूहिक गुणों की निर्मिति हेतु आधुनिक साधनों का उपयोग करने में उन्हें जरा सी भी हिचक नहीं थी। अपने आपको पीछे रखकर अपने सहयोगियों को आगे करना और सारा श्रेय उन्हें देने की उनकी संगठन शैली के कारण ही संघ कार्य की नींव मजबूत बनी।
संघ कार्य आरंभ होने के बाद भी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए समाज में चलने वाले सभी आंदोलनों के साथ उनका न केवल सम्पर्क था, बल्कि समय-समय पर वे व्यक्तिगत तौर पर स्वयंसेवकों के साथ सहभागी भी होते थे। 1930 में गांधी जी के नेतृत्व में शुरू हुआ सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरंभ में अप्रभावशाली रहा। विदर्भ तिलकवादियों का गढ़ माना जाता था। परन्तु साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन में व्यक्तिगत मत को किनारे में रखकर इस आन्दोलन में सहभागी होने के लिए उन्होंने विदर्भ में जंगल सत्याग्रह में स्वयंसेवकों के साथ भाग लिया तथा 9 मास का कारावास भी सहन किया। इस सत्याग्रह के साथ आरंभ में 3 -4 हजार लोग थे। सत्याग्रह स्थल पर पहुंचते-पहुंचते 10 हजार लोग हो गए थे। इस समय भी व्यक्ति निर्माण एवं समाज संगठन का नित्य कार्य अविरल चलता रहे, इस हेतु उन्होंने अपने मित्र एवं सहकारी डॉ. परांजपे को सरसंघचालक पद का दायित्व सौंपा था तथा संघ शाखाओं पर प्रवास करने हेतु कार्यकर्ताओं की योजना भी की थी। उस समय समाज कांग्रेस-क्रान्तिकारी, तिलकवादी-गांधीवादी, कांग्रेस-हिन्दू महासभा ऐसे द्वंद्वों में बंटा हुआ था। डॉक्टर जी इस द्वंद्व मंे न फंस कर, सभी से समान नजदीकी रखते हुए कुशल नाविक की तरह संघ की नाव को चला रहे थे। संघ को समाज में एक संगठन न बनने देने की विशेष सावधानी रखते हुए उन्होंने संघ को सम्पूर्ण समाज का संगठन के नाते ही विकसित किया। संघ कार्य को सम्पूर्ण स्वावलंबी एवं आत्मनिर्भर बनाते हुए उन्होंने बाहर से आर्थिक सहायता लेने की परंपरा को बदल कर संघ के स्वयंसेवक ही ऐसे कार्य के लिए आवश्यक सभी धन, समय, परिश्रम, त्याग देने हेतु तत्पर हों इस हेतु ‘गुरु दक्षिणा‘ की अभिनव परंपरा संघ में शुरू की।
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