समय की शिला पर सिलाव का खाजा
Pushya Mitra
खाजा एक ऐसी मिठाई है जो पूर्वी भारत के अलग-अलग इलाके में बनती है। एक जमाने में मिथिलांचल के इलाके में हर भोज में इसकी मौजूदगी अनिवार्य था। यह उन मिठाईयों में है, जो लंबे समय तक खराब नहीं होती। और इतनी मधुर और स्वादिष्ट है कि इसका नाम ही खाजा है।
वैसे तो खाजा का आकार अमूमन लंबा होता है, मगर जगन्नाथ पुरी का खाजा और सिलाव का खाजा चौकोर होता है। मैंने कई जगहों का खाजा खाया है और मेरा अब तक का आकलन है कि सबसे स्वादिष्ट खाजा सुपौल जिले के पिपरा कस्बे में बनता है। वहां शुद्ध घी के खाजे की कई दुकानें हैं। मगर जो मक़बूलियत सिलाव के खाजे को है वह किसी और जगह के खाजे में नहीं।
सिलाव के खाजे की खासियत उसका स्वाद नहीं, उसका वजन है। यह इतना हल्का होता है कि एक किलो खरीदिये तो 50 से अधिक खाजा आ जायेगा। एक फ़ीट ऊँचा ठोंगा पूरी तरह भर जायेगा। यह हुनर सिर्फ काली साव नामक हलवाई के वंशजों के पास ही है। इसी वजह से सिलाव में आपको काली साव के नाम से खाजे की कई दुकानें मिलेंगी।
पटना से राजगीर जाते वक़्त रास्ते में सिलाव क़स्बा पड़ता है। यात्री जाते वक़्त खाजे की दुकान देख भर लेते हैं। लौटते वक़्त एक किलो खाजा जरूर खरीदते हैं। कीमत भी बहुत कम है 100 रुपये किलो। जबकि पिपरा का शुद्ध घी का खाजा संभवतः 200 रूपये प्रति किलो से भी महंगा है। एक बार मशहूर लेखक फणीश्वरनाथ रेणु भी अपने सगे संबंधियों के साथ राजगीर गये थे, उन्होंने उस यात्रा में सिलाव का खाजा खरीदा या नहीं कहना मुश्किल है। मगर लौट कर जो बड़ा दिलचस्प रिपोर्ताज लिखा उसका शीर्षक था, समय की शिला पर : सिलाव का खाजा। आज खाजा पुराण इतना ही। with thanks from the facebook timeline of Pushya Mitra
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