देश के ये 4 दशहरा महोत्सव नहीं देखे तो कुछ भी नहीं देखा आपने

ऐसे भी मनाया जाता है दशहरा..

दशहरा का आगमन उत्तर भारत के कई इलाकों में भीषण गर्मी की विदाई की तरह होता है। भगवान राम ने जिस तरह असुर सम्राट रावण का वध कर शांति स्थापित की थी वैसे ही दशहरे अपने साथ दीपावली की खुशियों के आगमन की सूचना लेकर आता है। भारत कुछ चुनिंदा हिस्सों को छोड़ दें तो लगभग पूरे भारत में ही दशहरा को पूरे धूमधाम से मनाया जाता है। लोग 9 दिन उपवास रखते हैं और 10वें दिन रावण के पुतले को जलाकर बुराई पर विजय का पर्व विजयदशमी मनाते हैं। आज Livehindustan।com आपको देश के उन 4 दशहरा महोत्सवों के बारे में बता रहा है जिन्हें देखे बिना सच में आप इस त्यौहार के असली रंग से महरूम रह जाएंगे…
1. कुल्लू का दशहरा:
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में मनाया जाने वाला दशहरा शायद भारत का सबसे मशहूर दशहरा उत्सव है। यहां दशहरा सात दिन के उत्सव की तरह मनाया जाता है। बता दें कि जब देश में लोग दशहरा मना चुके होते हैं तब कुल्लू का दशहरा शुरू होता है। यहां इस त्योहार को दशमी कहते हैं। हिन्दी कैलेंडर के अनुसार आश्विन महीने की दसवीं तारीख को इसकी शुरुआत होती है। इसकी एक और खासियत यह है कि जहां सब जगह रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण का पुतला जलाया जाता है, कुल्लू में काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार के नाश के प्रतीक के तौर पर पांच जानवरों की बलि दी जाती है। कुल्लू का दशहरा पर्व परंपरा, रीतिरिवाज और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व रखता है।

कैसे मनाते हैं
कुल्लू के दशहरे में महीने के पहले 15 दिनों में राजा सभी देवी-देवताओं को धालपुर घाटी में रघुनाथजी केसम्मान में यज्ञ करने का न्योता देते हैं। इसके बाद 100 से ज्यादा देवी- देवताओं को रंगबिरंगी पालकियों में बिठाकर ले जाया जाता है। उत्सव के पहले दिन दशहरे की देवी हिडिम्बा को मनाली से कुल्लू लाया जाता है। इसके बाद रथयात्रा का आयोजन होता है और सभी देवताओं की प्रतिमाओं वाला ये रथ 6 दिन तक ठहरता है। छठें दिन सभी देवी-देवता आपस में मिलते हैं जिसे मोहल्ला कहा जाता है। इसी दौरान स्थानीय निवासी नाच-गा कर जश्न मनाते हैं। सातवें दिन रथ को बियास नदी के किनारे ले जाकर लंका दहन का आयोजन किया जाता है। बाद में रघुनाथजी को मंदिर में फिर स्थापित कर इस पर्व का अंत कर दिया जाता है।

क्या है इसके पीछे की कहानी
कुल्लू के दशहरे का सीधा संबंध रामायण से नहीं जुड़ा है। बल्कि कहा जाता है कि इसकी कहानी एक राजा से जुड़ी है। सन् 1636 में जब जगतसिंह यहां का राजा था, तो मणिकर्ण की यात्रा के दौरान उसे ज्ञात हुआ कि एक गांव में एक ब्राह्मण के पास बहुत कीमती रत्न हैं। राजा ने उस रत्न को हासिल करने के लिए अपने सैनिकों को उस ब्राह्मण के पास भेजा। सैनिकों ने उसे यातनाएं दीं, डर के मारे उसने राजा को श्राप देकर परिवार समेत आत्महत्या कर ली। कुछ दिन बाद राजा की तबीयत खराब होने लगी। तब एक साधु ने राजा को श्रापमुक्त होने के लिए रघुनाथजी की मूर्ति लगवाने की सलाह दी। अयोध्या से लाई गई इस मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे ठीक होने लगा और तभी से उसने अपना जीवन और पूरा साम्राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया। तभी से यहां दशहरा पूरी धूमधाम से मनाया जाने लगा।

2. मैसूर का दशहरा:

ऐसा नहीं है कि दशहरा सिर्फ उत्तर भारतीयों का त्यौहार है। कर्नाटक के मैसूर में मनाया जाने वाला दशहरा भी पूरे देश में काफी मशहूर है। इसका एक कारण है यहां हर साल इस मौके पर खूब सारी डॉल्स बनाई जाती हैं। इन्हें बांबे हब्बा या गोलू या कोलू (कन्नड़) या बोम्माला कोलुवु (तेलुगु) या बोम्मई कोलु (तमिल) कहा जाता है। इस त्योहार को नवरात्रों में 10 दिन तक मनाया जाता है। इस दौरान हर घर में डॉल्स की प्रदर्शनी लगाई जाती है। इन डॉल्स को 7, 9 या 11 के ऑड नंबर में लगाया जाता है। इन्हें सफेद कपड़े से ढककर रखा जाता है। नवरात्र के दौरान इन गुडि़यों की पूजा की जाती है।

मैसूर में दशहरे के समय पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सजाया जाता है और हाथियों को सजाकर कर पूरे शहर में एक भव्य जुलूस भी निकाला जाता है। इस समय प्रसिद्ध मैसूर महल को दीपकों से सजाया जाता है। इसके साथ शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत की शोभायात्रा का आनंद लेते हैं। हालांकि आपको बता दें कि इन द्रविड़ प्रदेशों में रावण-दहन का आयोजन नहीं किया जाता है।

3 बस्तर का दशहरा:

आपको बता दें कि बस्तर के दशहरा का राम-रावण युद्ध से कोई लेना-देना नहीं है। ये पर्व यहां करीब 75 दिनों तक मनाया जाता है और रावण के वध की जगह इसमें बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी समेत अनेक देवी-देवताओं की 13 दिन तक पूजा-अर्चना होती है। हरेली अमावस्या अर्थात तीन माह पूर्व से दशहरा की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। यह माना जाता है कि यह पर्व 600 से अधिक वर्षों से परंपरानुसार मनाया जा रहा है। दशहरा की काकतीय राजवंश एवं उनकी इष्टदेवी मां दंतेश्वरी से अटूट प्रगाढ़ता है।

इस पर्व का आरंभ वर्षाकाल के श्रावण मास की हरेली अमावस्या से होता है, जब रथ निर्माण के लिए प्रथम लकड़ी विधिवत काटकर जंगल से लाई जाती है। इसे पाटजात्रा विधान कहा जाता है। पाट पूजा से ही पर्व के महाविधान का श्रीगणेश होता है। इसके बाद स्तंभरोहण के अंर्तगत बिलोरी ग्रामवासी सिरहासार भवन में डेरी लाकर भूमि में स्थापित करते हैं। इस रस्म के उपरांत विभिन्न गांवों से लकड़ियां लाकर रथ निर्माण कार्य प्रारंभ किया जाता है।

जोगी करते हैं साधना
इस लंबी अवधि में पाटजात्रा, काछन गादी, जोगी बिठाई, मावली परघाव, भीतर रैनी, बाहर रैनी तथा मुरिया दरबार मुख्य रस्में हैं। इन्हें संभाग मुख्यालय में धूमधाम व हर्षोल्लास से मनाया जाता है। काछनगुड़ी में कुंवारी हरिजन कन्या को कांटे के झूले में बिठाकर झूलाते हैं तथा उससे दशहरा की अनुमति व सहमति ली जाती है। भादो मास के पंद्रहवें अर्थात अमावस्या के दिन काछनगादी के नाम से यह विधान संपन्न होता है। जोगी बिठाई परिपाटी के पीछे ग्रामीणों का योग के प्रति सहज ज्ञान झलकता है, क्योंकि दस दिनों तक भूमिगत होकर बिना मल-मूत्र त्यागे तप साधना की मुद्रा में रहना आसान या सामान्य बात नहीं है।

रथ है आदिवासी इंजीनियरिंग की मिसाल
बस्तर दशहरा का आकर्षण का केंद्र काष्ठ निर्मित विशालकाय दुमंजिला रथ है, जिसे सैकड़ों ग्रामीण उत्साहपूर्वक खींचते हैं। रथ पर ग्रामीणों की आस्था, भक्ति का प्रतीक मांई दंतेश्वरी का छत्र होता है। जब तक राजशाही जिंदा थी, राजा स्वयं सवार होते थे। बिना आधुनिक तकनीक व औजारों के एक निश्चित समयावधि में विशालकाय रथ का निर्माण आदिवासियों की काष्ठ कला का अद्वितीय प्रमाण है, वहीं उनमें छिपे सहकारिता के भाव को जगाने का श्रेष्ठ कर्म भी है। जाति वर्ग भेद के बिना समान रूप से सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित कर सम्मानित करना एकता-दृढ़ता का प्रतीक है।

क्या है मुरिया दरबार
पर्व के अंत में संपन्न होने वाला मुरिया दरबार इसे लोकतांत्रिक पर्व के तौर पर स्थापित करता है। पर्व के सुचारु संचालन के लिए दशहरा समिति गठित की जाती है, जिसके माध्यम से बस्तर के समस्त देवी-देवताओं, चालकी, मांझी, सरपंच, कोटवार, पुजारी सहित ग्राम्यजनों को दशहरा में सम्मिलित होने का आमंत्रण दिया जाता है।

4. इलाहाबाद का रावण दशहरा:

पूरे देश और दुनिया में दशहरे पर जहां रावण के पुतले जलाए जाते हैं वहीं संगम नगरी इलाहाबाद में दशहरा उत्सव की शुरुआत लंकाधिपति रावण की पूजा-अर्चना और भव्य शोभा यात्रा के साथ होती है। हाथी-घोडों, बैंड पार्टियों व आकर्षक लाइट्स के बीच महाराजा रावण की शोभा यात्रा जब उनके कुनबे और मायावी सेना के साथ इलाहाबाद की सड़कों पर निकलती है, तो उसके स्वागत में जनसैलाब उमड़ पड़ता है।

क्यों होती है रावण पूजा

बात दें कि इलाहाबाद में रावण को उनकी विद्वता के चलते पूजा जाता है। दशहरे की शुरुआत के मौके पर संगम नगरी इलाहाबाद में तीनो लोकों के विजेता लंकाधिपति रावण की शाही सवारी परम्परागत तरीके से पूरी सज-धज और भव्यता के साथ निकाली जाती है। विद्या और ज्ञान की देवी सरस्वती के उदगम स्थल और ऋषि भारद्वाज की नगरी इलाहाबाद में महाराजा रावण को उनकी विद्वता के कारण पूजा जाता है। यहां दशहरे के दिन रावण का पुतला भी नहीं जलाया जाता। दशहरा उत्सव शुरू होने पर यहां राम का नाम लेने वाले का नाक-कान काटकर शीश पिलाने का प्रतीकात्मक नारा भी लगाया जाता है।

सदियों पुरानी है परम्परा
शोभा यात्रा से पहले रावण को घंटो सजाया जाता है। यही वजह है कि यहाँ रावण बनने वाले कलाकार खुद को बेहद भाग्यशाली मानते हैं। दशहरे पर रावण की पूजा करने वाले श्री कटरा रामलीला कमेटी के लोग खुद को ऋषि भारद्वाज का वंशज मानते हैं। रावण पूजा के साथ दशहरा उत्सव शुरू करने की यह परम्परा सदियों पुरानी है। दशानन की दो किलोमीटर लम्बी इस अनूठी और भव्य शोभा यात्रा में महाराजा रावण के साथ ही उनके गुरु भगवान् भोले शंकर और किशन कन्हैया के जीवन पर आधारित तमाम झांकियां भी शामिल रहती हैं। इन झांकियों की सजावट और इन पर होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम इसे शोभा यात्रा का ख़ास आकर्षण बना देते हैं।

रावण बारात और राम और हनुमान के दल भी होते हैं साथ

महाराजा रावण की यह बारात इलाहाबाद की श्री कटरा रामलीला कमेटी द्वारा मुनि भारद्वाज के आश्रम से निकाली जाती है। लंकाधिपति रावण की इस अनूठी व भव्य बारात के साथ ही इलाहाबाद में हो जाती है दशहरा उत्सव की शुरुआत। इस उत्सव के तहत एक पखवारे तक शहर के अलग-अलग मोहल्लों इस शोभा यात्रा की तरह ही भव्य राम दल और हनुमान दल निकाले जाते हैं, जो अपनी भव्यता की वजह से समूची दुनिया में मशहूर हैं। देश के दूसरे हिस्सों में दशहरे की शुरुआत नवरात्रि से होती है लेकिन संगम नगरी इलाहाबाद में दशहरा उत्सव पितृ पक्ष में ही शुरू हो जाता है।

source with thanks from livehindustan.com






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