सदी के सोलहवें साल में मीडिया
अरुण कुमार त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार
इंसान के छोटे से जीवन में सोलहवें साल का बड़ा महत्त्व है। इस दौरान उसके शरीर और सोच में बड़े परिवर्तन होते हैं। हाल में राज्यसभा ने उस विधेयक को भी मंजूरी दे दी जिसमें गंभीर अपराध करने पर सोलहवें साल के अभियुक्त को भी वयस्कों की तरह से सजा दी जाएगी। लेकिन काल के पैमाने पर सोलह साल का कोई विशेष अर्थ नहीं है। यक्ष के इस प्रश्न के उत्तर में कि युद्धिष्ठिर क्या समाचार है, वे कहते हैं कि काल अपने बड़े कड़ाह में वर्ष, मास और दिवस की कलछी से सबको भून रहा है। इसके बावजूद हमारा मीडिया काल की इस गति को पकड़ने का सबसे बड़ा दावेदार बन बैठा है।
ऐसे में यह देखना लाजिमी है कि क्या नई सदी के सोलहवें साल में हमारा मीडिया युद्धिष्ठिर की तरह यक्ष के प्रश्न का उत्तर देने की सामर्थ्य रखता है। सुप्रीम कोर्ट ने सन 2015 में सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 66 ए को समाप्त करके साइबर जगत में फैल रहे मीडिया को बहुत बड़ी आजादी मयस्सर कराई। लेकिन अपने निहित स्वार्थ और पूर्वाग्रही सोच के कारण न तो साइबर मीडिया उस आजादी का उपयोग कर पाया और प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी सठिया गया। मीडिया का यह दृष्टिदोष पहले दिल्ली विधानसभा के चुनावों में और बाद में बिहार विधानसभा के चुनावों में दिखाई पड़ा। उम्मीद तो की जाती है कि सन 2016 में मीडिया दबाव और पूर्वाग्रह से मुक्त होकर काम करेगा, लेकिन सत्ता की तरफ से ऐसी स्थितियां बनाई जा रही हैं कि वह खौफ में रहे। अभिव्यक्ति की आजादी के हिमायती और आपातकाल के बंदी रहे वित्त मंत्री व बड़े वकील अरुण जेटली की तरफ से मानहानि का दीवानी और फौजदारी दोनों मुकदमा दायर करना व्यवस्था की असहिष्णुता का संदेश है। अगर सुप्रीम कोर्ट ने मानहानि को फौजदारी मामला बनाने के विरुद्ध दायर याचिका को स्वीकार कर लिया, जो कि होना ही चाहिए, तो यह मीडिया की आजादी में नया अध्याय होगा।
फिर भी हिंदी मीडिया में पार्टी कार्यकर्ता बनने की जो प्रवृत्ति है वह खतरनाक है। उस प्रवृत्ति से 2016 में मुक्ति मिल जाएगी, ऐसी कोई उम्मीद नहीं है। पर एक बात जरूर है कि समाज और मीडिया पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्मा जिस तरह का कायम हुआ था और 2015 में एक हद तक टूटा, वह इस साल और टूट सकता है। यह उनके द्वारा दिखाए गए सपनों के धरातल पर उतरने का वर्ष है। मीडिया जनता की तरफ से उठने वाले सवालों को उठाए और उसे व्यवस्था से सामने रखे, यह लगातार आवश्यक होता जा रहा है। इस साल अगर मीडिया सरकार और उद्योग जगत को यह याद दिला सके कि उन्होंने 2014 में विकास की रफ्तार बढ़ाने और अच्छे दिन लाने का जो वादा किया था वह सांप्रदायिक और जातीय तनावों में खो नहीं जाना चाहिए, तो वह बड़े दायित्व का निर्वाह करेगा।
मीडिया के सामने यह बड़ी चुनौती है पश्चिम एशिया में फैलते आईएस के आतंक को वह कैसे देखे और भारत को उससे कैसे बचाए। वह अपनी सनसनीखेज रपटों से भारतीय समाज को ध्रुवीकृत भी कर सकता है और उसे उसकी मौलिकता में कायम भी रख सकता है। आतंकवाद को कैसे कवर करें यह इस साल की बड़ी चुनौती होने वाली है। लेकिन कहीं अयोध्या में शिलापूजन के नाम पर तो कहीं जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी करने और आरक्षण घटाने-बढ़ाने की मांग करने वाली ताकतें सत्ता और समाज की प्राथमिकताओं को नए सिरे से परिभाषित कर सकती हैं। देखना है कि मीडिया स्वयं उस खेल में भागीदार बन कर फायदा उठाता है या लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा और सबका साथ सबका विकास करने वाले नारे को हकीकत में बदलने का विमर्श खड़ा करता है?
लेकिन मीडिया के स्वतंत्र और निष्पक्ष होने की बहस इस साल भी जारी रहनी चाहिए। मीडिया की आजादी उसके आर्थिक स्रोत पर निर्भर करती है। वह स्रोत जितना पाक साफ और सार्वजनिक होगा, आजादी उतनी ज्यादा होगी। एक तरफ जहां क्रॉस मीडिया ओनरशिप बढ़ रही है, वहीं प्रसार भारती जैसी स्वायत्त संस्था के बावजूद सरकारी मीडिया निष्पक्ष नहीं हो पा रहा है। सरकारी मीडिया की स्वायत्तता का सवाल भी उठना चाहिए।
इस बीच फेसबुक ने फ्री बेसिक्स के बहाने नई बहस खड़ी कर दी है। यह बहस आम आदमी को बुनियादी सुविधाएं देने का लालच दिखाकर बाकी लोगों से वसूली करने की ओर इशारा करती है। मीडिया के इस चरित्र पर भी 2016 में बहसें जारी रहेंगी।
Related News
इसलिए कहा जाता है भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपियर
स्व. भिखारी ठाकुर की जयंती पर विशेष सबसे कठिन जाति अपमाना / ध्रुव गुप्त लोकभाषाRead More
पारिवारिक सुख-समृद्धि और मनोवांछित फल के लिए ‘कार्तिकी छठ’
त्योहारों के देश भारत में कई ऐसे पर्व हैं, जिन्हें कठिन माना जाता है, यहांRead More
Comments are Closed