दूसरों की खुशी के लिए जीती बाजी हार जाते थे भगवान बुद्ध, बिहार में मिला ज्ञान
बुद्ध जयंती विशेष
पटना. बिहार को भगवान बुद्ध की कर्म स्थली के रूप में जाना जाता है। गौतम बुद्ध के बिहार में ही ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और इसी धरती से उन्होंने बौद्ध धर्म की शुरुआत की थी। 21 मई को बुद्ध जयंती मनाई जाती है। इस अवसर पर हम आपके लिए लेकर आए हैं भगवान बुद्ध से जुड़ी कुछ जानकारियां…
गौतम बुद्ध का जन्म ईसा से 563 साल पहले नेपाल के तराई क्षेत्र के लुम्बिनी नाम के वन में हुआ था। कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी अपने नैहर देवदह जा रही थीं, तो रास्ते में लुम्बिनी वन में बुद्ध का जन्म हुआ था। यह स्थान कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई के पास है। बचपन में गौतम बुद्ध का नाम सिद्धार्थ रखा गया था। उनके पिता का नाम शुद्धोदन था। जन्म के सात दिन बाद ही उनकी मां का देहांत हो गया था। सिद्धार्थ की मौसी गौतमी ने उनका लालन-पालन किया था। सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद, उपनिषद्, राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हांकने में भी उन्हें महारत हाशिल था।
जीती हुई बाजी हार जाते थे सिद्धार्थ
सिद्धार्थ के मन में बचपन से ही करुणा भरी थी। उनसे किसी भी प्राणी का दुख नहीं देखा जाता था। यह बात इन उदाहरणों से स्पष्ट भी होती है। घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुंह से झाग निकलने लगता तब सिद्धार्थ उन्हें थका जान कर वहीं रोक देते और जीती हुई बाजी हार जाते थे। खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था, क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुखी होना उनसे नहीं देखा जाता था।
भोग-विलास का जीवन सिद्धार्थ को नहीं आया था रास
16 वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा के साथ हुआ था। राजा शुद्धोदन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहां नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उनकी सेवा में रख दिए गए, भोग-विलास का जीवन सिद्धार्थ को रास नहीं आया। विवाह के बाद उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ। सिद्धार्थ का मन भोग-विलास और परिवार में नहीं लगा।
इन चार सीन ने बदल दी थी सिद्धार्थ की लाइफ
सीन 1- सिद्धार्थ एक दिन सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दांत टूट गए थे, बाल पक गए थे, शरीर टेढ़ा हो गया था। लाठी लिए वह धीरे-धीरे कांपता हुआ चल रहा था।
सीन 2- सिद्धार्थ ने एक रोगी को देखा। उसकी सांस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बांहें सूख गई थीं। पेट फूल गया था। चेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था।
सीन 3-सिद्धार्थ ने एक अर्थी को देखा। चार आदमी उसे उठाकर लिए जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था।
इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित किया। उन्होंने सोचा कि ह्यधिक्कार है जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी?
सीन 4- सिद्धार्थ को एक संन्यासी दिखाई पड़ा। वह संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त था। सन्यासी ने सिद्धार्थ को आकृष्ट किया। और वह परिवार त्यागकर सन्यासी की तरह जीने के लिए निकल पड़े।
बिना खाए-पिए सिद्धार्थ ने की थी तपस्या
सिद्धार्थ बिहार के नालंदा जिले के राजगीर पहुंचे। सिद्धार्थ ने यहां कालाम और उद्दक रामपुत्र से योग और समाधि लगाना सीखा। इसके बाद वह तपस्या करने लगे। सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर कांटा हो गया। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई।
महिलाओं के गीत से सिद्धार्थ को मिला मध्यम मार्ग
एक दिन जहां सिद्धार्थ तपस्या कर रहे थे वहीं से कुछ महिलाएं गुजर रहीं थी। महिलाएं एक गीत गा रहीं थी जिसके बोल के मतलब थे कि ह्यवीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा, पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएं।ह्णसिद्धार्थ को यह बात जंच गई। वह मान गए कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है।
गया में गौतम बुद्ध को मिला था ज्ञान
ज्ञान-प्राप्ति के लिए सिद्धार्थ गया के निकट एक वट वृक्ष के नीचे आसन लगा कर बैठ गए और निश्चय कर लिया कि भले ही प्राण निकल जाए, मैं तब तक समाधिस्थ रहूंगा, जब तक ज्ञान न प्राप्त कर लूं।
सात दिन और सात रात के बाद, आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिन वे तथागत हो गए। इसके बाद सिद्धार्थ को गौतम बुद्ध के नाम से जाना गया। जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ वह आज भी ह्यबोधिवृक्षह्य के नाम से विख्यात है। ज्ञान प्राप्ति के समय वह 35 साल के थे। ज्ञान प्राप्ति के बाद ह्यतपस्सुह्य तथा ह्यकाल्लिकह्य नामक दो शूद्र उनके पास आए। महात्मा बुद्ध नें उन्हें ज्ञान दिया और बौद्ध धर्म का प्रथम अनुयाई बनाया।
ज्ञान प्राप्ति
वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ। उसने बेटे के लिए एक वटवृक्ष की मनौती मानी थी। वह मनौती पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहा था। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’ उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ बुद्ध कहलाए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया।
धर्म-चक्र-प्रवर्तन
वे 80 वर्ष की उम्र तक अपने धर्म का संस्कृत के बजाय उस समय की सीधी सरल लोकभाषा पाली में प्रचार करते रहे। उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी।
महापरिनिर्वाण
पालि सिद्धांत के महापरिनिर्वाण सुत्त के अनुसार ८० वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे। बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन, जिसे उन्होंने कुन्डा नामक एक लोहार से एक भेंट के रूप में प्राप्त किया था, ग्रहण लिया जिसके कारण वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है। उन्होने कहा कि यह भोजन अतुल्य है।
उपदेश
भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश किया। उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की। बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है –
- सम्यक ज्ञान
बुद्ध के अनुसार धम्म है: –
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बुद्ध के अनुसार अ-धम्म है: –
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बुद्ध के अनुसार सद्धम्म क्या है: –
1. जो धम्म प्रज्ञा की वृद्धि करे–
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2. जो धम्म मैत्री की वृद्धि करे–
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3. जब वह सभी प्रकार के सामाजिक भेदभावों को मिटा दे
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बौद्ध धर्म एवं संघ
बौद्ध धर्म सभी जातियों और पंथों के लिए खुला है। उसमें हर आदमी का स्वागत है। ब्राह्मण हो या चांडाल, पापी हो या पुण्यात्मा, गृहस्थ हो या ब्रह्मचारी सबके लिए उनका दरवाजा खुला है। उनके धर्म में जात-पाँत, ऊँच-नीच का कोई भेद-भाव नहीं है। बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। शुद्धोधन और राहुल ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में ले लेने के लिए अनुमति दे दी, यद्यपि इसे उन्होंने विशेष अच्छा नहीं माना। भगवान बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय’ लोककल्याण के लिए अपने धर्म का देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा। अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम् भूमिका निभाई। मौर्यकाल तक आते-आते भारत से निकलकर बौद्द धर्म चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि में फैल चुका था। इन देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक धर्म है।
गौतम बुद्ध – अन्य धर्मों की दृष्टि में
गौतम बुद्ध अन्य धर्मों में नबी या ईश्वरदूत के रूप में वर्णित है।
हिन्दू धर्म में
आरंभ में बुद्ध और उनके धर्म को अस्विकार करने वाले हिन्दू धर्म ने बाद में बुद्ध को विष्णु के अवतारों में शामिल कर लिया। कुछ पुराणों में ऐसा कहा गया है कि भगवान विष्णु ने बुद्ध अवतार इसलिये लिया था जिससे कि वो “झूठे उपदेश” फैलाकर “असुरों” को सच्चे वैदिक धर्म से दूर कर सकें, जिससे देवता उनपर जीत हासिल कर सकें। इसका मतलब है कि बुद्ध तो “देवता” हैं, लेकिन उनके उपदेश झूठे और ढोंग हैं। ये बौद्धों के विश्वास से एकदम उल्टा है: बौद्ध लोग गौतम बुद्ध को कोई अवतार या देवता नहीं मानते, लेकिन उनके उपदेशों को सत्य मानते हैं।
कुछ हिन्दू लेखकों (जैसे जयदेव) ने बाद में यह भी कहा है कि बुद्ध विष्णु के अवतार तो हैं, लेकिन विष्णु ने ये अवतार झूठ का प्रचार करने के लिये नहीं बल्कि अन्धाधुन्ध कर्मकाण्ड और वैदिक पशुबलि रोकने के लिये किया था। गौतम बुद्ध चाहे विष्णु जी के अवतार हों या नहीं लेकिन वे पूजने के योग्य तो हैं ही।
सभी विचारकों के अपने मत रहे हैं अत: तथ्य की सत्यता का ज्ञान इस बात से तो लगाया ही जा सकता है कि सभी में गौतम बुद्ध को एक महान पथ प्रदर्शक के रूप में स्थान दिया और वह मानव कल्याण की भावनाओं को अभिव्यक्त करते रहे तभी उन्होंने अपने शिष्य को अंतिम कथन यही कहा की ‘अपना दीपक स्वयं बनो’
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