बिहार की राजनीति :रास्ता इधर से है
प्रेम कुमार मणि, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
राजद ने विगत चुनाव में 101 सीटें लड़कर 80 सीटें हासिल कीं। विधायक दल के नेता तेजस्वी यादव उप मुख्यमंत्री के रूप में सरकार में हैं। राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद ने पूरी ईमानदारी से गठबंधन धर्म का पालन किया। चुनाव के दरम्यान ही उन्होंने बार-बार घोषणा की कि हमारे दल की सीटें ज्यादा आएंगी, तब भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे। जनतांत्रिक रिवाजों के हिसाब से तो राजद को मुख्यमंत्री पद मिलना चाहिए था। लेकिन लालू प्रसाद ने राजनीतिक उदारता और ईमानदारी का परिचय दिया। इसकी विवेचना मीडिया ने नहीं की। उसकी दिलचस्पी बार-बार खटास और दरार तलाशने में रही है। राजद ने पूरी तरह नीतीश कुमार के नेतृत्व में भरोसा जताया है । लालू प्रसाद ने पहले ही कहा है कि यदि हमने सही ढंग से काम नहीं किया, तब जनता हमें माफ नहीं करेगी। राजद का जोर विकास से अधिक विकास में गरीबों की भागीदारी पर है। ये गरीब ही हैं, जो सामाजिक रूप से दलित, पिछड़े और अकलियत के रूप में चिह्नित किये जाते हैं। नये वर्ष में सांगठनिक चुनाव सम्पन्न होंगे। लेकिन लालू प्रसाद की नजर बदलते राजनीतिक घटनाक्रम है। केंद्र की भाजपा सरकार को अपदस्थ करने की राजनीतिक मुहिम में लोग उन्हें किनारे रख कर चलना चाहते हैं। कांग्रेस ने 2013-14 में लालू प्रसाद को अलग-थलग करने की कोशिशकी और उन संकट में उनका साथ नहीं दिया। राहुल गांधी ने प्रस्तावित विधेयक की प्रति प्रेस के सामने फाड़कर जो किया और उसके जो नतीजे आए, उससे सब परिचित हैं। लेकिन जैसा कि लालू प्रसाद ने कहा, उन्होंने जहर का घूंट पीकर, अपमान का घूंट पीकर भी कांग्रेस का साथ दिया। राजनीतिक दूरदर्शिता के खयाल से यह आवश्यक था। बिहार विधान सभा चुनाव में लालू प्रसाद ने एक बार फिर अपना पुराना राजनीतिक कार्ड खेला। पिछड़ावाद की दुहाई दी। उन्होंने विकास की कोईर्चचा नहीं की किंतु बार-बार गरीबों को राजपाट में हिस्सेदारी के लिएललकारा। उनकी इस राजनीति को दिल्ली वाले नहीं समझ पाते। केजरीवाल उनसे गले मिलने में अपनी तौहीन समझते हैं, और सफाईदेते हैं कि वह मिले नहीं थे, उन्हें जबरन खींच लिया गया था। केजरीवाल मानते हैं कि वह अपने करिश्मे से मुख्यमंत्री बने हैं। लालू प्रसाद दिल्ली में नतीजों के पीछे अपने लोगों-बिहारी व अन्य पुरबियों की भागीदारी मानते हैं। नया वर्ष राजद के लिए इस रूप में महत्त्वपूर्ण होगा कि लोग उसकी क्रियाशीलता पर नजर रखेंगे। देश में भाजपा की राजनीति के विरुद्ध तेजी से जो ध्रुवीकरण हो रहा है, उसमें उसकी कोई भूमिका होगी, अथवा वह बिहार में उस भूमिका पर संतोष कर लेगा, जिसमें 2005 से जून, 2013 तक भाजपा थी, यानी सहयोगी दल वाली भूमिका। मेरा अनुमान है कि राजद सधे अंदाज में अपनी राजनीति करेगा। उसे कोई जल्दबाजी नहीं है। बिहार में उसकी राजनीतिक धाक जम चुकी है, और उसके नेता जानते हैं कि उसे किनारे करके राष्ट्रीय राजनीति भी नहीं चलने वाली। जनता दल (यू) राजद से 9 सीटें कम लाकर भी जनता दल (यू) ने अपने नेता नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित करवा दिया। लालू प्रसाद के थोड़े ना-नुकुर के उपरांत बिहार विधान सभा का अध्यक्ष पद भी जदयू के पास है। दिल्ली में हाल में शरद यादव पर केंद्रित एक जलसे में बिहार की गठबंधन राजनीति को अन्य प्रांतों में फैलाने पर भी र्चचा हुई। इस तरह जदयू के पास नये वर्ष में करने के लिए बहुत कुछहै-बिहार को विकास की ऊंचाइयों पर ले जाने का उसका पुराना एजेंडा और राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के विरुद्ध राजनीतिक ध्रुवीकरण में उसकी भागीदारी। एक तबका इस भागीदारी को नेतृत्त्वकारी भूमिका में भी लाना चाहता है, और नीतीश कुमार को एक बार फिर प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने की तैयारी चल रही है। लेकिन बिहारी नेताओं के लिए प्रधानमंत्री पद के सपने
हमेशा अशुभ रहे हैं। 1995 में लालू प्रसाद भी इसी सपने के चक्कर में पड़े थे। नतीजा सब जानते हैं। 2010 के बाद नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री पद का स्वप्न देखा। 2013 में भाजपा से दूरी बनाकर राजनीतिक छक्का मारने की कोशिश की। आऊट हो गए। 2015 की जीत उनसे कहीं ज्यादा लालू प्रसाद की राजनीतिक जीत है। लेकिन इतने पर भी लोग यदि उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में उछालना पसंद करेंगे तो इसके नतीजे खुद नीतीश कुमार के विरुद्ध जाएंगे। क्योंकि इससे राजद से तो खटास बढ़ेगी ही, कांग्रेस भी इसे शायद स्वीकार नहीं कर पाएगी। इस तरह नीतीश प्रांतीय स्तर पर अपने डिप्टी तेजस्वी और राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के डिप्टी राहुल गांधी से घिरे हैं। उनके अपने बिहार में अपराध का ग्राफ तेजी से बढ़ा है और इसे लेकर लालू प्रसाद ने भी अपनी चिंता व्यक्त की है। नीतीश का नया साल इस अपराध नियंतण्रऔर कानून का राज स्थापित करने में लगेगा। चाहिए भी। क्योंकि यह यदि नहीं हुआ तो उनकी राजनीतिक साख पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा। पिछले दस वर्षो में नीतीश कुमार ने बिहार के इंफ्रास्ट्रक्चर को विश्वसनीय स्तर पर ला दिया है। आगे भी बनाए रखने, विकसित करने और इनके बूते विकास को गति देने की उनकी जिम्मेदारी है। राजनीतिक स्तर पर राजद और कांग्रेस से सहयोग प्राप्त करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होगी, क्योंकि दोनों परिपक्व राजनीतिक पार्टियां हैं। भाजपा के साथ जद यू की वैचारिक एकता नहीं थी, लेकिन राजद, कांग्रेस के साथ पूरी वैचारिक एकता है। इसलिए किसी तरह का कोई वैचारिक संकट नहीं होगा। जद यू का असली संकट अपने दल के भीतर से उभर सकता है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव अपने कॉफी टेबल बुक का शाही विमोचन भले संपन्न करवा लें, उनकी राजनीतिक प्रासंगिकता समाप्त प्राय है और वह ‘‘पॉलिटिकल अपेंडिक्स’ बन चुके हैं। पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह के शब्दों में ‘‘अमरबेल प्रवृत्ति के शरद यादव’ के लिए यह वर्ष आशंकाओं से भरा होगा। नीतीश कुमार के शुभेक्षी राष्ट्रीय राजनीति में लाने की शुरुआत उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर करना चाहेंगे। शरद यादव पिछले दस वर्षो से एक रबड़ स्टाम्प अध्यक्ष के रूप में जरूर थे, लेकिन अब उनकी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है। बिहार में यादव मतों के लिए नीतीश कुमार को लालू प्रसाद का विश्वसनीय संग-साथ उपलब्ध है। जद यू का दूसरा संकट लालू विरोधी उन नेताओं की ओर से है जिनकी वास्तविक राजनीतिक पूंजी ही लालू विरोध की थी। ऐसे अनेक नेताओं को नीतीश ने किनारे किया है, लेकिन जो शेष हैं वह सक्रिय रहेंगे। इसमें सवर्ण तबके के चाटूकार तत्व अधिक हैं। इनसे निकटता नीतीश कुमार के लिए एक समस्या होगी। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस से तालमेल बैठाना भी नीतीश कुमार के लिए आसान नहीं होगा। जीएसटी मामले में केंद्र की भाजपा सरकार का समर्थन कर उन्होंने स्पष्ट करने की कोशिश की है कि वह कांग्रेस के पिछलग्गू नहीं बनेंगे। अपने विवेक से काम लेंगे। नए वर्ष में खासकर बजट सत्र में ही कई ऐसे मसले उभर सकते हैं, जिसमें मतैक्य न हो। अनुमान यही है कि नीतीश कुमार कांग्रेस से एक सुरक्षित दूरी ही बनाए रखना चाहेंगे। अन्य प्रांतों में उसके राजनीतिक विस्तार अथवा स्वीकार्यता के लिए भी यह आवश्यक है। जद यू की प्राथमिकता संभवत: प्रांतीय पार्टियों के साथ एकजुटता की होगी, न कि कांग्रेस के साथ।क
बिहार की राजनीति के लिएबीता साल 2015 खास होगा, यह पहले से तय था। लेकिन महागठबंधन की जीत ने इसे कुछ ज्यादा खास बना दिया। अनेक राजनीतिक प्रेक्षक यह मान रहे थे कि यहां भाजपा को जीतना ही जीतना है, उसे आरामदायक बहुमत से लेकर दो तिहाई बहुमत की भविष्यवाणी की जा रही थी। प्रधानमंत्री मोदी ने इस चुनाव को कुछ ज्यादा ही व्यक्तिगत बना लिया था। उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन नतीजों ने सबको चौंका दिया। जीत-हार तो किसी की होती ही, लेकिन महागठबंधन को इतनी बड़ी सफलता और भाजपा को इतनी बड़ी शिकस्त मिलेगी, इसका अनुमान कम लोगों को ही था। अलबत्ता, राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद ने मतदान का आखिरी चरण समाप्त होने के दिन प्रेस को बतलाया था कि वह 190 सीटें ला रहे हैं। उनका अनुमान लगभग सटीक था। महागठबंधन को 178 सीटें मिलीं। महागठबंधन की इस जीत ने राष्ट्रीय राजनीति को झकझोर कर रख दिया। विदेशी दौरों द्वारा अपनी छवि विस्तार में निरंतर प्रयत्नशील प्रधानमंत्री मोदी की राजनीतिक साख निचले स्तर पर आ गई। उनके दुलारे पार्टी अध्यक्ष अमित शाह तो प्रेस-परिदृश्य से गुम ही हो गये। हार से भाजपा में थोड़ी किरकिरी भी हुई, लेकिन आंतरिक खलबली कुछ ज्यादा रही। पूरी पार्टी हतोत्साह से अधिक किंकर्त्तव्यविमूढ़ थी। प्रेस वक्तव्य देने के लिएउनके पास कुछ डॉयलॉग नहीं था। 185 का लक्ष्य 58 में सिमट गया था। विश्लेषण यही बताते हैं कि यदि जीतन राम मांझी न होते तो वोटों का अंतर कम से कम दो प्रतिशत और बढ़ता और भाजपा की स्थिति दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम जैसी हो जाती। (बिहार में उसकी स्थिति तब प्रतिपक्ष का दर्जा प्राप्त करने लायक भी शायद न बचती।) तो कुल मिला कर 2015 बिहार की राजनीति के लिएएक प्रयोग की तरह रहा। 2014 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित नीतीश कुमार ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी लालू प्रसाद, जिसके खिलाफ वह पिछले बीस वर्षो से राजनीतिक संघर्ष कर रहे थे, से हाथ मिलाया ओैर फिर दोनों ने मिलकर कांग्रेस को भी साथ आने के लिए विवश किया। यही वह राजनीतिक कवायद थी, जिसकी 2014 लोक सभा चुनाव पूर्व ही जरूरत थी, लेकिन जीवन की तरह राजनीति में भी पेचोखम होते हैं और ले-देकर चीजें ही अपने समय पर घटित होती हैं। 2014 की राजनीतिक हार में ही उपरांत गठबंधन के तत्व सन्निहित थे। शेष घटनाक्रम तो अनुगामी क्रियाएं होती हैं। इस गठबंधन ने राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस को हाशिये से मुख्यधारा में ला दिया और जनता दल यू की भूलुंठित साख को उठाकर एक नयी रचनात्मक भूमिका में ला दिया। आने वाले वर्ष में इन तीनों की भूमिका क्या होगी, इसका आकलन करना दिलचस्प होगा। from http://www.rashtriyasahara.com
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