बिहार में किसकी जीत किसकी हार?

  • पुष्यमित्र. 

ऊपर से यह चुनाव भले नीतीश-लालू बनाम मोदी लग रहा हो. मगर हकीकत में चुनाव भाजपा और कांग्रेस के बीच है. यह अलग बात है कि कांग्रेस इस बार प्रीफिक्स की जगह सफिक्स हो गयी है. मगर वह इस चुनाव के बहाने भाजपा के खिलाफ देशव्यापी विकल्प खड़ा करने में जुटी है. इसी वजह से इस चुनाव में कांग्रेस ने खूब पैसा झोंका है. खबर है कि महागठबंधन के घटक दल को कांग्रेस ने अच्छी खासी फंडिंग भी की है. कांग्रेस को 40 सीटें देने की वजह भी यही बतायी जा रही है.

हालांकि महागठबंधन अगर कांग्रेस के बदले पासवान के साथ लड़ रही होती तो इस चुनाव में उनके जीतने की संभावना कहीं अधिक प्रबल होती. मगर भाजपा वालों ने पहले से ही पासवान को मंत्री पद देकर यह सुनिश्चित कर लिया था कि वे इधर-उधर न बहकें. मांझी फैक्टर भी कारगर साबित हुआ. अगर नीतीश ने ऐन चुनाव से पहले मांझी से पंगा नहीं लिया होता तो वे क्लीन स्वीप की स्थिति में होता. मगर सबकुछ भाजपा के अनुरूप हुआ और महागठबंधन दलितों को जोड़ पाने में नाकाम रहा.

महागठबंधन की दूसरी चूक थी मुकेश सहनी को अपने पाले में रख नहीं पाना. ऐन चुनाव के वक्त मुकेश सहनी ने नीतीश का दामन थाम लिया था. उसे एक-दो सीटें चाहिये थीं, मगर नीतीश के सलाहकारों ने, या सच कहें तो लालूजी ने मामला गड़बड़ा दिया और मुकेश सहनी बीजेपी के पाले में चले गये. इस तरह दलित और निषादों का वोट महागठबंधन ने लगभग गंवा दिया.
दलितों और निषादों को गंवा चुकने के बाद भी महागठबंधन राज्य में मजबूत स्थिति में था और है. सीमांचल को छोड़ दिया जाये तो मुसलमानों का एकमुश्त वोट उसे मिला है. यादवों का भी. कुर्मियों का भी. मगर इसके अलावा दूसरी तमाम जातियां एनडीए के खेमे में जाती रही हैं. जमीनी सच्चाई यह है कि अति पिछड़ी जातियों का 70 फीसदी वोट एनडीए को मिला है.
इस चुनाव में जहां भाजपा ने अपना जनाधार बढ़ाने की भरपूर कोशिश की, जबकि महागठबंधन की तरफ से जनाधार बढ़ाने की कोशिश नहीं हुई. इसके बदले जगह-जगह से यही खबरें मिलीं कि वोट नहीं देने पर महागठबंधन के नेता मारपीट कर रहे हैं. कल भी एक कैंडिडेट को जान से मारने की धमकी मिली है.
एनडीए की सबसे बड़ी चूक रही टिकट बंटवारा. भाजपा में सुशील मोदी, नंद किशोर यादव और मंगल पांडे की तिकड़ी ने जानबूझ कर पैसे लेकर ऐसे लोगों को टिकट दिये जो जीतने की स्थिति में नहीं थे. क्योंकि उन्हें मालूम था कि भाजपा जीत जाये तो इनमें से कोई सीएम नहीं बनेगा. उल्टे इनकी हालत खस्ता ही होगी. कुशवाहा की पार्टी ने भी कई जगह कमजोर उम्मीदवारों को उतारा, क्योंकि न उनके पास जनाधार था, न ही उम्मीदवार. लोजपा में परिवारवाद का बोलबाला रहा.
इस वजह से भाजपा के अपने ही कई जगह भाजपा को हराने में जुटे रहे. शत्रुघ्न सिंहा, कीर्ति आजाद, शाहनवाज, जैसे लोग भी भितरघात करते रहे. जिनका टिकट कटा या फिर जो स्वभाविक उम्मीदवार थे वे तो बागी बन ही गये. जैसे भागलपुर में चौबे जी के पुत्र के खिलाफ तो बीजेपी कार्यकर्ता खड़ा हो ही गया और उसने कहा कि वह जीतेगा तो बीजेपी को समर्थन देगा. मुजफ्फरपुर के बोचछा में बेबी देवी का टिकट रामविलास के दूसरे दामाद के लिए काट दिया गया, वह भी मैदान में थीं और साधू को डैमेज कर रही थीं. धमदाहा से ज्योति देवी निर्दलीय मैदान में हैं और रालोसपा के शंकर झा आजाद को नुकसान पहुंचा रही हैं.

रणनीतिक तौर पर शुरुआत में महागठबंधन आगे रहा. नीतीश को विकास पुरुष के रूप में प्रोजेक्ट किया गया तो लालू सामाजिक न्याय के मसीहा के तौर पर गरजते रहे. इनके चक्कर में बीजेपी वालों ने बेवजह अपना स्तर गिराया. उसका नकारात्मक असर ही हुआ. मोदी के नीतीश-लालू पर हमले ने जगह-जगह इस चर्चा को बढ़ावा दिया कि मोदी अपना स्तर खो रहे हैं. इसके बावजूद अंत-अंत तक मोदी की रैलियों में खूब भीड़ उमड़ी. यह साबित हो गया कि मोदी का क्रेज बरकरार है.

शुरुआत में भाजपा की रणनीति लालू के माय समीकरण में सेंध लगाने की थी, इसलिए उन्होंने बड़ी संख्या में यादवों को पार्टी में शामिल किया और उन्हें टिकट भी दिया. ओबैसी को भी चुनाव लड़ने बुलाया गया. मगर लालू जी ने 58 यादवों को एकमुश्त टिकट देकर एनडीए के इस दांव को नाकाम कर दिया. रही सही कसर भागवत के आरक्षण की समीक्षा के बयान ने पूरी कर दी.

भागवत ने आरक्षण की समीक्षा का बयान क्यों दिया इसकी कई वजहें बतायी जा रही हैं. पहली यह है कि भागवत पिछड़ों-अति पिछड़ों में दरार पैदा करना चाह रहे थे और सवर्ण वोटरों को पोलराइज करना चाह रहे थे. मगर इसके लिए स्पष्ट बयान देना चाहिये था, और यह बयान काफी कंफ्यूजिंग था. दूसरा सिद्धांत है, इस चुनाव में शाह ने संघ से इतर अपनी टीम बनायी है, बूथ लेवल तक. वे संघ से भाजपा की निर्भरता खत्म करना चाह रहे हैं. इसी वजह से झटका देने की नीयत से भागवत ने यह बयान दिया. मगर यह भी उतना सच नहीं लगता. तीसरी वजह यह हो सकती है कि भागवत लालू को मजबूत करना चाह रहे होंगे, ताकि उनके खिलाफ एंटी पोलराइजेशन हो. कई वजहें और सिद्धांत हैं. मगर कोई सच नहीं लगता. भागवत ने ऐसा बयान क्यों दिया, यह मसला अंत तक अस्पष्ट ही रहा. बहरहाल इसने लालू को जबरदस्त ताकत दी.

यह चुनाव जमीन पर यादव बनाम भूमिहार हो गया. लालू ने आखिरी समय में अनंत सिंह को जेल भिजवा दिया और अपने भाषणों में उन्हें खूब लतारा. लिहाजा भूमिहार जो अब तक जदयू को मजबूती प्रदान करते रहे थे, इस बार उनका एजेंडा पूरी तरह महागठबंधन को हराना हो गया. यादवों और भूमिहारों ने जमीन पर अपने स्तर पर अति पिछड़ों को अपने पाले में जोड़ने की भरपूर कोशिश की. इसमें भूमिहार अपनी तीक्ष्ण बु्द्धि की वजह से सफल रहे. यादवों ने ज्यादातर पंगा ही लिया.

उत्तर बिहार के ज्यादातर इलाकों में सवर्णों की जमीन अति पिछड़े जोतते हैं. पिछले दस साल से भाजपा-जदयू गठबंधन की वजह से भी इन दोनों जातीय समूहों में आपसी तालमेल बेहतर है. यादव गांव में अलग-थलग पड़ गये हैं. इस फैक्टर ने अति पिछड़ों को भाजपा के पक्ष में गोलबंद होने में मदद की. शुरुआती चरणों में नीतीश के प्रति इन जातीय समूहों में अच्छी-खासी सहानुभूति थी, मगर तीसरे चरण के बाद से भाजपा समर्थकों ने जबरदस्त गोलबंदी की.

अब नतीजों की बात, पहले दो चरणों में महागठबंधन बढ़त में रही, तीसरे में एनडीए जगा और बराबरी की टक्कर दी, चौथे में एनडीए ने बढ़त बना ली. पांचवें में कांटे की टक्कर में एनडीए को बढ़त है. इस तरह देखा जाये तो चुनाव में एनडीए को बढ़त है, वह 125-130 सीटें ला सकता है. महागठबंधन पहले दो चरणों की बढ़त के बाद सुस्त पड़ गया, लालू अपने बेटों की हार की आशंका से डिफेंसिव हो गये. और उन्होंने बढ़त गंवा दी. फिर भी वे सौ की संख्या पार कर जायेंगे. हां, जदयू से अधिक सीटें राजद को मिलेंगी. जो लालू चाहते थे.

एक और बड़ी बात जो देखने को मिली कि कई जगह पर राजद के पारंपरिक वोटर जदयू या कांग्रेस उम्मीदवार के पक्ष में उतनी मजबूती से खड़े नजर नहीं आते, इस वजह से जदयू के कई उम्मीदवार हारते नजर आ रहे हैं. धमदाहा में जदयू की मंत्री लेसी सिंह की तो जमानत जब्त होने की नौबत है. बहुत मुमकिन है कि जदयू का परफार्मेंस बहुत बुरा हो. उसे बहुत कम सीटें आये.

पप्पू की जनाधिकार पार्टी, ओबैसी की पार्टी, एनसीपी वगैरह को एक दो सीटें आ सकती हैं, मगर वे सरकार बनाने की स्थिति में किसी को मदद नहीं कर पायेंगे. किशनगंज की महज छह सीटों पर लड़ने वाले ओबैसी बस एक सीट जीत सकते हैं, और एक सीट पर बीजेपी को जीत दिला सकते हैं. पप्पू दो-तीन सीटें जीत सकते हैं और एक दर्जन से अधिक सीटों पर भाजपा को लाभ पहुंचा रहे हैं. एनसीपी कटिहार में बीजेपी को लाभ पहुंचा रही है. इसके अलावा इस चुनाव में झामुमो ने भी अच्छी पैठ बनायी है. सीमांचल में उसके 14-15 उम्मीदवार हैं, इनमें से अधिकतर मुसलमान हैं. शिबू और हेमंत ने उनके पक्ष में जम कर प्रचार किया है और वे भी भाजपा को लाभ पहुंचा रहे हैं. सपा भोजपुर के इलाके में भाजपा को लाभ पहुंचा रही है.

इन नतीजों के बावजूद यह चुनाव लालू और नीतीश के दमदार प्रदर्शन के लिए याद किया जायेगा. इन दोनों ने मिल कर भाजपा को नाको चने चबवा दिया. मोदी को वह सब कहने और करने पर मजबूर कर दिया, जो उन्हें अपनी पद की गरिमा को देखते हुए नहीं कहना चाहिये था. खास तौर पर लालू ने तो कमाल कर दिया. बिना विज्ञापन-बिना होर्डिंग के सिर्फ अपने भाषणों से चुनाव को लालू बनाम मोदी करवा दिया. इसमें प्रशांत किशोर की बड़ी भूमिका रही, जिन्होंने इस बेमेल जोड़ी को पूरे चुनाव के दौरान आपस में भिड़ने से रोके रखा.

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