डर के सहारे जीत की आस
डर की जरूरत क्यों?
दोनों ही गठबंधन घोषित रूप से विकास के अलग-अलग वादों और नारों के साथ लोगों का समर्थन हासिल करने की कोशिश में हैं. ऐसे में उन्हें डर की राजनीति की क्यों जरुरत क्यों पड़ी? जानकारों का मानना है कि ऐसा करके लालू दरअसल वर्ष 1995 और भाजपा साल 2005 के दौर से आगे नहीं बढ़ पा रही है. वरिष्ठ पत्रकार अरुण अशेष बताते हैं, ”राजनीतिक दलों को यह भरोसा नहीं है कि सिर्फ विकास का मुद्दा जीत दिला पाएगा. ऐसे में दलों को लगता है कि डर की राजनीति के सहारे मतों का ध्रुवीकरण कर जीत मिल सकती है.”
‘डर कोई नया मुद्दा नहीं’
राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन बताते हैं कि बिहार की राजनीति में डर को मुद्दा बनाना कोई नई बात नहीं है. महेंद्र कहते हैं, ”वर्ष 1995 और साल 2000 के चुनाव में जहां लालू ने भाजपा का डर दिखाया तो वर्ष 2005 और वर्ष 2010 में नीतीश ने लालू की वापसी के डर को भुनाया.” महेंद्र के मुताबिक साल 2010 के विधानसभा चुनाव में डर भी एक महत्त्वपूर्ण तत्व रहा. तब चुनाव केवल विकास और सुशासन के दावों पर नही लड़ा गया था. भाजपा और राजद दोनों इस बात से इंकार करते हैं कि वे डर के सहारे राजनीति कर रहे हैं.राजद प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी कहते हैं, ”हम विकास के सवाल पर मुकाबला चाहते थे. लेकिन आरक्षण विवाद पर प्रधानमंत्री की चुप्पी के कारण हम इससे जुड़े संदेहों को सामने रख रहे हैं.”
इंकार
भाजपा प्रवक्ता ऊषा विद्यार्थी का कहना है, ‘‘नब्बे का दशक हत्या और लूट का दशक था. कोर्ट ने ही उसे जंगलराज कहा था.’’ ऊषा विद्यार्थी के मुताबिक भाजपा जंगलराज की बात कहकर लोगों से पूछना चाहती है कि क्या वे उस दौर में लौटना चाहते हैं या फिर विकास चाहते हैं. राजनीतिक दलों के इंकार के बावजूद राजनीति विश्लेषकों के मुताबिक बिहार के बीते तीन दशकों का इतिहास इसका गवाह है कि पक्ष या विपक्ष ने डर की राजनीति का सफल प्रयोग किया है. लेकिन इस बार दिलचस्प बात यह है कि पक्ष और विपक्ष दोनों ही एक-दूसरे के खिलाफ डर पैदा करने में पूरी ताकत लगा रहे हैं.
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