बिहार में कमल खिलाने की कठिन कसरत
अमिताभ श्रीवास्तव. पटना
आम चुनावों के पहले चरण के मतदान के कुछ दिन पहले, पिछले साल वसंत में बिहार बीजेपी के एक वरिष्ठ रणनीतिकार से अमित शाह को जमीनी रिपोर्ट सौंपने को कहा गया. शाह तब उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रभारी थे. बिहार के उस नेता ने कुछ दार्शनिक अंदाज में कहा, ह्लहम चाहें तो यह सोचकर खुश हो लें और अपनी पीठ थपथपाएं कि अपने वोट को सुरक्षित करने के लिए हमने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. लेकिन बड़ी सचाई यही है कि लोग पहले ही तय कर चुके हैं कि किसे वोट देना है और वह नाम है नरेंद्र मोदी.ह्व
लेकिन राजनीति में पंद्रह माह काफी लंबा वक्त होता है और इसे शाह से बेहतर भला और कौन जानता है. या फिर उनके धुर विरोधी नीतीश कुमार को इसका एहसास हो सकता है, जिनके लिए राज्य का अगला विधानसभा चुनाव ह्लकरो या मरोह्व के मौके जैसा है क्योंकि चुनावी राजनीति का संसार अनिश्चयों से भरा पड़ा है. तेरह माह पहले, शाह अपने करियर की ऐसी बुलंदी पर पहुंच गए थे जिसकी मिसाल ढूंढे नहीं मिलती. मोदी को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिल गया था. बिहार में बीजेपी 40 लोकसभा सीटों में से 31 सीटें जीत गई थी. नीतीश कुमार की पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया था और उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था.
शाह अब बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. वे 11 जून को पटना में पार्टी के बिहार प्रभारी अनंत कुमार और उनकी टीम के साथ बैठक कर रहे थे. उसके बाद उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी से मिलना था, जो नीतीश के उत्तराधिकारी बनाए गए थे लेकिन नौ माह बाद ही हटा दिए गए. शाह के सामने कई तरह के सवाल खड़े थे कि बिहार में आज पार्टी की क्या स्थिति है. इसके 11 दिन बाद शाह जब फिर जायजा लेने लौटे तो काफी कुछ बदला हुआ नहीं था. हालांकि वे एक दिन पहले शहर में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के आयोजन की अगुआई करके कुछ तरोताजा हो गए थे और अपने स्वाभाविक अंदाज में दिख तो रहे थे पर उनमें पुराने विश्वास का भाव गायब था. उस दिन बैठक में शामिल बीजेपी के एक रणनीतिकार कहते हैं, ह्लराजनीति में साल भर काफी लंबा समय होता है. जमीनी स्थितियां बदल चुकी हैं.ह्व
दरअसल दिल्ली में बीजेपी की करारी हार से ही भगवा पार्टी का रथ रुक गया था और शाह के विजई अभियान के रिकॉर्ड पर भी विराम लग गया. फिर, खासकर दोनों धुर विरोधियों लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के हाथ मिलाने के बाद बीजेपी को भलीभांति मालूम है कि थोड़ा भी आलस उसके लिए भारी पड़ सकता है. उसके लिए यह भी अच्छी खबर नहीं हो सकती कि ऊंची जाति के भूमिहारों में प्रभाव रखने वाले वरिष्ठ नेता सी.पी. ठाकुर और सहयोगी दल राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के मुखिया तथा केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा के नाम मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर उछलें. हालांकि भगवा खेमे में इन दोनों के दावे को कोई गंभीरता से नहीं ले रहा. पार्टी के नेताओं को एहसास है कि यह उनकी ओर से दबाव बनाने का दांव है.
ठाकुर जहां अपने बेटे को टिकट दिलाना चाह रहे हैं तो कुशवाहा अपनी पार्टी के लिए ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करना चाहते हैं. बीजेपी के रणनीतिकारों को एहसास है कि आम चुनावों में कांग्रेस, लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और नीतीश कुमार के जेडी(यू) को मिले 45.06 प्रतिशत वोट बीजेपी को मिले 36.48 प्रतिशत वोट से काफी अधिक हैं. फिर, मोदी लहर भी खत्म हो चुकी है. ऐसे में अनौपचारिक बातचीत में बीजेपी के कई नेता पार्टी की संभावनाओं को बेहतर नहीं आंक रहे हैं.
लेकिन वोट प्रतिशत के इन आंकड़ों के साथ एक दूसरी सचाई भी है. साधारण गणित तो यही कहता है कि अगर लोकसभा का रुझान ही विधानसभा चुनाव में भी दोहराया गया तो जनता परिवार और कांग्रेस गठजोड़ को आसानी से बहुमत हासिल हो जाएगा, लेकिन सामान्य तर्कबुद्धि यह भी कहती है कि वोट एकमुश्त इतनी आसानी से हस्तांतरित नहीं होते. इसलिए इसकी संभावना कम ही है कि जेडी(यू) के परंपरागत वोटर अपने क्षेत्र में आरजेडी के उम्मीदवारों के पक्ष में बटन दबाएंगे या आरजेडी के वोटर जेडी(यू) उम्मीदवारों की ओर झुक जाएंगे. ऐसे हालात में 4 या 5 प्रतिशत मतदाताओं में विपरीत रुझान या वोट न डालने से अलग तरह का नतीजा आ सकता है और बीजेपी की संभावना बढ़Þ सकती है.
इसी वजह से बिहार के बीजेपी नेताओं की रणनीति इन दोनों पार्टियों के अंदरूनी विरोधाभासों के साथ खेलने की है जो किसी नेक इरादे की बजाए अपने अस्तित्व की रक्षा की खातिर एक साथ आ गए हैं. बीजेपी इसीलिए सबसे पहले उन 90 सीटों पर फोकस कर रही है जिन पर 2010 के विधानसभा चुनावों में आरजेडी और जेडी(यू) के उम्मीदवार एक-दूसरे के खिलाफ लड़े थे. उस समय जेडी(यू) एनडीए में हुआ करता था. अब लालू यादव और नीतीश कुमार के एकजुट होने पर इन सीटों पर जीते या हारे उम्मीदवारों में से किसी एक को टिकट देने से इनकार करना होगा. बीजेपी की योजना इन्हीं उम्मीदवारों को शह देकर खड़ा करने की है, ताकि वे जनता परिवार के साझा उम्मीदवार के वोट काट सकें.
इन सीटों पर बीजेपी को काफी संभावनाएं दिख रही है. बीजेपी के एक रणनीतिकार कहते हैं, ह्लकोई भी राजनीति में त्याग नहीं करता. जो नेता पांच साल से चुनाव का इंतजार कर रहे हैं, वे सिर्फ लालू यादव या नीतीश कुमार के चाहने भर से चुनावी मैदान से हट नहीं जाएंगे. वे बागी बन जाएंगे और हमें उम्मीद है कि ए 90 बागी काफी वोट काट लेंगे. वे जीत भले न दर्ज कर पाएं, लेकिन बीजेपी के उम्मीदवारों को जिताने में मददगार साबित हो सकते हैं.ह्व बीजेपी लालू-नीतीश के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए पप्पू यादव जैसे नेताओं की पीठ पर भी अपना हाथ रख सकती है, जो चुनावी जंग में करीब 50 उम्मीदवार उतार सकते हैं.
इसके अलावा बीजेपी अपने कार्यकतार्ओं को लालू-नीतीश गठजोड़ की बेमेल सचाइयों का पदार्फाश करने के लिए भी तैयार कर रही है. जेडी(यू) की मतदाताओं का मन जानने के लिए राज्यभर के 40,000 गांवों में जीपीएस से लैस करीब 10,000 वाहन भेजने की योजना है यह बीजेपी की 2014 के चुनावों की रणनीति की नकल ही है. दूसरी ओर बीजेपी ने भी नीतीश कुमार की 2010 के चुनावों की रणनीति पर अमल करने की योजना बनाई है. यानी वह लालू यादव और राबड़ी देवी राज के कथित जंगल राज को उजागर करने की रणनीति पर फोकस करेगी.
शाह के वार रूम में पटना पहुंचे दिल्ली के एक नेता कहते हैं, ह्लहमने 1990 के दशक के वे वीडियो खोज निकाले हैं जब चारों ओर हत्या, अपहरण और अपराधों का बोलबाला था. ए वीडियो कई न्यूज चैनलों के खजाने से निकाले गए हैं, जो उस समय के बिहार की भयावह तस्वीर पेश करते हैं. लोकसभा चुनावों की ही तरह हम फिर सभी 243 विधानसभा क्षेत्रों में 250 प्रचार गाडिय़ां भेजेंगे, जो संदेश प्रसारित करेंगी कि लालू यादव और सुशासन (नीतीश का नारा) एकदम उलट हैं.ह्व इस मामले में 35 वर्षीय रितुराज सिन्हा बड़े काम के साबित होंगे. परदे के पीछे रहकर प्रचार की व्यवस्था का कार्य भार संभालने वाले सिन्हा दून स्कूल और लीड्स यूनिवर्सिटी बिजनेस स्कूल में पढ़ चुके हैं और बीजेपी के वार रूम की देखरेख करेंगे. इस प्रचार व्यवस्था में हर क्षेत्र में वीडियो रथ भेजना और उसकी रिपोर्ट हासिल करना शामिल है.
इसमें सोने पर सुहागे का काम नीतीश कुमार का 2010 का वह वीडियो करेगा जिसमें उन्होंने लालू यादव और उनके आतंक राज पर खुलकर हमला किया था. एक वक्त नीतीश कुमार की सरकार में उप-मुख्यमंत्री रहे और राज्य में बीजेपी के कद्दावर नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं, लालू यादव के कंधे पर बैठकर नीतीश कुमार बिहार में अपराध को काबू में नहीं कर सकते.
बिहार की जाति आधारित चुनावी राजनीति में जनता परिवार का समर्थन आधार कागज पर तो अजेय लगता है. इसके विपरीत बीजेपी का समर्थन आधार ऊंची जातियों, बनियों और कुछ पिछड़ी जातियों के अलावा लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान के लाए दलित वोटों तक ही सीमित है. जीतन राम मांझी को अपने पाले में लाकर बीजेपी उनसे चमत्कार की उम्मीद कर रही है. बिहार की 16 प्रतिशत दलित जातियों में से 5-6 प्रतिशत मुसहरों में मांझी की पैठ बताई जाती है. मुसहर जाति बिहार की तीसरी सबसे अधिक आबादी वाली जाति है. ऐसे में केवल अमित शाह और नीतीश कुमार को ही नहीं, बिहार से सबको उम्मीदें हैं इसलिए दांव काफी ऊंचे हैं. और यह सियासी खेल तो अभी शुरू ही हुआ है. from aajtak
Related News
इसलिए कहा जाता है भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपियर
स्व. भिखारी ठाकुर की जयंती पर विशेष सबसे कठिन जाति अपमाना / ध्रुव गुप्त लोकभाषाRead More
पारिवारिक सुख-समृद्धि और मनोवांछित फल के लिए ‘कार्तिकी छठ’
त्योहारों के देश भारत में कई ऐसे पर्व हैं, जिन्हें कठिन माना जाता है, यहांRead More
Comments are Closed